मध्यप्रदेश इतिहास के पन्ने: कुंवर चैन सिंह ने लड़ी दो लड़ाईयाँ, एक अंग्रेजों से और दूसरी अपने सम्मान की...
हाइलाइट्स:
1818 से ईस्ट इंडिया कंपनी ने मध्यप्रदेश की अधिकांश रियासतों पर दवाब बनाना शुरू किया।
कुंवर चैन सिंह ने अंग्रेजों की बातें मानने से इंकार कर दिया।
सीहोर में कुंवर चैनसिंह की छतरी (समाधी) और परशुराम सागर के पास मंदिर बनवाया।
राजएक्सप्रेस। मध्यप्रदेश के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कुंवर चैनसिंह को अपने जीवन में दो लड़ाइयां लड़नी पड़ी थी। एक जीवित रहते हुए और दूसरी अपनी शहादत के बाद। अपने जीवनकाल में उन्होंने अंग्रेजों से लड़ाई लड़ते हुए प्राण त्यागे, जबकि शहादत के बाद सम्मान प्राप्त करने के लिए आजादी के बाद से साल 2014 तक लड़ते रहे। बात अजीब है पर सच है.... ।
कहानी शुरू होती है सन 1818 से.... इस समय ईस्ट इंडिया कंपनी ने भोपाल नवाब से समझौता कर मध्यप्रदेश की अधिकांश रियासतों पर दवाब बनाना शुरू कर दिया था। इसी दौरान अंग्रेजों ने सीहोर में सैनिकों की छावनी बनाकर मालवा के इलाके पर निगरानी रखना शुरू की। सीहोर की छावनी से आस पास के इलाके में सैनिक भेजकर बगावत को दबाया जाता था। सैनिकों की छावनी को नियंत्रित करने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने पॉलिटिकल एजेंट के रूप में मैडॉक को नियुक्त किया था। मैडॉक ने भोपाल रियासत को छोड़कर आस पास की रियासतें जैसे राजगढ़, नरसिंहगढ़, खिलचीपुर सहित अन्य रियासतों को ईस्ट इंडिया कंपनी में विलय करने के लिए दवाब बनाना शुरू किया। मैडॉक की धमकियों से अधिकांश रियासत के राजा खामोश होकर विलय करने पर विचार करने लगे लेकिन नरसिंहगढ़ रियासत के उत्तराधिकारी युवराज कुंवर चैनसिंह ने मैडॉक को संदेशा भिजवा दिया कि, वह अपनी रियासत का विलय ईस्ट इंडिया कम्पनी में किसी कीमत पर नहीं करेंगे।
कुंवर चैनसिंह के तेवर देखकर पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक ने नरसिंहगढ़ रियासत में बगावत के बीज बोना शुरू कर दिया। रियासत के दीवान आनंद राम बख्शी और मंत्री रूपराम बोहरा लगातार अंग्रेजों को गोपनीय जानकारियां पंहुचा रहे थे। इसकी जानकारी कुंवर चैन सिंह को मिली तो उन्होंने इन दोनों को मौत की सजा दी। इस घटनाक्रम की जानकारी ईस्ट इंडिया कम्पनी के गवर्नर जर्नल को मिली तो उन्होंने पोलिटिकल एजेंट मैडॉक को मामले में एक्शन लेने के निर्देश दिए जिसके बाद मैडॉक ने कुंवर चैनसिंह को हत्या के अभियोग चलाने के लिए सन्देश भेज दिया। मैडॉक और कुंवर चैनसिंह की बैठक बैरसिया में हुई। इस बैठक में मैडॉक ने हत्या के अभियोग से बचने के लिए कुंवर चैन सिंह से कहा कि, उन्हें अपनी रियासत का विलय ईस्ट इंडिया कंपनी में करना होगा और इलाके की फसल पर सिर्फ कंपनी का अधिकार होगा। कुंवर चैन सिंह ने मैडॉक के सभी बातें मांनने से इंकार कर दिया जिसके बाद मैडॉक ने योजना बनाकर कुंवर चैनसिंह को 24 जुलाई 1824 को सीहोर आने का आदेश दिया। इस आदेश मिलने के बाद कुंवर चैन सिंह अपने साथी हिम्मत खां और बहादुर खां सहित सैनिकों की टोली लेकर सीहोर पहुंच गए।
पीछे नहीं हटे कुंवर चैनसिंह :
सीहोर में अंग्रेजों की सैनिक टुकड़ियों ने कुंवर चैनसिंह को चरों तरफ से घेर लिया। इस दौरान उन्होंने हार न मानते हुए बहादुरी से लड़ाई लड़ी और जब उनकी तलवार एक तोप में फंस गई तब एक अंग्रेज सैनिक ने उनकी सिर तलवार के वार से धड़ से अलग कर दी उनका सिर वहीँ जमीन पर गिर गया लेकिन धड़ उनका घोड़ा लेकर नरसिंहगढ़ रियासत जा पहुंचा, इसलिए नरसिंहगढ़ रियासत और सीहोर में कुंवर चैन सिंह की समाधी बनाई गई। सीहोर में कुंवर चैनसिंह की छतरी (समाधी) और परशुराम सागर के पास कुंवर चैनसिंघ की पत्नी कुंवररानी राजावत ने मंदिर बनवाया।
2014 तक नहीं मिला गॉड ऑफ़ ओनर
कुंवर चैनसिंह की मृत्यु के बाद उनकी अंग्रेजों से लड़ाई समाप्त हो गई हो लेकिन उनके सम्मान की लड़ाई जारी रही। देश आजाद हो गया शहीदों को सामान भी दिया गया लेकिन कुंवर चैनसिंह को सम्मान मिलना बाकी रहा। सीहोर स्थित कुंवर चैनसिंह की छतरी पर गॉड ऑफ ऑनर की मांग सर्वप्रथम वरिष्ठ पत्रकार और इतिहासकार अम्बादत्त भारतीय ने उठाई थी, उन्होंने सरकार और इतिहास से जुड़े कई अधिकारियों को कुंवर चैनसिंह की छतरी दिखाई और उससे सम्बंधित इतिहास की जानकारी देकर उन्हें सम्मान देने की बात कही। लम्बी लड़ाई के बाद साल 2015 में मध्यप्रदेश सरकार ने कुंवर चैनसिंह की छतरी पर गॉड ऑफ ऑनर देना शुरू किया। इस तरह स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कुंवर चैनसिंह को सम्मान मिला और उनकी दूसरी लड़ाई समाप्त हुई।
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