नई दिल्ली। भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों के लिए और ज्यादा मुआवजे की मांग करने वाली केंद्र सरकार की याचिका को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया। 1984 की भोपाल गैस त्रासदी के पीड़ितों को अधिक मुआवजा देने के लिए यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन की उत्तराधिकारी फर्मों से अतिरिक्त 7,844 करोड़ रुपये मांगने के लिए केंद्र सरकार ने याचिका दायर की थी। जस्टिस संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ इस मामले पर अपना फैसला सुनाया। इस पीठ में जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस अभय एस ओका, जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस जेके महेश्वर भी शामिल हैं।
सुप्रीम कोर्ट में मंगलवार को भोपाल गैस कांड मुआवजे को लेकर सुनवाई हुई। केंद्र की क्यूरेटिव पिटीशन को सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने खारिज कर दिया है। कोर्ट ने केंद्र सरकार की क्यूरेटिव याचिका पर दखल देने से इंकार कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केंद्र को इस मामले में पहले आना चाहिए था न की तीन दशक के बाद। केंद्र ने क्यूरेटिव याचिका में यूनियन कार्बाइड के साथ अपने समझौते को फिर से खोलने की मांग किया था। केंद्र सरकार भारतीय रिजर्व बैंक के पास मौजूद 50 करोड़ रुपये का उपयोग लंबित दावों को मुआवजा देने के लिए करें। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समझौते को सिर्फ फ्राड के आधार पर रद्द किया जा सकता है, केंद्र सरकार की तरफ से समझौते में फ्राड को लेकर कोई दलील नहीं दी गई।
बता दें कि 12 जनवरी को 5 जजों की संविधान पीठ ने इस मामले में फैसला सुरक्षित रखा था। इस हादसे के लिए जिम्मेदार यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन अब डॉव केमिकल्स के स्वामित्व में है। उसने आधी रात को यूनियन कार्बाइड कारखाने से जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस के रिसाव के बाद 470 मिलियन अमेरिकी डालर (1989 में निपटान के समय 715 करोड़ रुपये) का मुआवजा दिया था।
गौरतलब है कि 1984 में 2 और 3 दिसंबर की रात को हुए गैस रिसाव से 3,000 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी और 1.02 लाख लोग इससे प्रभावित हुए थे। केंद्र सरकार लगातार इस बात पर जोर देती रही है कि 1989 में तय किए गए मुआवजे के समय इंसानों की मौतों, उन पर रोगों के कारण पडऩे वाले बोझ और पर्यावरण को हुए वास्तविक नुकसान की गंभीरता का ठीक से आकलन नहीं किया जा सका था। जबकि सुप्रीम कोर्ट ने 10 जनवरी को यूसीसी से ज्यादा मुआवजे की मांग वाली केंद्र सरकार की याचिका पर केंद्र से सवाल किया था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सरकार 30 साल से अधिक समय के बाद कंपनी के साथ हुए समझौते को फिर से तय करने का काम नहीं कर सकती है।
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