जानिए संथारा प्रथा क्या होती है और जैन धर्म में इसका क्या महत्व है?
राज एक्सप्रेस। बीते दिनों राजस्थान के बाड़मेर जिले के जसोल में रहने वाले एक जैन बुजुर्ग दंपत्ति ने संथारा ग्रहण किया। इसके लिए बुजुर्ग दंपत्ति ने भोजन-पानी छोड़ दिया। करीब 19 दिनों के बाद बुजुर्ग पुखराज जैन ने अपनी देह त्याग दी। इस दौरान गांव में किसी बड़े यज्ञ के आयोजन जैसा माहौल था। बड़ी संख्या में लोग वहां पहुंचे थे। वैसे आपको बता दें कि संथारा प्रथा को जैन धर्म में बहुत ही पवित्र प्रथा माना जाता है। उनका मानना है कि संथारा के जरिये आत्मशुद्धि होती है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। तो चलिए जानते हैं कि संथारा प्रथा क्या है? और जैन धर्म में इसका क्या महत्व है?
क्या होता है संथारा?
दरअसल जैन धर्म में संथारा को संलेखना भी कहा जाता है। यह एक तरह का धार्मिक संकल्प होता है। इस संकल्प के जरिए संथारा ग्रहण करने वाला व्यक्ति खुद को एक कमरे में बंद करके अन्न-जल का त्याग कर देता है। यह तब तक चलता है जब तक कि संथारा ग्रहण करने वाला व्यक्ति अपनी देह ना त्याग दे।
कौन ग्रहण करता है संथारा?
जैन धर्म ग्रंथों के अनुसार जब किसी श्रावक या जैन मुनि को लगता है कि वह अपनी पूरी जिंदगी जी चुका है या उसका शरीर उसका साथ छोड़ना चाहता है तो वह संथारा ग्रहण कर सकता है। हालांकि इसके लिए जैन धर्म के धर्मगुरु की आज्ञा चाहिए होती है। आमतौर पर बूढ़े हो चुके या लाइलाज बीमारी से ग्रसित व्यक्ति संथारा ग्रहण करते हैं।
संथारा का महत्व :
दरअसल जैन धर्म में संथारा को एक बहुत ही पवित्र प्रथा माना जाता है। जैन धर्म ग्रंथों के अनुसार जब किसी तरह का इलाज संभव ना हो तब रोने-धोने के बजाय शांत परिणाम से आत्मा और परमात्मा का चिंतन करते हुए अपनी देह त्याग देनी चाहिये। जो भी व्यक्ति संथारा ग्रहण करता है उसे साफ मन से सभी को माफ कर देना चाहिए और अपनी गलतियां स्वीकार करना चाहिए।ऐसी मान्यता है कि संथारा के जरिए मोक्ष की प्राप्ति होती है।
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