भोपाल, मध्य प्रदेश। साल 2020 अब महज 48 घंटे का मेहमान हैं, इसके बाद नये साल का आगाज़ हो जाएगा, जो पूरी दुनिया की तरह भोपालवासियों के लिए भी नई उम्मीदों का सबेरा लेकर आएगा। लेकिन यादों के आईने में इस साल की यादें शायद ही कभी धुधंली पड़े क्योंकि इस साल शहर ने जिंदगी के कई रंग देखे हैं, कहीं वायरस का खौफ था, तो कहीं सदी का शायद सबसे लंबा लॉकडाउन, कहीं जिंदगी को दोबारा शुरू करने की जद्दोजहद थी, तो कहीं टूटे हुए सपनों का अफसोस। कोरोना के अलावा भी कई चुनौतियां थीं, जो शहरवासियों ने इस साल झेलीं, लेकिन इस बीच सियासत के रंग भी चमकते रहे। लेकिन इतनी बड़ी चुनौती के बाद भी शहर का जिंदगी को लेकर जज्बा कायम रहा। चाहे घर लौटते मजदूरों की मदद का सवाल हो या फिर जीवन को फिर पटरी पर लौटाने की जद्दोजहद शहर का जज्बा हर हाल में कायम रहा।
सुर्खियों में रहा इकबाल मैदान कभी सीएए तो कभी फ्रांस :
शहर का ऐतिहासिक इकबाल मैदान इस साल खास तौर पर सुर्खियों में रहा। दरअसल साल की शुरूआत के साथ ही यहां केन्द्र सरकार की तरफ से लाए गए नागरिकता संबधी कानून सीएए को लेकर विरोध का दौर शुरू हो गया था। इस दौरान कई दलों और समाजसेवी संगठनों के लोगों ने इकबाल मैदान से कानून की मुखालफत के लिए आंदोलन शुरू किया। कई दिनों तक आंदोलनकारी यहां धरना और प्रदर्शन के लिए जुटते रहे। विरोध का यह सिलसिला मार्च तक जारी रहा। आखिर में लॉकडाउन लगने के साथ यह प्रदर्शन खत्म हुआ। इधर मैदान के रखरखाव और उसके संरक्षण को लेकर धार्मिक और सामाजिक संगठनों ने स्थानीय संस्थाओं और सरकारों को निशाने पर लिया, तो दूसरी तरफ अक्टूबर में फ्रांस से शुरू हुए पैगम्बर हजरत मोहम्मद के कार्टून विवाद की आंच भी यहां तक पंहुची। इस मामले को लेकर शहर के लोगों का गुस्सा फूटा और इकबाल मैदान पर कांग्रेस विधायक आरिफ मसूद की अगुवाई में हजारों की संख्या में जुटे लोगों ने फ्रांस सरकार के खिलाफ इकबाल मैदान पर अपने गुस्से का इजहार किया। हालांकि इसके बाद प्रदेश की सियासत भी गरमा गई और सरकार ने मसूद और उनके सर्मथकों पर मामला दर्ज कर लिया, बाद में उन्हें हाईकोर्ट से जमानत मिल गई। लेकिन इस सब के बीच इकबाल मैदान सुर्खियों में बना रहा।
कहां तुम चले गए :
इस साल शहर की कई जानीमानी हस्तियां भी विदा ले गईं, ये वे लोग थे, जिन्होंने शहर की तस्वीर बदलने में कहीं ना कहीं और किसी ना किसी क्षेत्र में अपनी अहम भूमिका निभाई थी।
कैलाश सारंग :
भाजपा के संस्थापक सदस्यों में शुमार और राजधानी से ही अपनी सियासत शुरू करने वाले जमीनी नेता कैलाश नाथ सारंग इस साल नंबवर में दुनिया को अलविदा कह गए। सारंग का शहर और खासतौर पर पुराने शहर के लोगों के साथ गहरा लगाव रहा क्योंकि एक जमाने में पुराना शहर उनकी सियासत का गढ़ हुआ करता था।
मोहम्मद सलीम :
