'भोपाल मॉडल' क्यों हुआ 5000 शहरों में लागू?
राज एक्सप्रेस। जनवरी 2019 में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (United Nations Development Program) ने मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में की जा रही कचरा प्रबंधन व्यवस्था को पूरे देश में लागू करने की सलाह दी। भोपाल में कार्य करने वाली गैर सरकारी संस्था "सार्थक सामुदायिक विकास एवं जन कल्याण संस्था" के साथ मिलकर नगर निगम ने सड़क निर्माण और सीमेंट फैक्ट्रीज़ में प्लास्टिक के कचरे का इस्तेमाल कर, एक बेहतर मुहीम शुरू की है।
2 अक्टूबर 2019 से एक बार इस्तेमाल में आने वाली प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगने के बाद इस योजना का महत्व और बढ़ जाता है।
सार्थक संस्था ने यूएनडीपी से मदद लेकर एक परियोजना शुरू की। जिसके तहत निम्न माइक्रॉन्स(50 माइक्रॉन्स से कम) की प्लास्टिक को अलग कर, छोटे-छोटे टुकड़े कर सड़क निर्माण और सीमेंट फैक्ट्रीज़ में उपयोग करने के लिए भेजा जाता है। इसके लिए नगर निगम ने प्लास्टिक अपशिष्ट संग्रहण केन्द्रों की स्थापना की है, जिनका संचालन सार्थक के ज़रिए किया जाता है।
सड़कें बनाने में डामर के साथ प्लास्टिक को मिलाया जाता है तो वहीं सीमेंट फैक्ट्रीज़ में वैकल्पिक ईंधन के रूप में प्लास्टिक का इस्तेमाल होता है। सीमेंट फैक्ट्रीज़ के भट्टे में कोयले के साथ मिलाकर प्लास्टिक को 1400° तापमान पर गर्म करने से पर्यावरण को भी नुकसान नहीं पहुंचता है।
परियोजना में एसीसी, बिरला सीमेंट, विक्रम सीमेंट-एबीजीएल, सतना सीमेंट, डायमंड एच सीमेंट, जेपी सीमेंट और मैहर सीमेंट शामिल हैं। सड़क बनाने में प्लास्टिक का उपयोग करने से डामर का इस्तेमाल 10 फीसदी तक कम हो जाता है। प्लास्टिक गिट्टियों में चिपक कर एक परत बना लेती है जिससे सड़कों का जीवन कई गुना बढ़ जाता है।
इस योजना में नगर निगम भोपाल और सार्थक संस्था के साथ मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, यूएनडीपी, पर्यावरण शिक्षा केन्द्र (Centre for Environment Education) और वैश्विक पर्यावरणीय सुविधा (Global Environment Facility) भी शामिल हैं। जीईई में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक ये योजना कचरा बीनने वाले लोगों की काफी सहायता कर रही है, खास तौर पर महिलाओं को। एक तरफ जहां उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है, वहीं उनके काम की कीमत भी की जाने लगी है। साथ ही उन्हें काम करने के लिए ग्लव्स, मास्क जैसी और भी सुविधाएं मिलने लगी हैं।
सार्थक संस्था के अध्यक्ष इम्तियाज़ अली बताते हैं कि, 'साल 2007 से ये योजना भोपाल में लागू है और 42 दूसरे देशों में इसे लागू किया जाना है। वहीं तत्कालीन समय में बांग्लादेश, फिलीपींस, इथोपिया जैसे 22 देशों में इस योजना के तहत प्लास्टिक अपशिष्ट संग्रहण केन्द्रों की स्थापना हो चुकी है और प्लास्टिक के कचरे से होने वाले नुकसान को कम करने का प्रयास किया जा रहा है।'
