राज एक्सप्रेस। मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में रहने वाले लोगों की ज़िन्दगी प्रदूषण की वजह से 3 साल कम हो गई है। शिकागो विश्वविद्यालय के एनर्जी पॉलिसी इंस्टिट्यूट की तरफ से जारी वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक (Air Quality Life Index) की रिपोर्ट में बताया गया कि, वायु प्रदूषण की वजह से भोपाल में रहने वाले लोगों के जीवन पर गहरा असर पड़ेगा और वे सामान्य जीवन से तीन साल कम जी पाएंगे।
हाल ही में बीते दिवाली के त्यौहार पर हुए अत्याधिक वायु प्रदूषण की वजह से देश की राजधानी दिल्ली में स्वास्थ्य आपातकाल की स्थिति हो गई है। जिसके कारण दिल्ली सरकार ने 5 नवंबर तक सभी विद्यालयों को बंद करने का निर्णय लिया है। दिल्ली के कई इलाकों में हवा में पीएम 2.5 का स्तर 500 को पार कर चुका है।
वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया के 10 सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में से 7 भारत में हैं, तो वहीं 30 में से 22 भारतीय शहर सबसे अधिक प्रदूषित हैं।
हवा में प्रदूषण का स्तर दो कणों पीएम-2.5 और पीएम-10 की मात्रा के हिसाब से जांचा जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, पीएम-2.5 की मात्रा यदि 10 माइक्रोग्राम बटा क्यूबिक मीटर (µg/m³) या उससे कम होती है तो हवा की गुणवत्ता अच्छी मानी जाती है। वहीं पीएम-10 के लिए ये स्तर 20 माइक्रोग्राम बटा क्यूबिक मीटर (µg/m³) या उससे कम है।
पीएम-2.5 हमारे बालों की चौड़ाई से 20 गुना छोटे कण हैं, जो कि मानव स्वास्थ्य के लिए सबसे अधिक हानिकारक हैं। ये धातु, कार्बनिक यौगिक या कोयले से चलने वाले बिजली स्टेशनों, लकड़ी और लकड़ी का कोयला जलाने वाले स्टोव, वाहनों के इंजन और कारखानों से पैदा होने वाले उप-उत्पाद हो सकते हैं।
पूरी दुनिया में हर साल प्रदूषण की वजह से 70 लाख से अधिक लोगों का अपनी सामान्य ज़िन्दगी से पहले निधन हो जाता है। लोगों के जीवन जीने में लगभग 2 वर्षों की कमी आई है। ये सिगरेट के धुएं से होने वाली मौतों से कहीं अधिक खतरनाक है।
प्रदूषण का पर्यावरण, वन्यप्राणियों और मनुष्यों के जीवन पर नकारात्मक असर पड़ता है। इसे पर्यावरण प्रदूषण भी कहा जाता है, मुख्यतः तीन प्रकार से होता है, वायु, जल और भूमि प्रदूषण। हालांकि, आधुनिक समाज ध्वनि, बिजली और प्लास्टिक प्रदूषण को लेकर भी बहुत अधिक चिंतित है।
हज़ारों साल पहले मनुष्य घूमंतु जीव था। जब उसने बसना शुरू किया और गांव बनाने शुरू किए तो एक ही जगह के प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल करना भी शुरू किया। इन संसाधनों के अधिकाधिक इस्तेमाल के कारण ही प्रदूषण होना शुरू हुआ।
लोगों के बसने के बाद से, ईंधन के रूप में कोयले का उपयोग होना शुरू हुआ। जिससे वायु प्रदूषण की शुरूआत हुई। 19वीं शताब्दी के दौरान आबादी और विकासात्मक गतिविधियों के बढ़ने से वायु एवं जल प्रदूषण होने लगा।
20वीं शताब्दी के मध्य तक लोगों में प्रदूषण को लेकर जागरूकता आने लगी। साल 1970 में पहली बार इसके लिए कोई कानून बनाया गया, क्लीन एयर एक्ट और साल 1972 में क्लीन वॉटर एक्ट बना। ये कानून अमेरिका के साथ कई और देशों में लागू किए गए।