कांग्रेस के बरिष्ठ नेता मोहम्मद सलीम भी इस साल शहर से बिछड़ गए, कोरोना महामारी ने उन्हें इस कदर अपनी चपेट में लिया, कि अस्पताल जाने के बाद वे फिर लौटकर वापस नहीं आ सके। सलीम की गिनती शहर के जमीनी नेताओं में होती थी।
अकबर खान :
कांग्रेस के एक और वरिष्ठ नेता अकबर खान भी कोरोना और सिस्टम की लापरवाही की भेंट चढ़ गए। इसी माह दिसंबर में तबियत बिगडऩे पर उन्हें हमीदिया अस्पताल में हाईफ्लो लाइफ सर्पोट सिस्टम पर रखा गया था, लेकिन बिजली चली जाने के कारण उनकी मौत हो गई।
ओम यादव :
बीडीए के पूर्व अध्यक्ष और राजधानी में भाजपा के सक्रिय नेता ओम यादव भी इस साल के अंत में दुनिया छोड़ गए। पहले से बीमारी के शिकार यादव भी कोरोना संक्रमित होने के बाद फिर बिस्तर से उठ ना सके। बरहाल महामारी के चलते भाजपा ने अपना एक जमीनी कार्यकर्ता खो दिया।
पीर सिराज मियां :
राजधानी भोपाल समेत पूरी दुनिया में मशहूर रूहानी सख्शियत पीर सिराज मियां साहब का भी इस साल इंतकाल हो गया। इस खबर से उनके चाहने वालों और मुस्लिम समाज में गम का महौल रहा। पीर साहब 75 साल के थे। उन्हें शहर के पीएचक्यू के पास स्थित खानदानी कब्रिस्तान में सुपुर्दे खाक खाक किया गया। पीर साहब निमोनिया से पीडि़त थे, उन्हें एक निजी अस्पताल में वेंटीलेटर पर रखा गया था, वे ताजुल मसाजिद का प्रबंधन भी देखते थे। भोपाल के अलावा देशभर में उन्हें इस्लाम का बड़ा जानकारा माना जाता था।
हमीदा बी :
गैसपीड़ितों के इंसाफ के लिए लंबा संघर्ष करनी वाली राजधानी की सामाजिक कार्यकर्ता हमीदा बी भी साल के आखिर में फानी दुनिया को अलविदा कह गईं। भोपाल गैसपीडि़त महिला उद्योग संगठन की अध्यक्षा रहीं हमीदा बी ने सड़कों पर सालों साल गैसपीडि़तों के लिए अपनी आवाज बुलंद की थी।
हड़ताल ही हड़ताल : साल 2020 को हड़तालों के लिए भी याद रखा जाएगा।
मंडी हड़ताल :
केंद्र सरकार के मंड़ी एक्ट के खिलाफ राजधानी समेत पूरे प्रदेश में मंडियों की हड़ताल इस साल चर्चा में रही। निजी मंडियां शुरू करने और फसलों को मंडियों से बाहर बेचने के खिलाफ मंडी व्यापारियों की हड़ताल लंबी चली। इनके साथ मंडी बोर्ड के अधिकारी और कर्मचारी भी मैदान में आ गए, कई दिनों तक कामकाज ठप हो गया।
बस संचालकों की हड़ताल :
लॉकडाउन में हुए घाटे के चलते अनलॉक शुरू होते ही बस संचालकों ने टैक्स में छूट और किराया बढ़ाने की मांग को लेकर मोर्चा खोल दिया। सरकार ने 2 जून और उसके बाद कई बार बसों को चलाने के आदेश दिए, लेकिन ऑपरेटर्स हड़ताल पर डट गए। इसके बाद सरकार ने पांच माह का टैक्स माफ करने की घोषणा की जिसके बाद हड़ताल खत्म हुई, हालांकि सवारियां कम मिलने और किराया नहीं बढ़ पाने के चलते शहर से दूसरे शहरों के लिए जाने वाले लोगों के लिए बसों की समस्या करीब पूरे साल ही बनी रही।
गैसपीड़ित विधवाओं का आंदोलन :
एक साल से बंद अपनी 1 हजार रुपए की पेंशन को बंद कराने के लिए राजधानी की गैसपीड़ित विधवाओं ने पूरे साल ही आंदोलन किया। अक्टूबर में क्रमिक अनशन भी किया, लेकिन कामयाबी नहीं मिली। 2 दिसंबर को गैसकांड की बरसी पर सीएम ने पेंशन शुरू कराने की घोषणा की, लेकिन दिसंबर में भी पेंश नहीं मिल पाई।
