राज एक्सप्रेस। श्राद्ध अपने अस्तित्व से, मूल से रूबरू होने और जड़ों से जुड़ने, उसे पहचानने व सम्मान देने का सामाजिक मिशन, मुहिम या प्रक्रिया का हिस्सा था, जिसने प्राणायाम, योग, व्रत, उपवास, यज्ञ और असहायों की सहायता जैसे अन्य कल्याणकारी सकारात्मक कर्मों और उपक्रमों की तरह कालांतर में आध्यात्मिक और धार्मिक चादर ओढ़ ली। वक्त के इस पवित्र काल को अशुभ काल मानना नादानी है।
सामान्य रूप से पितृपक्ष यानी श्राद्ध के काल को मृत व्यक्तियों एवं पूर्वजों से जोड़ कर देखा जाता है और कहीं-कहीं इसे अशुभ काल माना जाता है, जो इस पावन कालखंड की बेहद त्रुटिपूर्ण व्याख्या है। समय के इस हिस्से में अपार संभावना छुपी हुई हैं। आध्यात्मिक मान्यताओं के अनुसार यह तो एक ऐसी अदभुत बेला है, जिसमें मानव सृष्टि अपने अल्पप्रयास मात्र से वृहद और अप्रतिम परिणाम साक्षी बनती है। अध्यात्म के नजरिये से पितृपक्ष रूह और रूहानी यानी आत्मा और आत्मिक उत्कर्ष का वो पुण्यकाल है, जिसमें कम से कम प्रयास से अधिकाधिक फलों की प्राप्ति कर पाना संभव है। अध्यात्म, इस काल को जीवात्मा के कल्याण यानी मोक्ष के लिए सर्वश्रेष्ठ मानता है। जीवन-मरण के चक्र से परे हो जाने की अवधारणा को मोक्ष कहते हैं। श्रद्धया इदं श्राद्धम् अर्थात् अपने पूर्वजों की आत्मिक संतुष्टि व शांति और मृत्यु के बाद उनकी निर्बाध अनंत यात्र के लिए पूर्ण श्रद्धा से अर्पित कामना, प्रार्थना, कर्म व प्रयास को हम श्राद्ध कहते हैं। इस पक्ष को इसके अद्भुत गुणों के कारण ही पितृ और पूर्वजों से संबद्ध गतिविधियों से जोड़ा गया है। यह पक्ष सिर्फ मरे हुए लोगों का काल है, यह धारणा सही नहीं है।
इस पखवाड़े में स्थूल गतिविधियों को महत्व नहीं दिया गया, क्योंकि आध्यात्मिक दृष्टिकोण स्थूल समृद्धि और भौतिक सफलता को क्षणभंगुर यानी शीघ्र ही मिट जाने वाला मानता है और भारतीय दर्शन इतने कीमती कालखंड का इतना सस्ता उपयोग नहीं करना चाहता। पर सनद रहे कि, ऐश्वर्य की कामना रखकर महालक्ष्मी को प्रसन्न करने वाली समृद्धि की साधना भी इस पक्ष के बिना पूर्ण नहीं होती। महालक्ष्मी आराधना का द्वितीय खंड में इस पक्ष के प्रथम सप्ताह का प्रयोग होता है। संदर्भ के लिए लक्ष्मी उपासना का काल भाद्रपद के शुक्ल की अष्टमी यानी राधा अष्टमी से आरंभ होकर कृष्ण पक्ष की अष्टमी तक होता है। परंपराओं के अनुसार इस काल में श्राद्ध, तर्पण, उपासना, प्रार्थना से पितृशांति के साथ जीवन के पूर्व कर्म जनित संघर्ष से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। धर्मसिंधु में श्राद्ध के लिए सिर्फ पितृपक्ष ही 96 कालखंड का विवरण प्राप्त होता है।
वर्ष की 12 अमावस्याएं, 4 पुणादितिथियां, 14 मन्वादि तिथियां, 12 संक्रांतियां, 12 वैधृति योग, 12 व्यतिपात योग, 15 पितृपक्ष, 5 अष्टका, 5 अन्वष्टका और 5 पूर्वेद्यु। मत्स्य पुराण में त्रिविधं श्राद्ध मुच्यते यानी तीन प्रकार के श्राद्ध नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य का उल्लेख मिलता है। यमस्मृति में पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक, काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से श्राद्ध है पर भविष्य पुराण और विश्वामित्र स्मृति द्वादश श्राद्धों यदा, नित्य, नैमित्तिक, काम्यम, वृद्धि, सपिंड, पार्वण, गोष्ठी, शुद्धयर्थ, कर्माग, तीर्थ, यात्रर्थ और पुष्टि का उल्लेख करती है। सनातन हिंदू धर्मावलबियों के लिए गया पितृपक्ष का बड़ा महत्व है। हिंदू संस्कृति में मनुष्य पर माने गए सबसे बड़े ऋण पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए भी पितृपक्ष का बहुत महत्व है। हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण पितृ ऋण, देव ऋण तथा ऋषि ऋण प्रमुख माने गए हैं, इनमें पितृ ऋण सवरेपरि है। पितृ ऋण में पिता के अतिरिक्त माता तथा पूर्वज सम्मिलित हैं। पितृपक्ष में प्रत्येक परिवार में मृत माता-पिता का श्राद्ध किया जाता है, परंतु गया श्राद्ध का विशेष महत्व है। यूं तो पितृपक्ष 15 दिनों का होता है लेकिन इस बार षष्ठी तिथि का क्षय होने से श्राद्ध पक्ष 14 दिन का है। अश्विन मास का कृष्ण पक्ष पितरों को समर्पित है।