साल 2014 से मध्यप्रदेश ग्रामीण सड़क विकास प्राधिकरण (एमपीआरआरडीए) के साथ मिलकर सार्थक संस्था प्लास्टिक के इस्तेमाल से सड़क निर्माण का कार्य कर रही है। भोपाल, इंदौर और देवास में अभी तक प्लास्टिक के इस्तेमाल से कई सड़कों का निर्माण हो चुका है। बड़े तालाब के सामने बने राजा भोज सेतू, लिंक रोड नम्बर-3, वीर सावरकर सेतू आदि रास्ते इस तकनीक से बनाए गए हैं।
मध्यप्रदेश सरकार ने साल 2018 में कचरा प्रबंधन के लिए नए नियम लागू किए थे। इनके अनुसार कचरे को दो भागों (गीला और सूखा कचरा) में बांटना अनिवार्य है। जिसके बाद इनका अलग-अलग प्रबंधन किया जाना तय हुआ है। इन नियमों को आप यहां पढ़ सकते हैं-
राजधानी भोपाल में फिलहाल चार प्लास्टिक अपशिष्ट संग्रहण केन्द्र चल रहे हैं। यादगार-ए-शाहजहानी पार्क, डीआईजी बंगले के पास, भानपुर और बैरागढ़ में ये स्थित हैं। इन केन्द्रों में लगभग 350 कर्मचारी काम करते हैं। कचरा बीनने वाले इन लोगों को इस योजना से काफी लाभ पहुंचा है। पहले जहां ये लोग 70 से 80 रूपए कमा पाते थे, वहीं अब 500 रूपए तक कमा लेते हैं। संस्था के माध्यम से ये लोग स्वयं सहायता समूहों में बंटे हुए हैं। जो कचरा बीनने से लेकर, प्लास्टिक अलग करने, उसके प्रसंस्करण(प्रोसेसिंग) और सरकार एवं सीमेंट फैक्ट्रीज़ तक उसे पहुंचाने का काम करते हैं।
नगर निगम और सार्थक संस्था शहर में 6 और संग्रहण केन्द्र बनाने की योजना पर काम कर रही है। इम्तियाज़ बताते हैं, 'भारत सरकार का ये आदेश है कि गांव की 10 प्रतिशत सड़कें प्लास्टिक के इस्तेमाल के साथ बनाई जाएं, एमपीआरआरडीए के साथ मिलकर अभी तक हमने 4000 किमी सड़कें बनाई हैं। हमारा लक्ष्य है कि आगे आने वाले समय में प्लास्टिक के उपयोग से हम 8000 किमी सड़क बना सकें।'
इम्तियाज़ ये भी बताते हैं कि, 9 जून 2019 को वर्ल्ड बैंक ने संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के वॉशिंगटन में एक वर्कशॉप बुलाई थी जिसमें 'प्लास्टिक ठोस अपशिष्ट प्रबंधन एवं रैगपिकर्स उत्थान परियोजना, भोपाल मॉडल' का प्रदर्शन किया गया था। इस वर्कशॉप में दुनिया के 162 देश शामिल हुए, जिनमें से 42 देशों ने इसे अपनाने के लिए सहमति जताई थी।
"बैन करना प्लास्टिक का हल नहीं है। आवश्यकता है कि इसका सही प्रबंधन हो। इस योजना का मुख्य उद्देश्य ऐसे प्लास्टिक का प्रबंधन है जिसका उपयोग दोबारा नहीं किया जा सकता, जिसके जलने से नुकसानदायक गैसें निकलती हैं, कई तरह के कैंसर होते हैं। ऐसे प्लास्टिक को व्यवस्थित तौर पर इकट्ठा करना और उसका वैज्ञानिक तौर पर निराकरण करना ताकि जलवायु परिवर्तन और घातक बीमारियों से बचा जा सके।"
इम्तियाज़ अली, संस्थापक एवं अध्यक्ष, सार्थक
"इसके अतिरिक्त जो समुदाय इस काम को कर रहे हैं(कचरा चुनने, बीनने वाले लोग) उन्हें बेहतर और सम्मानजनक ज़िन्दगी देना भी इसका लक्ष्य है। ये एक ऐसी योजना है जिसमें सरकार यदि एक बार संग्रहण केन्द्र बनाकर व्यवस्थाएं कर दे तो फिर उसका संचालन स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से होता है। सरकार को इसके अतिरिक्त कोई और खर्च करने की ज़रूरत नहीं है। इससे एक तरफ तो प्लास्टिक से निजाद मिल रही है वहीं कोयले की बचत हो रही है तथा लंबी अवधि तक चलने वाली सड़कों का निर्माण हो रहा है।"
