महिलाओं के लिए खोली जाए राह

वैश्विक स्त्री-पुरुष समानता सूचकांक की हाल ही में आई रिपोर्ट में भारत दुनिया के 129 देशों में से 95वें पायदान पर है। सामाजिक और सांस्कृतिक धरातल पर देखें, तो...
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राज एक्सप्रेस। कई स्तरों पर हमारे देश में महिलाओं की स्थिति बेहद खराब है। भूमंडीकरण के दौर के बाद हमारे यहां महिलाओं की स्थिति और भी ज्यादा बिगड़ी है। महिलाओं को ज्यादा से ज्यादा मौके देकर स्थिति में सुधार संभव है। वैश्विक स्त्री-पुरुष समानता सूचकांक की हाल ही में आई रिपोर्ट में भारत दुनिया के 129 देशों में से 95वें पायदान पर है। सामाजिक और सांस्कृतिक धरातल पर देखें, तो कई स्तरों पर हमारे देश में महिलाओं की स्थिति बेहद खराब है। भूमंडीकरण के दौर के बाद हमारे यहां महिलाओं की स्थिति और भी ज्यादा बिगड़ी है। महिलाओं को ज्यादा से ज्यादा मौके देकर स्थिति में सुधार संभव है।

देश के नीति निर्माता स्त्री-पुरुष के बीच असमानता को खत्म करने की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन जमीनी हकीकत क्या है, खुलासा वैश्विक स्त्री-पुरुष समानता सूचकांक की हाल ही में आई रिपोर्ट से होता है। इसमें भारत, दुनिया के 129 देशों में से 95वें पायदान पर है। यह सूचकांक गरीबी, स्वास्थ्य, शिक्षा, साक्षरता, राजनीतिक प्रतिनिधित्व और कार्यस्थल पर समानता जैसे पहलुओं का आंकलन करता है। इस सूचकांक में हमारे पड़ोसी देश चीन को 74वां स्थान मिला है। वहीं भारतीय महाद्वीप के दीगर देश पाकिस्तान 113वें और बांग्लादेश 110वें पायदान पर है। पहले स्थान पर डेनमार्क है। रिपोर्ट से मालूम चलता है कि स्त्री-पुरुष के बीच समानता के मामले में हमारे यहां स्थिति सुधरने की बजाय और भी बदतर हुई है। तमाम सरकारी, गैर सरकारी कोशिशों के बावजूद देश में स्त्री-पुरुष के बीच असमानता और भी बढ़ी है। स्त्री-पुरुष के बीच असमानता की खाई को यूरोपीय देशों ने अपने यहां ज्यादा बेहतर तरीके से पाटा है। जबकि हमारे देश में स्त्री-पुरुष के बीच समानता की कोशिशें अब भी नाकाफी हैं। जिसके लिए सरकार को हर क्षेत्र में पहले से और भी ज्यादा काम करने होंगे।

इस रिपोर्ट को ब्रिटेन की इक़्विल मेजर्स 2030 ने तैयार की है। यह अफ्रीकन वुमेंस डेवलपमेंट एंड कयुनिकेशन नेटवर्क, एशिया पैसेफिक रिसोर्स एंड रिसर्च सेंटर फॉर वुमेन, बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन, इंटरनेशनल वुमेन्स हेल्थ कोलिशन समेत क्षेत्रीय और वैश्विक संगठनों का एक संयुक्त प्रयास है। रिपोर्ट में खास तौर से यह देखने की कोशिश की जाती है कि दुनिया में लैंगिक समानता के स्तर पर क्या सुधार आया और विभिन्न देश अपने यहां स्त्री एवं पुरुष के बीच स्वास्थ, शिक्षा, राजनीतिक भागीदारी, संसाधन और अवसरों का वितरण किस तरह से करते हैं? नए सूचकांक में 17 सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) में से 14 के 51 संकेतक शामिल हैं। सबसे ज्यादा हैरानी की बात यह है कि भारत, एशिया और प्रशांत क्षेत्र में निचले पायदान पर है। एशिया और प्रशांत के 23 देशों में उसे 17वें स्थान पर रखा गया है। ऐसा नहीं कि भारत की स्थिति हर क्षेत्र में निराशाजनक है, कुछ क्षेत्रों में देश ने तरक्की भी की है।

मसलन भारत का सबसे ज्यादा स्कोर, एसडीजी तीन के स्वास्थ्य क्षेत्र (79.9), भूख और पोषण (76.2) और ऊर्जा क्षेत्र (71.8) में रहा। वहीं सबसे कम स्कोर भागीदारी क्षेत्र (18.3), उद्योग, बुनियादी ढांचा और नवोन्मेष (38.1) और जलवायु (43.4) में रहा। लैंगिक समानता के मामले में भारत की स्थिति में गिरावट कोई नई बात नहीं है। हमारे यहां यह सूचकांक कई सालों से ज्यों का त्यों हैं। इसमें कोई खास तब्दीली नहीं आई है। सामाजिक और सांस्कृतिक धरातल पर देखें, तो कई स्तरों पर हमारे देश में महिलाओं की स्थिति बेहद खराब है। देश में जब उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण जैसी आर्थिक नीतियां अमल में आईं, तो एक बारगी यह लगा कि अब महिलाओं की स्थिति सुधरेगी। उनको भी पुरुषों की तरह हर क्षेत्र में समानता का अवसर मिलेगा। श्रम का फेमिनाइजेशन होगा। लेकिन यह भ्रम बहुत जल्द ही टूट गया। खासकर भूमंडीकरण के दौर के बाद हमारे यहां महिलाओं की स्थिति और भी ज्यादा बिगड़ी है। उदारीकरण का पिछले दो दशकों का तजुर्बा हमें यह बतलाता है कि समाज में स्त्री-पुरुष के बीच असमानता बढ़ी है। देश में तमाम क्षेत्रों में विकास की प्रक्रिया के दौरान महिलाओं के हिस्से में असमानता ही आई है। आंकड़े खुद गवाही देते हैं कि उदारीकरण के दौर में लाखों महिलाओं के हाथ से काम छिना है। एनएसएसओ के नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक शहरों में महिलाओं की बेरोजगारी दर 10.8 प्रतिशत पर है।

