जनमानस के तारणहार, श्री रामचरित का अंगीकार
राज एक्सप्रेस। भगवान राम श्रृद्धा, सहजता, विश्वास, प्रेम, करुणा, दया, दान, नैतिकता, उत्कृष्टता, आदर्श के प्रतीक हैं, लेकिन हाल ही में बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर ने गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा रचित मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम के जीवन चरित्र श्रीरामचरितमानस पर विवादित बयान देकर एक बार फिर धर्म, और जातीगत राजनीति को हवा दे दी है। दुनिया जानती है कि त्याग और तपस्या से लबरेज भगवान राम जब राजा बने तो उन्होंने प्रजा के हित में शासन के जो मानक गढ़े वह आज भी प्रसांगिक हैं। जिस राम राज्य की स्थापना भगवान राम ने की, उसे मूर्त रूप देने की बजाय बिहार के शिक्षा मंत्री श्रीरामचरितमानस को ही समाज को बांटने वाला करार दे दिया है।
गौरतलब है कि पटना में नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह के दौरान उन्होंने कहा कि बाबा भीमराव अम्बेडकर ने मनुस्मृति जातीय भेदभाव के चलते ही जला दी थी। अपनी बात को सही साबित करने के लिए उन्होंने श्रीरामचरितमानस की एक चौपाई अधम जाति में विद्या पाये, भयातु यथा दूध पिलाये का अर्थ बताते हुए कहा कि निम्न जाति के लोग शिक्षा प्राप्त करने के बाद इतने जहरीले हो जाते हैं जैसे दूध पीने के बाद सांप।
जगजाहिर है कि माननीय द्वारा श्रीरामचरित मानस की इस चौपाई की गलत व्याख्या कर कुतर्क के रूप में पेश किया गया। चौपाई का भावार्थ देखें तो जहरीला शब्द पद्म में दावा के रूप में प्रकट नहीं होता, अर्थात चौपाई का सही अर्थ है कि जिस प्रकार दूध पीकर सर्प सुख का अनुभव करता है, उसी प्रकार अपने को अधम जाति बताने वाला भी शिक्षा पाकर खुश होता है। सनद रहे कोई भी बात करने से पहले यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि अमूक शब्द का प्रयोग हम कहां कर रहे हैं और इसके परिणाम क्या होंगे।
माननीय को यह भान होना चाहिए था कि वे जहां श्रीरामचरित मानस के सहारे जातीय भेदभावपूर्ण बात कर रहे हैं वह शिक्षा का मंदिर है, जहां ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र के अलावा अन्य धर्म को मानने वाले विद्यार्थी के रूप में एक पंक्ति में बैठकर ज्ञान ग्रहण करते हैं। क्या ज्ञान ग्रहण करने के स्थान पर जातिप्रथा से जुड़ा वक्तव्य देना जरूरी था, शायद नहीं।
वास्तव में जनप्रतिनिधियों को विद्यार्थियों के मन में धार्मिक सद्भाव का उजाला भरना चाहिए और ऐसे बयानों से बचना चाहिए जिसके कारण विद्यार्थी जीवन में बच्चों के मन में सांप्रदायिकता का अंधेरा पांव पसारे। रही बात डॉ. बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर की तो वे एक महामानव थे, जिन्होंने भारतीय संविधान की रचना करते समय ना केवल फ्रांस, अमेरिका, ब्रिटेन, स्वीटजलैंड जैसे देशों के संविधान की खूबियों को संविधान में जगह दी, बल्कि तात्कालिन परंपराओं, संस्कृति के साथ-साथ श्रीरामचरित मानस जैसे ग्रंथों की चौपाई, छंदों और दोहों के संदेशों को शामिल करते हुए भारतीय संविधान को दुनिया का सबसे अनुपम और अलौकिक संविधान बना दिया।
जिस चौपाई की बात माननीय कर रहे हैं उसी के संदेश को बाबा साहेब अम्बेडकर ने संविधान के अनुच्छेद 16 में पिरोया है, जिसके चलते आज भी सरकारें आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक रूप से पिछड़ी जातियों को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए शिक्षा से लेकर नौकरी तक में आरक्षण प्रदान कर रही हैं, ताकि पिछड़ी जातियां ज्ञान अर्जन कर खुद को ऊंचा उठा सकें और मुख्य धारा में जोड़ सकें। बाबा साहेब जानते थे कि यदि पिछड़ी जातियों को शिक्षा से वंचित किया जाएगा तो राम राज की परिकल्पना कभी साकार नहीं होगी।
पिछड़ी जातियां शिक्षा पाकर अत्यंत खुश होंगी और वे आसानी से समानता की अलख जगाने में योगदान दे सकेंगे। वहीं भगवान श्रीराम ने केवट निशादराज को मित्र बनाकर और भीलन सबरी के जूठे बेर खाकर सामाजिक समसरता और पिछड़ों को बढ़ाने, ऊंचा उठाने के लिए जो संदेश दिया उसी की परिणति है कि बाबा साहेब ने संविधान के अनुच्छेद 14 से लेकर 18 तक देश के हर नागरिक को समानता का अधिकार दिया। बाबा साहेब ने भारतीय संविधान की रचना करने से पहले श्रीरामचरित मानस का गहन अध्ययन किया होगा। अब हम एक ऐसी चौपाई का जिक्र करते हैं जो संविधान का मूल है, जिसके संदेश को अंगीकार कर सरकारें अब तक विभिन्न धर्मों के बावजूद भारत को एक राष्ट्र के रूप में मजबूत करती आई हैं।