इम्तियाज़ अली, संस्थापक एवं अध्यक्ष, सार्थक
मध्यप्रदेश ग्रामीण सड़क विकास प्राधिकरण से प्राप्त जानकारी के अनुसार, साल 2001 से शुरू हुई प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना-1 के तहत अब तक राज्य में 5223.97 किमी सड़क प्लास्टिक कचरे के इस्तेमाल से बन चुकी है। इस योजना में 5553.35 किमी सड़क बनाने का लक्ष्य था। वहीं साल 207-18 से शुरू हुई प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना-2 के तहत अब तक राज्य में 1314.261 किमी सड़क इस तकनीक से बन चुकी है। इस योजना में 1821.07 किमी सड़क बनाने का लक्ष्य था।
पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग के साल 2018-19 के प्रशासकीय प्रतिवेदन के अनुसार, "लगभग 3650 मिलियन टन प्लास्टिक कचरे का प्रयोग कर वर्ष भर में 7300 किमी मार्गों का निर्माण किया गया है। उपरोक्त तकनीक से मार्ग निर्माण किए जाने पर प्लास्टिक अपशिष्ट के उपयोग होने के साथ पर्यावरण प्रदूषण से भी मुक्ति मिल रही है।"
पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की साल 2017-18 की मध्यप्रदेश की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, इस साल राज्य में 50,457.07 मिलियन टन प्रति वर्ष के लगभग प्लास्टिक कचरे का उत्पादन हुआ। 6437 मैट्रिक मिलियन टन में से 4383 मिलियन टन प्लास्टिक कचरा सीमेंट प्लांट्स में इस्तेमाल किया गया। 2000 मिलियन टन प्लास्टिक रिसायकल हुई तो वहीं 54 मिलियन टन प्लास्टिक कचरे का उपयोग सड़क निर्माण में किया गया।
प्रदेश में 25 रजिस्टर्ड प्लास्टिक बनाने और रिसायकल करने वाली कंपनियां हैं। इसके साथ ही 30 मल्टीलेयर्ड प्लास्टिक यूनिट्स हैं। प्लास्टिक की थैलियों के निर्माण में किसी भी तरह के उल्लंघन की कोई रिपोर्ट सामने नहीं आई है। राज्य में 139 नगर निगम हैं और सभी को साल 2018 में कचरा प्रबंधन के विनियमित नियमों को मानने के आदेश दे दिए गए हैं।
सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय की साल 2018-19 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 11 अक्टूबर 2018 को हुई बैठक में परिवहन मंत्री ने राष्ट्रीय राजमार्ग निर्माण में बिटुमिन के साथ प्लास्टिक के कचरे का उपयोग करने के निर्देश दिए। राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण तमिलनाडु राज्य में 11 किमी राष्ट्रीय राजमार्ग प्लास्टिक कचरे के इस्तेमाल से बना चुका है।
सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय द्वारा 3 सितंबर 2019 को परिपत्र जारी कर सरकारी कार्यालयों में एक बार उपयोग में आने वाली प्लास्टिक के इस्तेमाल पर पूर्णत: रोक लगाने की बात कही गई। मंत्रालय ने सभी सरकारी दफ्तरों में कुल्हड़, चीनी मिट्टी के बर्तन, कांच के ग्लास आदि इस्तेमाल करने के निर्देश दिए।
