राज एक्सप्रेस। भारत में जनसांख्यिकीय बदलाव बड़े संकट की ओर इशारा कर रहा है। समग्रता में भले ही इसका असर आर्थिक एवं सामाजिक परिप्रेक्ष्य में दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है, लेकिन इसका दूरगामी प्रभाव पड़ने से इंकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि जैसे-जैसे लोगों की आयु बढ़ती है बचत में वृद्धि देखी जाती है लेकिन ज्यादा उम्र होने पर स्वास्थ्य व्यय में वृद्धि होती है। बचत में कमी आने से राज्यों के घरेलू उत्पादों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
किसी भी देश में बुजुर्गो की संख्या यानी 65 साल से अधिक आयु वाले लोगों की संख्या बढ़ने से बचत में कमी आती है साथ ही साथ श्रम शक्ति में भी गिरावट आती है, जिससे निवेश के प्रतिफल में गिरावट देखी जाती है और निवेश दर भी कम होता है। फिलहाल इस वक्त भारत, अमेरिका व चीन की तुलना में युवा देश है और आगामी दशकों में भी भारत के युवा बने रहने की संभावना है। हमारे अनुमान के अनुसार, वर्ष 2011 में बुजुर्गो की 5.5 फीसदी की आबादी वर्ष 2050 तक बढ़कर 15.2 फीसदी हो जाएगी जबकि वर्ष 2050 में बुजुर्गों की आबादी चीन में 32.6 फीसदी व अमेरिका में 23.2 फीसदी हो जाएगी।
अमेरिका में एक लंबे समय तक जीवन प्रत्याशा, कम जन्म दर, स्वास्थ्य देखभाल की लागत बढ़ने आदि के कारण सार्वजनिक स्वास्थ्य देखभाल व्यय में अभूतपूर्व इजाफा हो रहा है, जिससे राष्ट्रीय संसाधनों का एक बड़ा हिस्सा इस मद में खर्च हो रहा है। इस वजह से वहां श्रमिकों की संख्या में भारी कमी आई है। कामगारों के लिए अमेरिका की निर्भरता दूसरे देशों पर बढ़ी है। उद्योग-धंधों पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। बच्चे, किशोर एवं युवाओं के बीच एकाकीपन और अवसाद के मामले देखे जा रहे हैं।
जनसांख्यिकी और अर्थशास्त्र के अमेरिकी प्रोफेसर रोनाल्ड ली के अनुसार, अमेरिका को कामकाजी और सेवानिवृत्ति पर अपने दृष्टिकोण और नीतियों पर पुनर्विचार करना चाहिए। हालांकि, 65 वर्ष को पारंपरिक रूप से सामान्य सेवानिवृत्ति की उम्र माना जाता है, पर मौजूदा परिप्रेक्ष्य में बुजुर्गों को परिभाषित करने और बुजुर्गों के लिए लाभ निर्धारित करने के लिए इसे अप्रासंगिक सीमा मानी जा सकती है। रोनाल्ड ली के मुताबिक वृद्धावस्था में श्रम बल की भागीदारी में वृद्धि के लिए पर्याप्त क्षमता है।
ऐसा करने से राष्ट्रीय उत्पादन में बढ़ोत्तरी होगी जबकि सेवानिवृत्ति बचत पर निकासी को धीमा कर देगा और श्रमिकों को लंबे समय तक पैसा बचाने के लिए प्रेरित करेगा। सबसे महत्वपूर्ण यह है कि लंबे कामकाजी जीवन का युवा श्रमिकों, उत्पादकता या नवाचार से संबंधित रोजगार के अवसरों पर कम असर पड़ेगा। इसके अलावा श्रमिक भविष्य की योजना बनाकर और अपनी बचत और व्यय की आदतों को अनुकूलित करके सेवानिवृत्ति के लिए तैयारी कर सकते हैं। इस संबंध में बेहतर वित्तीय साक्षरता महत्वपूर्ण साबित हो सकता है क्योंकि आज भी अमेरिका की एक बड़ी आबादी सेवानिवृत्ति के लिए पर्याप्त बचत नहीं कर पा रही है।
लंबे समय तक एक बच्चे पैदा करने की नीति के कारण चीन में युवा आबादी की संख्या बहुत ज्यादा कम हो गई है और बुजुर्गो की संख्या में भारी इजाफा हुआ है। देश में श्रमिक बल के कम होने से देश की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1980 में आबादी को नियंत्रित करने के लिए चीन ने एक बच्चे की नीति को लागू किया था। इसके पहले वहां औसतन परिवार में तीन से चार बच्चे हुआ करते थे। इस योजना को कड़ाई से लागू किया गया। इस क्रम में लोगों को नौकरी से बर्खास्त करने के अलावा महिलाओं का जबर्दस्ती गर्भपात भी कराया गया।
बहरहाल इस नीति की वजह से चीन की आर्थिक एवं सामाजिक संरचना में व्यापक बदलाव देखा जा रहा है। बच्चे निराशा और अवसाद के शिकार हो रहे हैं। मनोवैज्ञानिक कारणों से उनकी परवरिश ठीक तरीके से नहीं हो पा रही है। बच्चों में आत्मविश्वास की कमी देखी जा रही है। प्रतिस्पर्धा से बच्चे बचने की कोशिश करते देखे जा रहे हैं। माता-पिता की अपने इकलौते संतान के प्रति आत्मीयता बहुत ज्यादा बढ़ गई है। लड़कियों की जगह लड़के पैदा करने के प्रति लोगों का रुझान बढ़ा है। एक संतान होने से अभिभावकों की आय में वृद्धि हुई है। शिक्षा के स्तर में भी वृद्धि हुई है। लोग ज्यादा से ज्यादा डिग्री हासिल करने लगे हैं। बदले परिवेश में शिक्षा भी महंगी हुई है आदि।
