राज एक्सप्रेस। हम देखेंगे
लाजिम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
हम देखेंगे
'हम देंखगें' फैज़ अहमद फैज़ की बेहद ही खूबसूरत नज़्म है। आज भारत की किसी भी गली से गुजरते वक्त कानों में ये नज़्म सुनाई दे रही है। विश्वविद्यालयों हो या देश की सरकार के खिलाफ कोई प्रोटेस्ट जनता के लिए प्रतिरोध का स्वर बनकर उभरी है ये नज़्म 'हम देंखगे'।
फैज़ अहमद फैज़ की मौत के एक साल बाद उनकी ये नज़्म काफी मशहूर हुई थी। तब से अब तक ये लोगों के जुबान में चढ़ गई है। आज कई सालों बाद ये नज़्म विवाद के कठघेरे में आ खड़ी हुई है।
आरोप है कि, यह नज़्म हिंदू विरोधी है। दरअसल आईआईटी कानपुर के छात्रों ने जामिया मिलिया इस्लामिया के छात्रों के समर्थन में 17 दिसंबर को परिसर में शांतिपूर्ण मार्च निकाला था और फ़ैज की इस नज़्म को गाया था। इस नज़्म की कुछ पंक्तियां हैं जो लोगों को परेशान कर रही हैं और लोग इसे हिंदू विरोधी बता रहे हैं। नज़्म की आखिरी पंक्ति
सब ताज उछाले जाएंगे,
सब तख्त गिराए जाएंगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
हम देखेंगे।'
पर बवाल मचा है। दरअसल कॉलेज परिसर में रैली के बाद संस्थान के डिप्टी डायरेक्टर मनीन्द्र अग्रवाल ने शिकायत दर्ज कराई थी। उनकी शिकायत में नज़्म के ‘बुत उठवाए जाएंगे’ और ‘नाम रहेगा अल्लाह का’ वाले हिस्से पर आपत्ति उठाई गई है।
उनके अनुसार नज़्म का यह हिस्सा हिंदू विरोधी है। डिप्टी डायरेक्टर का आरोप है कि, छात्रों ने प्रदर्शन के दौरान देश विरोधी और सांप्रदायिक बयान भी दिया था। डिप्टी डायरेक्टर के अनुसार प्रदर्शन के आयोजकों और मास्टरमाइंड की पहचान करके तुरंत निष्काषित किया जाना चाहिए।
प्रदर्शनकारियों (आईआईटी छात्रों) का कहना है कि, शिकायतकर्ता फैकल्टी मेंबर सांप्रदायिक पोस्ट करने के चलते सोशल नेटवर्किंग साइट पर प्रतिबंधित हैं। आईआईटी कानपुर द्वारा गठित समिति तय करेगी कि, छात्रों ने देश विरोधी बातें कहीं या नहीं और हम देंखगें नज़्म की वो पंक्तियां हिंदू विरोधी हैं या नहीं।
क्यों मशहूर हैं फैज की ये नज़्म
फै़ज़ अहम फैज़ क्रांतिकारी थे। वे पाकिस्तान हुकूमत के खिलाफ अपना स्वर अपने कलम के जरिए बुलंद करते थे। बंटवारे के बाद पाकिस्तान में राजनीतिक उठा पटक चलती रही। इस बीच फैज़ ने इस उठा पटक का जमकर विरोध किया। इसके लिए उन्हें सज़ा भी मिले। जेल में 4 सालों तक कैद भी रहे। 1977 में तत्कालीन आर्मी चीफ जिया उल हक ने पाकिस्तान तख्ता पलट किया तो फैज़ अहमद फैज़ काफी दुःखी हुए और इसी दौरान उन्होंने ‘हम देखेंगे’ नज़्म को लिखी। जो जिया उल हक के खिलाफ थी। इसके बाद कुछ समय के लिए फैज़ लेबनान चले गए। 1982 में अपने मुल्क वापस आए। 1984 में लाहौर में उनकी मौत हो गई।
फैज़ अहमद फैज़ हमारे बीच से चले गए पर उनकी ये नज़्म हमारे जुबान में बस गई। फैज़ की मौत के बाद उनकी नज़्म पाकिस्तान में बगावत का नारा बन गई।
1985 में जब पाकिस्तान के तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल जियाउल हक ने देश में मार्शल लॉ लागू किया था। इस्लाम को बढ़ावा देने के लिए महिलाओं के साड़ी पहनने पर पाबंदी लगा दी थी। काला वस्त्र पहनने पर पाबंदी थी। उसी साल पाकिस्तान की मशहूर गजल गायिका इकबाल बानो ने 50 हज़ार लोगों की भीड़ में काली साड़ी पहन कर सरकार के विरोध में फैज़ अहमद फैज़ की ये नज़्म गाई थी। जिसके बाद ये नज़्म सदा के लिए अमर हो गई।
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