इंटरनेशनल जर्नल ऑफ कैमटेक रिसर्च ने 'बिटुमिन में प्लास्टिक का इस्तेमाल' (Use of Plastic Waste in Bituminous Pavement) नाम से आर. मंजू, साथ्या एस और शीमा के. का रिसर्च पेपर प्रकाशित किया। ये तीनों कोयंबटूर के कुमारगारू कॉलेज ऑफ टेक्नलॉजी के सिविल इंजीनियरिंग विभाग में कार्यरत हैं। इस रिसर्च पेपर में बताया गया कि, यह नई तकनीक ईको-फ्रेंडली है।
बिटुमिन और मिश्रण में मिलाया गया प्लास्टिक कचरा सड़क को बेहतर बनाता है। प्लास्टिक की कोटिंग होने से मिश्रण में गड्ढे नहीं होते। साथ ही ये पानी या नमी को सोखने से भी बचाता है। इसके परिणामस्वरूप सड़कों पर निशान नहीं होते और कोई गड्ढा नहीं बनता है। प्लास्टिक के उपयोग से बनने वाली सड़क भारी यातायात का सामना कर सकती है।
प्लास्टिक मिक्स के उपयोग से बिटुमन का प्रयोग 10% तक कम हो जाएगा। इसके साथ ही सड़क की ताकत बढ़ जाएगी, जिससे उसका प्रदर्शन बेहतर होगा।
प्लास्टिक की सड़कें-
साल 2015 में केन्द्र सरकार ने सभी सड़कों के निर्माण के लिए बिटुमिनस मिक्स के साथ प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल अनिवार्य कर दिया था। सरकार का ये कदम देश में बढ़ती प्लास्टिक से होने वाली परेशानियों के मद्देनज़र था।
सड़क निर्माण में प्लास्टिक के उपयोग की ये तकनीक मदुरै के थियागराजर कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग के रसायन शास्त्र के विभागाध्यक्ष और प्रोफेसर राजगोपालन वासुदेवन द्वारा विकसित की गई है। इस कारण उन्हें भारत का 'प्लास्टिक मेन' कहा जाने लगा।
सड़क निर्माण में कचरे में फेंकी जाने वाले प्लास्टिक की कई वस्तुओं का इस्तेमाल किया जा सकता है। जैसे, प्लास्टिक की थैली, कप, चिप्स, बिस्किट और चॉकलेट आदि के रैपर्स आदि।
ये पूरी प्रक्रिया बहुत आसान है। प्लास्टिक कचरे को पहले श्रेडिंग मशीन द्वारा विशेष आकार में काटा जाता है, फिर सड़क बनाने वाले मिश्रण को 165° सेल्सियस पर गर्म कर मिश्रण चैम्बर में भेजा जाता है। इसके साथ ही बिटुमिन को 160° सेल्सियस तक गर्म करते हैं ताकि दोनों को बेहतर तरीके से जोड़ा जा सके। बिटुमिन और मिश्रण को गर्म करने के दौरान तापमान की निगरानी करना महत्वपूर्ण है।
इसके बाद प्लास्टिक के टुकड़ों को मिश्रण में मिलाया जाता है। 30 से 60 सैकेंड्स के भीतर वो मिश्रण में मिल जाते हैं। अब इस प्लास्टिक मिले हुए मिश्रण को गर्म बिटुमिन में मिलाया जाता है, जिससे सड़कें बनती हैं।
सड़क बनाने में हर एक किलो पत्थर के लिए 50 ग्राम बिटुमिन का उपयोग होता है, इस 50 ग्राम का 1/10 फीसदी प्लास्टिक कचरा इस्तेमाल किया जा सकता है। प्लास्टिक के इस्तेमाल से बनने वाले रास्ते ज़्यादा मजबूत और अधिक अवधि तक चलने वाले होते हैं। उन पर गड्डे नहीं होते, न ही बारिश में रास्ते खराब होते हैं।
इस ही महाविद्यालय में साल 2002 में भारत के महान वैज्ञानिक ए.पी.जे. अब्दुल कलाम के कहने पर प्रोफेसर वासुदेवन ने प्लास्टिक का उपयोग कर एक सड़क बनाई थी। जिस पर अभी तक कोई गड्डा नहीं हुआ है, न ही उसमें किसी तरह की मरम्मत करने की आवश्यकता हुई।