वर्ष 2013 में चीन की राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार 2012 में देश में 35 लाख श्रमिकों की कमी देखी गई। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या विभाग के मुताबिक अगली सदी में चीन की कुल श्रमिक आबादी की जनसंख्या महज 54.8 करोड़ रह जाएगी। एक अनुमान के मुताबिक 2030 तक चीन की आबादी में उम्र के अंतर के मामले में एक बड़ी खाई पैदा हो जाएगी। जाहिर है श्रमिक तबके में कमी आने से देश का बुनियादी ढांचा जो विकास का वाहक होता है पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। श्रमिक बल की कमी से सड़क, बिजली, स्वास्थ्य, शिक्षा, उद्योग और विनिर्माण आदि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। यह बताना दिलचस्प होगा कि विश्व में वित्तीय सेवा प्रदाता क्रेडिट सुइस की एक रिपोर्टमय कहा गया है कि चीन में वर्ष 2017 से वर्ष 2021 तक 30 से 50 लाख तक अतिरिक्त बच्चे पैदा हो सकते हैं।
केवल इस रिपोर्ट को दृष्टिगत करके चीन में बच्चों की समान बनाने वाली कंपनियों को बढ़ावा दिया जा रहा है जबकि कंडोम बनाने वाली कंपनियों में मंदी की स्थिति देखी जा रही है। यह इस बात का सूचक है कि जनसांख्यिकीय बदलाव का देश की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति पर सीधे तौर पर प्रभाव पड़ता है। भारत के राज्यों में बुजुर्ग आबादी को लेकर जटिल स्थिति का निर्माण हो सकता है। आंकड़ों से पता चलता है कि कुछ राज्यों, जिसमें ज्यादातर दक्षिण भारत के राज्य शामिल हैं उनमें बुजुर्गो की आबादी में अप्रत्याशित वृद्धि हो सकती है।
एक अनुमान के मुताबिक भारत की जनसंख्या 2050 तक 178 करोड़ तक पहुंच सकती है जबकि विश्व बैंक के अनुसार वर्ष 2050 तक भारत की आबादी 173 करोड़ होगी, जिसमें 27 करोड़ की आबादी बुजुर्गों की हो सकती है। सूक्ष्म स्तर पर इससे किसी तरह की समस्या उत्पन्न नहीं होगी, लेकिन समग्रता में इसका प्रभाव आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति पर पड़ेगा। ऐसी स्थिति को राज्यवार देखने पर संख्या खतरनाक दिख रही है। 2050 तक चार दक्षिणी राज्यों जैसे आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु में कुल आबादी का पांचवां हिस्सा बुजुर्ग आबादी का हो जाएगा, वहीं महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल और ओडिशा आदि राज्यों में एक बड़ी आबादी बुजुर्गो की हो जाएगी जिससे पूर्व और उत्तर पूर्व भारत से आगामी दशकों में श्रमिकों का निरंतर पलायन होगा, जैसा कि पिछले एक दशक से इन राज्यों में हो रहा है।
यूपी, राजस्थान, असम, बिहार, हरियाणा में 2050 में युवा आबादी की संख्या ज्यादा रहेगी जिसके कारण इन राज्यों से दक्षिण के राज्यों में युवाओं का पलायन जारी रहेगा। ऐसे परिवर्तनों की वजह से दक्षिणी राज्यों की आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति पर प्रभाव पड़ना लाजिमी है। इससे दक्षिणी राज्यों के बुनियादी ढांचे पर भी दबाव बढ़ सकता है। जनसांख्यिकीय संकट से बचने के लिए आंध्र प्रदेश ने लोगों को और अधिक बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करना शुरू कर दिया है लेकिन प्रभावित राज्यों के लिए प्रजनन दर की प्रवृत्ति में बदलाव लाना आसान नहीं होगा।
वित्त वर्ष 2017 में राज्यवार प्रति व्यक्ति आय के आंकड़ों से साफ है कि दक्षिणी राज्य, उत्तरी राज्यों की तुलना में अधिक समृद्ध हैं और दोनों क्षेत्रों की आय में व्यापक अंतर है। उदाहरण के लिए कर्नाटक और बिहार के बीच प्रति व्यक्ति आय का अंतर 1.1 लाख रुपए है वहीं कर्नाटक और औसत राष्ट्रीय आय के बीच लगभग 57 हजार रुपए का अंतर है। 2050 तक दक्षिणी राज्यों में बुजुर्गो की आबादी बढ़ेगी जिससे आय वितरण का अंतर और भी व्यापक होगा। दिलचस्प बात यह है कि न्यू वल्र्ड वेल्थ रिपोर्ट 2016 में कहा गया है कि दक्षिण भारत के बेंगलुरु में सबसे ज्यादा सात हजार 700 करोड़पति हैं। मामले में चेन्नई छह हजार 600 करोड़पतियों के साथ दूसरे स्थान पर है। ऐसी रोचक स्थिति के लिए बुजुर्गों की बढ़ती आबादी को एक बहुत बड़ा कारण माना जा सकता है।
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