क्या हैं इलेक्टोरल बॉन्ड
क्या हैं इलेक्टोरल बॉन्डसांकेतिक चित्र

इलेक्टोरल बॉन्ड से सिर्फ राजनीतिक दलों को हो रहा फायदा, जानिए देश को कैसे पहुँच रहा नुकसान?

राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता लाने के लिए लाए गए इलेक्टोरल बॉन्ड से सिर्फ राजनीतिक दलों को फायदा जबकि देश और लोकतंत्र को इससे खासा नुकसान पहुंच रहा है। तो चलिए जानते हैं क्या है इलेक्टोरल बॉन्ड?
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राज एक्सप्रेस। हमारे देश में आए दिन इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर तरह-तरह की बहस होती रहती है। लोगों का कहना है कि राजनीतिक चंदे में पारदर्शिता लाने के लिए लाए गए इलेक्टोरल बॉन्ड से सिर्फ राजनीतिक दलों का फायदा हुआ है, जबकि देश और लोकतंत्र को इससे ख़ासा नुकसान पहुंच रहा है। तो चलिए हम जानते हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड क्या है? और यह कैसे राजनीतिक दलों के लिए फायदेमंद और लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह साबित हो रहा है?

इलेक्टोरल बॉन्ड क्या है?

दरअसल इलेक्टोरल बॉन्ड एक करंसी नोट की तरह होता है। जब किसी व्यक्ति या कंपनी को किसी राजनीतिक दल को चंदा देना होता है तो वह देशभर में मौजूद SBI की 29 चुनिंदा ब्रांच से यह इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदकर उसे राजनीतिक दल को दे सकता है। राजनीतिक दल उस बॉन्ड को बैंक से कैश करवा सकता है। इलेक्टोरल बॉन्ड पर ना तो उसे खरीदने वाले का नाम होता है और ना ही उस पार्टी का जिसे यह दिया जा रहा है।

इलेक्टोरल बॉन्ड के नियम :

इलेक्टोरल बॉन्ड 1 हजार, 10 हजार, 1 लाख, 10 लाख और 1 करोड़ रूपए के होते है और इन्हें जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर महीने के पहले 10 दिनों के भीतर खरीदा जा सकता है। इलेक्टोरल बॉन्ड सिर्फ वही पार्टी ले सकती है, जो रिप्रजेंटेशन ऑफ पीपल्स एक्ट के तहत रजिस्टर्ड हो और उस पार्टी को ठीक इससे पहले हुए विधानसभा या लोकसभा चुनाव में कम से कम 1% वोट मिले हों।

सिर्फ राजनीतिक दलों को फायदा :

आंकड़ों को देखते है तो इलेक्टोरल बॉन्ड का फायदा सिर्फ राजनीतिक दलों को हो रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार देश के शीर्ष पांच राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे का 70% से 80% हिस्सा इलेक्टोरल बॉन्ड का होता है।

देने वाले का नाम पता ना होने के कारण इस पर काले धन को बढ़ावा मिलने का आरोप भी लगता है।

कोई भी कंपनी इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए सरकार में मौजूद राजनीतिक दल को चंदा देकर अपने पक्ष में नीतियां बनवा सकती है जबकि लोगों को यह पता ही नहीं चलेगा कि सरकार यह निर्णय क्यों ले रही है।

इलेक्टोरल बॉन्ड ने किसी कंपनी द्वारा राजनीतिक दलों को चंदा देने की बाध्यता को ही खत्म कर दिया। इससे राजनीतिक दलों को तो फायदा हो रहा है, लेकिन देश को नुकसान हो रहा है।

इलेक्टोरल बॉन्ड पर फर्जी कंपनी बनाने को बढ़ावा देने के आरोप भी लगते हैं।

इलेक्टोरल बॉन्ड के कारण सरकार के फैसलों में कॉर्पोरेट घरानों का दखल बढ़ता है।

सत्ता में बैठी पार्टियाँ वित्त मंत्रालय के जरिए चंदा देने वालों का नाम जान सकती है, लेकिन आम आदमी और चुनाव आयोग को इसको जानकारी नहीं होती है। ऐसे में सरकार अपनी विरोधी पार्टी को चंदा देने वालों पर दबाव बना सकती है।

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