वाल्मीकि रामायण में सीता द्वारा पिंडदान देने से दशरथ की आत्मा को मोक्ष मिलने का संदर्भ आता है। अपने वनवास काल में भगवान राम, लक्ष्मण और सीता पितृ पक्ष के दौरान श्राद्ध करने के लिए गया धाम गए थे। श्रद्धापूर्वक श्राद्ध किए जाने से पितर वर्ष भर तृप्त रहते हैं और उनकी प्रसन्नता से वंशजों को दीर्घायु, संतति, धन, विद्या, सुख एवं मोक्ष की प्राप्ति होती है। मार्कण्डेय और वायु पुराण में कहा गया है कि किसी भी परिस्थिति में पूर्वजों के श्राद्ध से विमुख नहीं होना चाहिए लेकिन व्यक्ति सामर्थ्य के अनुसार ही श्राद्ध कर्म करे। सभी प्रकार के श्राद्ध पितृ पक्ष के दौरान किए जाने चाहिए। लेकिन, अमावस्या का श्राद्ध ऐसे भूले बिसरे लोगों के लिए ग्राह्य होता है जो अपने जीवन में भूल या फिर परिस्थितिवश अपने पितरों को श्रद्धासुमन अर्पित नहीं कर पाते। श्राद्ध में कुश और काला तिल का बहुत महत्व होता है। दर्भ या कुश को जल और वनस्पतियों का सार माना जाता है। श्राद्ध वैदिक काल के बाद से शुरू हुआ। वसु, रुद्र और आदित्य श्राद्ध के देवता माने जाते हैं। श्राद्ध के लिए चावल को मिट्टी के हंड़िया में पका कर उसका लड्डू बनाया जाता है। उसके बाद उसे पत्तल पर रखते हैं। कर किसी पात्र में दूध, जल, काला तिल और पुष्प लेकर कुश के साथ तीन बार तर्पण करना होता है। बाएं हाथ में जल लेकर दायें दाहिने हाथ के अंगूठे को पृथ्वी की तरफ करते हुए लड्डुओं पर डालते हैं। पितरों के निमित्त सारी क्रियाएं बाएं कंधे मे जनेऊ डाल कर और दक्षिण की ओर मुख करके की जाती है।
प्रत्येक व्यक्ति के तीन पूर्वज पिता, दादा और परदादा क्रम से वसु, रुद्र और आदित्य के समान माने जाते हैं। श्राद्ध के वक्त वे ही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि माने जाते हैं। मान्यता है कि रीति-रिवाजों के अनुसार कराए गए श्राद्ध-कर्म से तृप्त होकर पूर्वज अपने वंशधर को सपरिवार सुख-समृद्धि और स्वास्थ्य का आर्शीवाद देते हैं। श्राद्ध-कर्म में उच्चारित मंत्रों और आहुतियों को वे अन्य सभी पितरों तक ले जाते हैं। उपनिषदों में कहा गया है कि देवता और पितरों के कार्य में कभी आलस्य नहीं करना चाहिए। पितर जिस योनि में होते हैं, श्राद्ध का अन्न उसी योनि के अनुसार भोजन बनकर उन्हें प्राप्त होता है। श्राद्ध जैसे पवित्र कर्म में गौ का दूध, दही व घृत सर्वोत्तम माना गया है। धर्मशास्त्र में पितरों को तृप्त करने के लिए जौ, धान, गेहूं, मूंग, सरसों का तेल, कंगनी, कचनार आदि का उपयोग बताया गया है। इसमें आम, बहेड़ा, बेल, अनार, पुराना आंवला, खीर, नारियल, फालसा, नारंगी, खजूर, अंगूर, नीलकैथ, परवल, चिरौंजी, बेर, जंगली बेर, इंद्र जौ के सेवन आदि का भी विधान है। तिल को देव अन्न कहा गया है। काला तिल ही वह पदार्थ है जिससे पितर तृप्त होते हैं।
कौए को पितरों का वाहक रूप माना जाता है। मान्यता है कि श्राद्ध ग्रहण करने के लिए हमारे पितर के लिए वाहक बन कौए नियत समय पर घर पर आते हैं। अगर उन्हें श्राद्ध नहीं मिलता है तो वह रुष्ट हो जाते हैं इसलिए श्राद्ध का प्रथम अंश कौओं के लिए निकाला जाता है। माता का श्राद्ध नवमी को किया जाता है। ऊधर्व भाग पर रह रहे पितरों के लिए कृष्ण पक्ष उत्तम होता है। कृष्ण पक्ष की अष्टमी को उनके दिनों का उदय होता है। अमावस्या उनका मध्याह्न् है तथा शुक्ल पक्ष की अष्टमी अंतिम दिन होता है। मान्यता है कि अमावस्या को किया गया श्राद्ध, तर्पण, पिंडदान उन्हें संतुष्टि एवं ऊर्जा प्रदान करते हैं।
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