तेलंगाना विधानसभा चुनाव 2023 : KCR का कम होता जादू, भाजपा ने गवाया जीत का मौका और कांग्रेस के लिए सब मौजा-मौजा
राज एक्सप्रेस। दक्षिण राज्य, भारत का ऐसा बड़ा इलाका है जहा क्षेत्रीय पार्टियों का राज रहा है। दक्षिण भारत में रहने वाले लोगों का उनके क्षेत्रीय नेता से घनिष्ठ जुड़ाव होता है। यह जुड़ाव तब और ज्यादा बढ़ जाता है जब कोई नेता उनके पिछड़े इलाके की समृद्धि की लड़ाई लड़ता है जिसका सबसे बड़ा उदाहरण तेलंगाना के मुख्यमंत्री के.चंद्रशेखर राव (Chief Minister K.Chandrashekhar Rao) है।
मुख्यमंत्री केसीआर (CM KCR) ने 2001 से 2013 तक भाजपा और कांग्रेस की सरकारों से अलग राज्य की लड़ाई लड़कर, तेलंगाना की स्थापना की और वह उस अलग राज्य के मुख्यमंत्री भी बने। लगातार 2 बार (2014 और 2018) से पूर्ण बहुमत हासिल करने के बाद अब तीसरी बार केसीआर जनता से समर्थन की उम्मीद कर रहे है लेकिन इस बार के चुनाव में उनकी उम्मीद के मुताबिक परिणाम आने की संभावनाएं कम नजर आ रही है। इन संभावनाओं को तगड़ा झटका 2020 में हुए स्थानीय चुनाव मे लगा जब ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम चुनाव (GHMC Elections 2023) में केसीआर की बीआरएस पार्टी को भाजपा से करारी टक्कर मिली थी जिसके बाद से ही केसीआर और उनकी पार्टी के पतन की शुरआत हुई थी।
केसीआर सरकार के 10 साल :
विभिन्न सरकारों से लड़कर अलग तेलंगाना राष्ट्र की स्थापना करने के बाद चंद्रशेखर राव, राज्य के मुख्यमंत्री बने थे। उनकी सरकार ने सभी वर्गों के लिए कई लाभकारी योजनाओं को बनाया था। आँध्रप्रदेश के एक अछूते, पिछड़े, भारी बिजली कटौती, सूखे से जूझ रहे भाग को अलग कर फर्श से अर्श तक ले जाने का कार्य चंद्रशेखर राव और उनकी सरकार ने किया था। मुख्यमंत्री केसीआर को जनता ने अपने मसीहा के तौर पर देखा था। पिछले 10 साल के भीतर उन्होंने कई ऐसी योजनाओं को बनाया जो पुरे देश की प्रेरणा का स्रोत बनी थी।
केसीआर सरकार ने दलितों, महिलाओं, किसानों और बेरोजगारी से जूझने वाले लोगों के लिए आसार, दलित बंधू, किसान बंधू जैसी अन्य योजनाएं बनाई थी। यही नहीं, सिंचाई और पेयजल की दिक्कत से राज्य को उबारने के लिए उन्होंने कालेश्वरम मल्टीस्टेज लिफ्ट सिंचाई योजना, मिशन भागीरथी और मिशन काकतिया जैसी विश्वविख्यात योजनाओं को बनाया जिससे उन्होंने तेलंगाना राज्य को सिर्फ दस साल के भीतर ही एक विकसित राज्य की श्रेणी में लाने का काम किया। बहरहाल, जनता के लिए इतने कार्य करने के बावजूद कोरोना महामारी के बाद केसीआर का जादू धीरे धीरे ढलने लग गया।
केसीआर का कम होता जादू :
कोरोना महामारी के भारत में प्रवेश करने से 1 साल पहले 2018 में तेलंगाना में दूसरे विधानसभा चुनाव हुए थे। इस चुनाव में बीआरएस ने 119 में से 88 सीट जीतकर मुकाबला एक तरफा कर दिया था लेकिन कोरोना महामारी के काल के बाद इस एक तरफा जीत के बावजूद मुख्यमंत्री केसीआर को प्रदेशभर में विरोध और भ्रष्टाचार के विरोध के साथ 2020 स्थानीय चुनाव में बड़े डेंट का सामना करना पड़ा था। 2020 में हुए ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम चुनाव में भाजपा ने उत्कृष्ट प्रदर्शन करते हुए 150 में से 44 सीटें अपने नाम की जबकि बीआरएस, पिछली बार के मुकाबले 43 सीटों खोकर 56 में खिसक चुकी थी।
ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम देश का आठवां सबसे अमीर और प्रतिष्ठित नगर निगमों में से एक माना जाता है। इसके आलावा केसीआर और उनकी पार्टी पर भ्रष्टाचार और परिवारवाद के आरोप लगना शुरू हो गए थे। के.चंद्रशेखर राव के परिवार में से 6 से अधिक लोग राजनीती में सक्रिय है जो कि पार्टी और राज्य सरकार के बड़े बड़े पदों पर काबिज है। परिवारवाद के अलावा चंद्रशेखर सरकार पर राज्य में बढ़ते दलितों के खिलाफ अत्याचार के कई बार सवाल खड़े किये गए है।
उनकी बेटी के.कविता का नाम दिल्ली के शराब एक्साइज पॉलिसी घोटाले में सामने आया था जिसके बाद से ही केसीआर सरकार बैकफुट पर आ चुकी थी। इन सभी कारणों की वजह से बीआरएस अपने मूल मतदाताओं का विश्वास खोते हुए नजर आ रही है। इसका प्रमाण इस बात से भी मिल जाता है कि सीएम चंद्रशेखर राव इस बार अपनी पारंपरिक सीट गजवेल के अलावा कामारेड्डी सीट से चुनाव लड़ेंगे जिसकी घोषणा उन्होंने अगस्त के महीने में कर दी थी। केसीआर द्वारा इस कदम के पीछे का कारण यह बताया जा रह है कि केसीआर पारंपरिक सीट में अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नहीं है।
कामारेड्डी सीट केसीआर के सबसे करीबी गम्पा गोवर्धन की है जहां से वह पिछले चार बार से विधायक हैं। स्थानीय मीडिया के अनुसार, इस सीट पर भी केसीआर के विरुद्ध विरोधी लहर का प्रभाव पड़ना शुरू हो गया है जहां इसके अंतर्गत आने वाले पार्षद और कार्यकर्ता बीआरस का विरोध कर रहे है। हाल ही में आए जनमत सर्वेक्षणों की अगर बात करे तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि बीआरएस धीरे-धीरे अपनी सियासी जमीन को खोती हुई नजर आ रही है।
भाजपा ने गवाया जीत का सुनहरा मौका :
2014 से भी पहले अविभाजित आँध्रप्रदेश की बड़ी पार्टी टीडीपी के कनिष्ठ गठबंधन सहयोगी होने से, भाजपा ने तेजी से तेलंगाना में प्रगति की। भाजपा की तेलंगाना में कोई मजबूत जड़ें नहीं रही हैं, लेकिन अलग तेलंगाना राज्य के लिए निरंतर वकालत, मतदाताओं का विश्वास कि भाजपा विधायक अन्य दलों में नहीं जाएंगे और एक एकजुट राजनीतिक कार्रवाई ने उनको बीआरएस के मुकाबले एक अच्छे विकल्प के तौर पर स्थापित करने का कार्य किया था। 2018 विधानसभा चुनाव में बड़ी पराजय के बाद, भाजपा ने 2019 में तेलंगाना की 17 एमपी सीटों में से 4 पर जीत हासिल करने के लिए केवल 4 महीने के भीतर जबरदस्त प्रदर्शन किया।
2020 निकाय चुनाव के परिणाम स्वरूप ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम में उनकी संख्या 4 से बढ़कर 49 हो गई। पार्टी अध्यक्ष बंडी संजय (Bandi Sanjay Kumar) ने चरणबद्ध पदयात्रा शुरू की थी। इस पदयात्रा की सफलता का स्वयं प्रधान मंत्री ने विशेष उल्लेख किया, जिन्होंने अन्य राज्य इकाइयों से इसका अनुकरण करने को कहा। गृह मंत्री अमित शाह के एक चतुर कदम के कारण बीआरएस को तेलंगाना मुक्ति दिवस मनाने के लिए भी मजबूर होना पड़ा।