प्लास्टोन-
प्रोफेसर वासुदेवन ने साल 2012 में प्लास्टिक का उपयोग कर 'प्लास्टोन' का अविष्कार किया था। ये प्लास्टिक से बना हुआ एक पत्थर है, जिसे प्लास्टिक और पत्थर को मिलाकर बनाया जाता है। प्लास्टोन अधिक दबाव सह सकता है, साथ ही ये पानी में खराब नहीं होता। प्रोफेसर ने अपने विभाग में प्लास्टिक कचरे के साथ ग्रेनाइट और सिरेमिक कचरे को मिलाकर प्लास्टोन बनाया है।
एक प्लास्टोन बनाने के लिए 300 प्लास्टिक की थैलियों और 6 बोतलों की ज़रूरत होती है। इनका उपयोग फर्श बनाने में किया जा सकता है, खासकर बाहर के फर्श। ये सीमेंट की टाइल्स का सस्ता और बेहतर विकल्प हैं। इन्हें पाइप, कैनल्स आदि बनाने में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। ये पानी को लीक होने से बचा सकते हैं।
द बेटर इंडिया वेबसाइट में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, प्रोफेसर वासुदेवन की इस तकनीक को यूरोप और अमेरिका जैसे देश भी जानना चाहते हैं लेकिन प्रोफेसर साहब ने इसे अपने महाविद्यालय के नाम पर पेटेंट कराया है और उनका मानना है कि जब तक पूरे भारत में ये तकनीक नहीं अपना ली जाएगी वो दूसरे देशों को इसे नहीं बताएंगे।
भारत में वर्ष 2018-19 में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत 609.074 किमी सड़क बनाने का काम चल रहा है। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना की वेबसाइट पर आप इससे संबंधित सभी जानकारियां प्राप्त कर सकते हैं।
साल 2017-18 के बीच इस योजना के तहत मध्यप्रदेश में 2,84,141.97 रूपए के खर्च से 517.525 किमी की सड़क बनाई गई है।
इससे पूर्व साल 2016-17 में 8,633.76 लाख रूपए के खर्च में 1,020.389 किमी सड़क बनाई गई थी।
अक्टूबर 2018 में एनडीटीवी में छपी एक रिपोर्ट कहती है कि अब तक पूरे भारत में एक लाख किमी सड़क प्लास्टिक के इस्तेमाल द्वारा बना ली गई है। वहीं केवल चेन्नई शहर में 1,60,000 किलो प्लास्टिक का उपयोग कर 1,035 किमी की सड़कों का निर्माण हो चुका है। वहीं पुणे में 1,430 किमी सड़क इस तकनीक की सहायता से बनाई जा चुकी है। इसमें 3,343 किलो कचरा प्लास्टिक का इस्तेमाल हुआ है।
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में देश का पहला ई-वेस्ट क्लीनिक बनने जा रहा है। डीबी पोस्ट के अनुसार, केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और भोपाल नगर निगम के बीच इस पर समझौता हुआ है। खराब हो चुके कम्प्यूटर, मोबाइल जैसी इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं का यहां प्रबंधन होगा। जिन्हें रिसायकल नहीं किया जा सकेगा उनसे सजाने के सामान आदि बनाने और कलात्मक रूप से उनका इस्तेमाल करने का प्रयास किया जाएगा। इसके लिए ई-वेस्ट कलेक्शन केन्द्र भी खोले जाएंगे ताकि आम लोग वहां जाकर अपने घर का ई-कचरा जमा करा सकें।
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