अकाली दल को सत्ता पाने के लिए 40 फीसदी से ऊपर वोट प्रतिशत की जरुरत

पंजाब चुनाव से पहले अकाली दल ने बसपा के साथ गठबंधन का ऐलान किया है। दरअसल, पूरे राज्य में दलितों की बड़ी आबादी है और चुनाव में अहम फेक्टर भी। इसीलिए गठबंधन का दांव चला गया है।
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पंजाब की सियासत में सियासी घटनाक्रम लगातार बदल रहे हैं। कांग्रेस की अंदरूनी कलह समाप्त नहीं हुई थी कि अब अकाली दल ने नया सियासी दांव चलकर सभी को चौंका दिया। दशकों तक हिंदुत्ववादी पार्टी संग चुनाव लडऩे वाली पार्टी अचानक से बसपा के साथ गठबंधन कर सियासी गलियारों में नई सुगबुगाहट पैदा कर दी। आगामी चुनावों को देखते हुए प्रकाश सिंह बादल और उनके बेटे सुखबीर सिंह बादल ने मायावती से हाथ मिलाकर राज्य के पिछड़े और दलित वोटों पर अपना कब्जा जमाने की तैयारी शुरू कर दी है। राज्य में दलितों का 32 फीसदी से ज्यादा वोट बैंक है। पिछले दिनों अकाली दल के प्रमुख सुखबीर सिंह बादल ने चुनाव जीतने के बाद दलित उप मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा की थी। सुखबीर सिंह बादल को यह बात अच्छी तरह से पता है कि दलितों के समर्थन के बिना चुनाव जीतना संभव नहीं है।

दरअसल, राज्य में अकाली दल को सत्ता चलाने का पुराने अनुभव रहा है। लंबे समय तक पंजाब की सत्ता का स्वाद चख चुकी पार्टी को भरोसा है कि दलित वोट बैंक को साध लिया जाता है तो अगामी चुनाव में पार्टी की जीत सुनिश्चित है। इसीलिए अकाली दल ने दलित और पिछड़ों के हिमायती नेता को साथ रखकर चुनाव लडऩे का प्लान बनाया। अकाली दल ने वर्ष 2007-2012 के चुनावों में जीतकर सरकार बनाई थी। मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री दोनों इसी दल के नेता बने थे। बाद में अकाली दल ने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और फिर सत्ता में वापसी की, लेकिन कृषि कानूनों के मुद्दों पर अकाली दल भाजपा से अलग हो गई। अब पंजाब के सबसे प्रभावशाली राजनीतिक परिवार यानी सुखबीर सिंह बादल को बसपा से गठबंधन करना कितना रास आएगा यह कहना अभी जल्दबाजी होगी, लेकिन इतना तो कहा जा सकता है कि राज्य में एक तिहाई से ज्यादा दलितों और पिछड़ों का वोटबैंक चुनावी नतीजों के बदलने में अहम भूमिका अदा कर सकता है।

राज्य में अनुसूचित जातियों की अच्छी खासी संख्या है। अकाली दल को यह पता है कि सत्ता पाने के लिए 40 फीसदी से ऊपर वोट प्रतिशत होनी चाहिए, अगर इससे कम तो सत्ता पाना मुश्किल होगा। देश में पंजाब में दलितों का प्रतिशत सबसे ज्यादा है,आबादी का कुल 32 फीसदी दलित राज्य में हैं, लेकिन आज तक पंजाब के राजनीतिक इतिहास में कोई दलित मुख्यमंत्री नहीं बना। जानकार बताते हैं कि इसकी मुख्य वजह दलितों का आपस में तालमेल नहीं होना है। यहां का दलित बंटा हुआ है। कुछ तबकों की वफादारी अकाली दल की ओर है तो कुछ का झुकाव कांग्रेस की ओर। पंजाब में यह एकजुट होकर कभी नहीं रहे। बसपा लगातार सियासी जमीन खोती जा रही है। वहीं अकाली दल खोई सियासी जमीन को वापस लाने के लिए बसपा के साथ गठबंधन किया है। अब देखना होगा कि अकाली दल आगामी चुनाव में सत्ता हासिल करने में कामयाब होती है या नहीं।

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