रेत कारोबारियों की हड़ताल :
पूरे साल राजधानी में अवैध रेत खनन और उसका परिवहन सरकार और कारोबारियों के लिए सिरदर्द बना रहा। साल के अंत में इस पर लगाम लगाने के लिए खनिज विभाग और अन्य विभागों ने युद्ध स्तर पर कार्रवाई शुरू कर दी, जिसके बाद विवाद की स्थिति बनी और रेत कारोबारी हड़ताल पर चलेगी। दस दिन चली हड़ताल को खनिज मंत्री के आश्वासन के बाद वापस लिया गया।
किसानों का आंदोलन :
केंद्र सरकार के कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का आंदोलन साल के अंत में सर्खियों में बना रहा। हालांकि सरकार ने शहर में कोई बड़ा आंदोलन नहीं होने दिया, लेकिन फिर भी भारत बंद और उसके बाद भी किसानों के छुटपुट प्रदर्शन होते रहे। आंदोलन के साथ ही साल खत्म हो रहा है।
लॉकडाउन, पलायन और मदद के हाथ :
साल की शुरूआत शहर के लिए आम सालों की तरह ही थी, लेकिन मार्च में कोरोना ने शहर मे आमद दी। 25 मार्च को पहला के सामने आने के साथ ही शहर के हालात बदल गए और केंद्र सरकार के आदेश पर सदी का शायद सबसे लंबा लॉकडाउन लगा दिया गया। इस बीच रोज कमाने और खाने वाले तो परेशान थे ही, मई में महानगरों से अपने घरों और गांवों को पैदल लौटते मजदूर भी नया सवाल बनकर उभरे। लेकिन संकट की इस घड़ी में शहर भी अपनी दरियादिली दिखाने में पीछे नहीं हटा। कोरोना और लॉकडाउन के बीच राजधानी में मदद के लिए उठने वाले हाथ भी कम नहीं पड़े। शहर की कई सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं के साथ ही कई सामाजसेवी भी मैदान में आ गए। अप्रैल और मई के बीच गरीबों और जरूरतमंदों तक दो वक्त के खाने से लेकर सब्जी, राशन और दवाईयों तक की सब व्यवस्था लोगों ने की तो, वहीं दूसरी तरफ पैदल लौटते मजदूरों के लिए खाना-पानी से लेकर जूते-चप्पल और कपड़ों तक के इंतजाम चुटकियों में होने लगे। हाईवे पर मंहगी गाड़ियों से लेकर लोडिंग ऑटो तक में जरूरमंदों को मदद पंहुचाई गई।
श्मशानों और कब्रिस्तानों में भी चली जंग :
महामारी के चलते जब शहर के अस्पतालों ने लाशें उगलना शुरू की तो एक बार को इंसानियत की भी रूह कांप गई। एक तरफ कोराना योद्धा सड़कों पर और अस्पतालों में जिंदगी के लिए जंग लड़ रहे थे, तो दूसरे तरफ इससे जान गंवाने वाले लोगों को कोई कंधा तक देने को तैयार नहीं था। दूसरे तो छोड़ो अपनों तक ने लाशों से मुंह फेर लिया। लेकिन यहां भी शहर का जज्बा कमजोर नहीं पड़ा। हिन्दू और मुस्लिम समुदाय के समाजसेवियों ने इसका भी बीड़ा उठाया, और लाशों का समान के साथ अंतिम संस्कार कराया गया। इस दौरान कई लोग खुद भी कोराना पॉजीटिव हो गए। इतना ही नहीं शहर में अंतिम संस्कारों के दौरान शहर की गंगा जमुनी तहजीब भी दिखाई दी।
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