बहरहाल, भाजपा की यह खुशी ज्यादा दिनों तक टिक नहीं पाई क्योंकि भाजपा को अंदरूनी कलह की समस्या झेलना पड़ी। भाजपा ने अपनी पार्टी में दूसरे दलों को छोड़कर आए लोगों को जगह दी थी लेकिन वह तब के तेलंगाना भाजपा अध्यक्ष बंडी संजय से नाखुश थे।नाखुश नेताओं ने इस बात की अमित शाह और जे.पी.नड्डा से शिकायत की। इस अंतर्कलह के कारण भाजपा की सालों की मेहनत के बाद जो बढ़त मिली वो अब धीरे-धीरे खत्म होने लगी थी।पार्टी आलाकमान ने बाद में बंडी संजय कुमार की जगह किशन रेड्डी को नियुक्त किया गया। भाजपा के इस तीव्र गति के पतन का कारण उनका तेलंगाना के मुद्दों और जमीनी राजनीती से अनजान होना भी है।
कर्नाटक में हुए चुनाव ने इस बात को साबित भी किया था कि दक्षिण भारतीय मतदाता अपने स्थानीय मुद्दों और नेताओं से ज्यादा प्रभावित रहता है एवं उन्हीं का समर्थन करता है लेकिन उन्होंने जो गलती कर्नाटक में दोहराई वही गलती तेलंगाना में दोहराकर वह इस बार भी रेस में पीछे पड़ते दिखाई दे रहे है क्योंकि 5 महीने पहले जारी किए गए सर्वेक्षणों में भाजपा जहां सरकार बनाने की दावेदारी पेश कर रही थी वहीं अब हाल ही में आये ओपिनियन पोल्स में वह चौथे स्थान पर खिसकती हुई नजर आ रही है।
रेवंत और राहुल के जोर से हुआ कांग्रेस का उदय :
स्थानीय नेताओं और जमीनी कार्यकर्ताओं की भरपूर ताकत होने के बावजूद कांग्रेस पिछले दोनों विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करने में नाकाम रही थी। अलग तेलंगाना राष्ट्र बनाने को लेकर कांग्रेस का रुख हमेशा से ही ठंडा-गरम रहा था जिसके कारण अपनी ही सरकार में तेलंगाना राज्य के प्रस्ताव को संसद में पास कराने के बाद भी उन्हें नकारा जा रहा था। राज्य यूनिट की कांग्रेस के भीतर वरिष्ठ नेताओं के बीच लड़ाइयों और बड़े नेताओं का पार्टी छोड़ बीआरएस में जाने की खबरे जैसे आम बात हो गयी थी। ऐसे में जहां बीजेपी अपने अंदरूनी कलह में व्यस्त थी, वहीं कांग्रेस ने खुद राज्य में पुनर्स्थापित करने का मौका दिखाई दिया।
यही नहीं, कर्नाटक चुनावों में अप्रत्याशित रूप से जीत, तेलंगाना में कांग्रेस की किस्मत में एक बड़ी वृद्धि के रूप में आई थी। ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम चुनाव बड़ी हार के बाद तब पार्टी अध्यक्ष उत्तम कुमार रेड्डी ने इस्तीफा दे दिया, जिसके बाद 2021 में कमान रेवंत रेड्डी को सौपी गयी जो कि टीडीपी छोड़ 2017 में कोंग्रस में शामिल हुए थे। रेवंत रेड्डी ने अध्यक्ष बनने के बाद से ही पार्टी के लिए कड़ी मेहनत करना शुरू कर दी थी। उनके नेतृत्व को पसंद कर कांग्रेस छोड़कर अलग दल में जाने वाले और अन्य नेताओं ने कांग्रेस में शामिल होना शुरू कर दिया था।
रेवंत रेड्डी और राहुल गांधी ने विजयभेरी नाम की पदयात्रा को शुरू किया और लगातार जन सभाएं कर बीआरएस और भाजपा को एक एक ही टीम का बताया था। अब आलम यह है कि हर बीतते दिन के साथ कई अलग दलों खासकर बीआरएस के बड़े-छोटे नेता, पूर्व और वर्तमान विधायक और पार्षद लगातार कांग्रेस में शामिल हो रहे है। कयास यह भी लगाए जा रहे है कि रेवंत रेड्डी भी केसीआर की तरह दो सीटों से चुनाव लड़ेंगे जिसमे से एक मुख्यमंत्री की कामारेड्डी सीट होगी। वर्तमान में आए सर्वेक्षणों की बात करे तो ऐसा दिखाई दे रहा है कि कांग्रेस, बीआरएस और भाजपा को पछाड़ सरकार बना सकती है।
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