एक महत्वपूर्ण बात और जिन क्षेत्रों में महिलाएं कार्यरत हैं, वहां भी महिलाओं के लिए कार्य दशाएं उपयुक्त नहीं हैं। उन्हें वहां जरा सा भी सुरक्षित माहौल नहीं मिलता। उन्हें सरकार और समाज सुरक्षित माहौल मुहैया कराए, इसके उलट उन पर यह इल्जाम लगाया जाता है कि महिलाएं घर से बाहर काम नहीं करना चाहतीं। उनके संस्कार उन्हें घर के बाहर काम करने से रोकते हैं। जाहिर है कि इस बात में जरा सी भी सच्चाई नहीं। महिलाएं खुद चाहती हैं कि जीवन के हर क्षेत्र में आगे बढ़कर अपनी हिस्सेदारी को बढ़ाएं। परिवार के लिए आर्थिक स्तर पर भी कुछ योगदान कर पाएं। वे भी हर क्षेत्र में नई-नई उड़ाने भरें। पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलें। लेकिन हमारे समाज की जो पितृसश्रात्मक व्यवस्था है, उसमें महिलाओं को पुरुषों से कमतर समझा जाता है। परिवार और समाज में उनके साथ शुरू से ही भेदभाव किया जाता है। समाज उन्हें इस लायक नहीं समझता कि वे पुरुष की बराबरी कर सकती हैं। जबकि चाहे कोई सा भी क्षेत्र हो, महिलाओं ने अपने आप को उसमें अच्छी तरह से साबित किया है। कई मामलों में तो उलटे उन्होंने पुरुषों से बेहतर काम किया है। महिलाएं घर के बाहर काम करना चाहती हैं, लेकिन कार्यस्थल पर उनके लिए जो सुरक्षित माहौल होना चाहिए, वह उन्हें नहीं मिलता। कार्यस्थल पर आते-जाते और कार्यस्थल में उन्हें काफी कुछ झेलना पड़ता है। मानसिक-शारीरिक यानी सब तरह की हिंसा की जाती है।

देश में हर साल महिला हिंसा के लगभग 30 हजार मामले दर्ज होते हैं, जिसकी वजह से उनके मन में हमेशा असुरक्षा का भाव रहता है। आंध्र प्रदेश, उार प्रदेश और पश्चिम बंगाल जैसे बड़े राज्यों में स्थिति और भी ज्यादा खराब है। लैंगिक समानता के पैमाने पर भारत के पिछड़ने की एक वजह, लिंग अनुपात में असमानता है। हमारे यहां लड़का-लड़की की जन्म दर में अभी भी काफी फर्क है। यानी स्त्रीपुरुष के बीच असंतुलन उनकी पैदाइश से ही शुरू हो जाता है, जो कि आगे तक जारी रहता है। हमारी आर्थिक, सामाजिक नीतियां ही कुछ ऐसी हैं कि वे महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में हिस्सेदारी के लिए प्रोत्साहित करने की बजाय हतोत्साहित करती हैं। राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी व योजनाओं को ठीक ढंग से लागू करने में नौकरशाही की कोताही लैंगिक समानता के स्तर पर भारत के पिछड़ने की मुख्य वजह रही हैं। ऐसा नहीं कि यह स्थिति सुधर नहीं सकती। स्थिति सुधर सकती है, बशर्ते इस दिशा में सच्चे दिल से कोशिशें की जाएं। सबसे पहले हमें समाज में महिलाओं के प्रति हिंसा और अपराध को कम करना होगा। उन्हें हर जगह सुरक्षित माहौल देना होगा। अगर सामाजिक शांति होगी, तो महिलाओं की हर क्षेत्र में भागीदारी भी बढ़ेगी। इसके अलावा शिक्षा और स्वास्थ्य प्रणाली में भी क्रांतिकारी बदलाव जरूरी हैं। सभी महिलाओं तक शिक्षा और स्वास्थ की सुविधाएं पहुंचे।

चुनावों के आंकड़े बताते हैं कि संसद में महिला सांसदों की संख्या दहाई की दहलीज से कभी आगे नहीं बढ़ पाई है। मौजूदा लोकसभा में आजादी के बाद से महिला सांसदों की संख्या सबसे अधिक है। वर्ष 2014 में जहां 62 महिला सांसद संसद पहुंची थीं, वहीं अब इनकी संख्या 78 हो गई है। यदि दुनिया भर के आंकड़ें देखें, तो भारत में महिला सांसदों का औसत सबसे कम है। कानून बनाने से लेकर देश के लिए नई नीतियां भी संसद से तय होती हैं। संसद में महिलाओं की भागीदारी बढ़ेगी तो न सिर्फ समाज में महिलाओं की स्थिति सुधरेगी, बल्कि पूरे समाज और देश की स्थिति और भी ज्यादा बेहतर होगी। स्त्री-पुरुष के बीच असमानता में भी कमी आएगी।

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