श्रीरामचरित मानस में गोस्वामी तुलसी दासजी कहते हैं परहित सरिस धर्म नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहीं अधमाई। अर्थात परोपकार से बढ़कर दुनिया में कोई दूसरा धर्म नहीं है और दूसरों को कष्ट देने से बड़ा अधम नहीं है। बाबा साहेब जिस भारतीय संविधान के जनक हैं वह भी एक ऐसी सरकार की परिकल्पना करता है, जो जातीयता, क्षेत्रवाद, भाषावाद, सांप्रदायिकता से ऊपर उठकर परोपकार को धर्म मानकर आम भारतीय के कल्याण के लिए कार्य करे और सरकारें या जन प्रतिनिधि ऐसा कोई कार्य न करें जिनसे जनमानस की भावनायें आहत हो या किसी के लिए अनिष्टकारी हो। वास्तव में श्रीरामचरित मानस की एक-एक चौपाई में जीवन का सार छुपा है और यह कलयुग में भी मानव को जीवन जीने की कला सिखाती है।
श्रीरामचरित मानस की एक-एक चौपाई में संबंधों, मर्यादाओं और जीवन जीने की कला का ऐसा गूढ़ अर्थ छिपा है, जिस पर अमल कर व्यक्ति स्नेह, प्रेम, उदारता, सकारात्मकता, आत्मीयता, भाईचारा जैसी मानवीय प्रवृत्तियों से सराबोर हो सकता है, जो मनुष्य को प्रकृति की कुदरती नियामत हैं। लेकिन आज व्यक्ति संकीर्ण मानसिकता के चलते स्वार्थ के वशीभूत होकर मानव जाति और प्रकृति के साथ नैतिक अपराध करने से बाज नहीं आता है। लोकतंत्र में सत्ताधारी या प्रभुता संपन्न का पहला दायित्व है कि वह मन वचन कर्म से लोकहित में परहित के आधीन होकर कार्य करे, लेकिन आज समाज के अग्रिम पंक्ति के लोग ही धार्मिक कटुता को बढ़ावा देते है। बिहार के माननीय तो एक कदम आगे निकलकर भगवान राम के जीवन चरित्र पर केन्द्रित महाकाव्य श्रीरामचरित मानस पर भी जातीय विभाजन का मनगढ़त आरोप लगा दिया। उन्होंने एक बार भी नहीं सोचा कि वे शिक्षा के मंदिर में रामचरित मानस की चौपाई के गलत व्याख्या उन विद्यार्थीयों के समक्ष कर रहे हैं, जिन पर आगे चलकर राष्ट्र को मजबूत बनाने की जिम्मेदारी है। इस मौके पर मंत्रीजी को शिक्षा के मंदिर में विद्यार्थियों को लोकहित के भाव रखने के लिए प्रेरित करना चाहिए था और बताना चाहिए था कि भगवान राम ने परहित को ही सबसे बड़ा धर्म बताया है और लोकतंत्र में संविधान में वर्णित भूमिका के अनुसार हमारा कार्य भी जनकल्याण करना ही है, ना किसी भी धर्मग्रंथ को लेकर अपनी खुद की सोच को सार्वभौमिक सोच बनाने की कोशिश करना।
वास्तव में जनप्रतिधि होता ही जनता की सोच के तहत कार्य करने के लिए है ना कि खुद की सोच को जनता पर थोपने के लिए। विद्यार्थियों को श्रीरामचरितमानस पढऩा चाहिए और जानना चाहिए कि कैसे उन्होंने केवट निशादराज को अपना मित्र बनाकर और भीलन सबरी के जूठे बेर खाकर ऊंच-नीच के भेदभाव खत्म कर सिर्फ लोकहित के लिए कार्य करते रहना ही जीवन का लक्ष्य माना। श्रीरामचरित मानस को हर हिंदू अपने घर में रखता है और पूजा करता है, क्योंकि संबंधोंं, रिश्तों और मर्यादा की जितनी सुंदर, अनुपम और अकल्पनीय व्याख्या गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीरामचरित मानस में भगवान के चरित्र का वर्णन करते हुए व्यक्त की है, वह अंयत्र कहीं नहीं मिलती। आज हर घर में हम लक्ष्मण और भरत जैसे भाई की कल्पना करते हैं, तो पुत्र के रूप में राम जैसे रतन चाहते हैं। राजनेताओं को श्रीरामचरितमानस न केवल पढऩा चाहिए बल्कि उसकी सिर्फ एक चौपाई को अंगीकार कर परहित का भाव मन में जागृत करना चाहिए। जिस दिन राजनेता परहित को अपना सबसे बड़ा धर्म और दूसरों को चोट पहुंचाना सबसे बड़ा नीच कर्म मानने लगेंगे उस दिन भारत जैसे विभिन्न धर्मों को मानने वाले राष्ट्र में स्वत: ही राजनीति से धर्म अलग हो जाएगा और हम उसी दिन राम राज्य की स्थापना की ओर एक कदम बढ़ा देंगे। याद रहे श्रीरामचरित का अंगीकार से ही जनमानस का तारणहार संभव है और यह काफी कुछ हमारे राजनेताओं की सुचितापूर्ण, संविधिक, न्यायोचित राजनीति पर निर्भर है। ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र सभी के लिए श्रीरामचरित मानस पवित्रता, आस्था, श्रृद्धा, भक्ति, एकता और समरसता का प्रतीक है। इसीलिए जनप्रतिनिधियों को धार्मिक भावनाओं को आघात पहुंचाने से बचना चाहिए और सद्भावना के उजास का प्रसार करना चाहिए।
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