इंदिरा गांधी के बाद प्रधानमंत्री के रूप में "प्रणब" का नाम भी चर्चा में था

प्रणब दा ने धर्मनिरपेक्षता के अपने मूल्यों की अलख जगा दी। प्रणब दा ने लोकतंत्र को मजबूत बनाने में संवाद की भूमिका को हमेशा तवज्जो दी। वही भूमिका उनको समकालीन नेताओं से अलग करती थी।
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भारतीय राजनीति में प्रणब मुखर्जी हर किसी के लिए सम्मान का प्रतीक थे। प्रणब दा को भारतीय राजनीति में एक विद्वान चरित्र के रूप में सम्मान हासिल रहा। प्रणब दा के पास इतिहास, राजनीतिक शास्त्र और कानून की डिग्रियां थीं। क्लर्क, पत्रकार और टीचर के तौर पर काम किया। फिर 1969 में पिता के नक्श-ए- कदम पर चलते हुए राजनीति में आ गए। वर्ष 2008 में उन्हें पद्म विभूषण और 2019 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया। प्रणब के राजनीतिक करियर में तीन बार ऐसे मौके आए, जब लगा कि प्रधानमंत्री वे ही बनेंगे, लेकिन तीनों बार प्रणब दा प्रधानमंत्री नहीं बन सके। इंदिरा गांधी के आग्रह पर प्रणब दा पहली बार राज्यसभा के रास्ते संसद पहुंचे थे। इंदिरा गांधी राजनीतिक मुद्दों पर प्रणब की समझ की कायल थीं। यही वजह थी कि इंदिरा ने प्रणब दा को कैबिनेट में नंबर दो का दर्जा दिया। यह इसलिए भी खास है क्योंकि कैबिनेट में आर. वेंकटरामन, पीवी नरसिम्हाराव, ज्ञानी जैल सिंह, प्रकाश चंद्र सेठी और नारायण दत्त तिवारी जैसे कद्दावर नेता थे।

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद अगले प्रधानमंत्री के रूप में प्रणब का नाम भी चर्चा में था, पर पार्टी ने राजीव गांधी को चुना। 1991 में राजीव गांधी की हत्या के बाद चुनाव में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हुई। माना जा रहा था कि इस बार प्रणब के मुकाबले कोई दूसरा चेहरा पीएम पद का दावेदार नहीं है, लेकिन इस बार नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री बनाया गया। प्रणब को पहले योजना आयोग का उपाध्यक्ष और फिर 1995 में विदेश मंत्री बनाया गया। 2004 में प्रणब मुखर्जी का नाम फिर चर्चा में था, लेकिन सोनिया गांधी ने जाने माने अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना। भले ही प्रणब का नाता कांग्रेस से था, लेकिन वे भाजपा के दो नेताओं अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी से काफी प्रभावित थे। अटलजी को प्रणब सबसे असरदार, तो नरेंद्र मोदी को सबसे तेजी से सीखने वाला पीएम मानते थे। यहीं नहीं, प्रधानमंत्री मोदी ने भी प्रणब मुखर्जी की तारीफ में कहा था कि जब मैं दिल्ली आया था, तब प्रणब दा ने ही उंगली पकड़कर सिखाया।

प्रणब दा फैसले पर कायम रहने वाले लोगों में से एक थे। उनकी यह झलक 7 जून-2019 में संघ के समारोह में शामिल होने पर दिखी थी। अलग विचारधारा के होने के बाद भी उन्होंने इस कार्यक्रम में हिस्सा लिया था। उनके इस फैसले पर कांग्रेस नेताओं ने भी सवाल उठाए थे। बेटी ने भी पिता से अपील की कि वो न जाएं। पर प्रणब नागपुर पहुंचे। उन्होंने आरएसएस के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार को बड़ी शिद्दत से याद किया, जो हिंदुओं का सबसे बड़ा संगठन खड़ा करने से पहले कांग्रेस के नेता थे। संघ के कार्यक्रम में प्रणब दा गए तो जरूर लेकिन संघ की एक परंपरा भी उनकी वजह से टूटी। संघ में किसी मुख्य अतिथि के बोलने के बाद सरसंघचालक का भाषण होता है लेकिन प्रणब मुखर्जी के मामले में वो परंपरा टूट गई।

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