अब दुनिया के लगभग हर देश में प्रदूषण से निपटने के लिए कानून हैं। भारत में पर्यावरण संरक्षण को लेकर 15 से अधिक कानून मौजूद हैं।
भारत का एक बड़ा हिस्सा प्रदूषण के सबसे अधिक चपेट में है। इससे निपटने के लिए देश में राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (National Clean Air Programme) शुरू किया गया। साल 2017 में शुरू हुए इस कार्यक्रम के तहत 2024 तक भारत में 20 से 30 प्रतिशत प्रदूषण कम करने का लक्ष्य है।
अगर हम ये लक्ष्य पूरा कर लेते हैं तो हमारी ज़िन्दगी में 1.3 साल तक का इजाफा हो सकता है। वहीं दिल्ली और उत्तर प्रदेश के लोगों की ज़िन्दगी में 3 साल तक बढ़ सकते हैं।
प्रदूषण की मुख्य वजह हमारे काम को आसान करने वाली वस्तुएं ही हैं। उद्योग, वाहन, विद्युत सुविधाएं आदि कार्बन, मिथेन एवं कई तरह की खतरनाक गैस छोड़ते हैं, जिनसे पर्यावरण को सबसे अधिक नुकसान पहुंचता है।
हम नालों और गंदे पानी को बिना उपचार के झीलों और नदियों में छोड़ देते हैं, जिसे पीने से न सिर्फ वन्य प्राणियों की ज़िन्दगी खतरे में होती है बल्कि हमारे पीने का पानी भी खराब होता है। समुद्रों में कचरे के ज़रिए पहुंची प्लास्टिक भी आज हमारे लिए खतरे की घंटी बन कर खड़ी है।
साल 1970 से 2000 के बीच हर व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले कचरे में दोगुना बढ़ोत्तरी हुई है और अगर हमने पर्यावरण को बचाने के लिए कदम नहीं उठाए तो ये आगे और अधिक बढ़ता जाएगा।
विश्व वायु गुणवत्ता जीवन सूचकांक की साल 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया के 10 में से 9 लोग अशुद्ध सांस ले रहे हैं। वहीं दुनिया के 64 प्रतिशत लगभग 3000 शहर, प्रदूषण की चपेट में हैं।
दक्षिण-पूर्वी एशिया के देश प्रदूषण से सर्वाधिक प्रभावित हैं। बंग्लादेश, पाकिस्तान, चीन और भारत में प्रदूषण बहुत अधिक है और ये समय-समय पर और अधिक बढ़ रहा है। इसका एक कारण यह भी है कि ये सभी फिलहाल विकासशील देश हैं, यहां होने वाले विकास के कामों के चलते प्रदूषण कम करने के लिए उठाए गए कदम बहुत असर नहीं डाल पाते।
वहीं हम अगर अमेरिका और इंग्लैंड जैसे देशों की बात करें तो वे विकसित देश हैं, वहां प्रदूषण को रोकने और पर्यावरण को बचाने के लिए बेहतर कदम उठाए जा सकते हैं, जो कि वे उठा भी रहे हैं।
विकासशील होने का दावा कर हम अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकते। हमें विकास के ऐसे मार्गों को तय करना होगा जो पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ विकास करें। ऐसा विकास जो सतत रहे और हमारी आगे आने वाली पीढ़ियां भी पर्यावरण से मिलने वाले संसाधनों का लाभ ले सकें।
विश्व स्तर पर कई संस्थाएं पर्यावरण संरक्षण को लेकर लोगों में जागरूकता फैलाने का काम कर रहे हैं। वहीं इसके लिए कई अंतर्राष्ट्रीय कानून भी बन चुके हैं। साथ ही संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण संरक्षण और प्रदूषण को लेकर काफी सजग है। समय-समय पर ये देशों के लिए दिशा-निर्देश जारी करते रहते हैं।
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