जानिए भारत को ‘तिरंगा’ देने वाले पिंगली वेंकैया की कहानी, जिन्हें जीते-जी नहीं मिली असली पहचान
हाइलाइट्स :
राष्ट्रीय ध्वज ‘तिरंगा’ भारत के गौरव, अखंडता व शक्ति का परिचायक है।
‘तिरंगा’ 140 करोड़ से अधिक भारतवासियों को एक सूत्र में पिरोने का काम करता है।
तिरंगे के सम्मान के लिए कई वीरों ने अपने प्राण न्योछावर किए हैं।
Pingali Venkayya : हमारे देश का राष्ट्रीय ध्वज ‘तिरंगा’ हमारी आन-बान-शान का प्रतिक है। यह भारत के गौरव, अखंडता व शक्ति का परिचायक है। ‘तिरंगा’ 140 करोड़ से अधिक भारतवासियों को एक सूत्र में पिरोने का काम करता है। तिरंगे के सम्मान के लिए कई वीरों ने अपने प्राण न्योछावर किए हैं। आज उसी तिरंगे को बनाने वाले पिंगली वेंकैया की जयंती है। 2 अगस्त 1876 को आंध्र प्रदेश के मछलीपट्टम में एक तेलुगु ब्राह्मण परिवार में जन्मे पिंगली किसी समय ब्रिटिश इंडियन आर्मी में काम करते थे। उनकी तैनाती दक्षिण अफ्रीका में थी। लेकिन महात्मा गांधी के विचारों से प्रभावित होकर पिंगली आजादी की लड़ाई में कूद पड़े।
कैसे आया ‘तिरंगा’ बनाने का विचार?
दरअसल साउथ अफ्रीका में तैनाती के दौरान पिंगली ने दक्षिण अफ्रीका के बायर युद्ध में भाग लिया था। बायर युद्ध के दौरान पिंगली ने देखा कि कैसे किसी झंडे के तले हजारों सैनिक एक होकर लड़ाई करते हैं। अपने झंडे की शपथ लेकर सैनिक लड़ाई के मैदान में मरने से भी पीछे नहीं हटते थे। ऐसे में पिंगली चाहते थे कि भारत का भी एक ऐसा झंडा हो, जिसके सम्मान के लिए देशवासी हर कुर्बानी देने के लिए तैयार रहे। पिंगली ने महात्मा गांधी को अपने इस विचार के बारे में बताया, जिस पर महात्मा गांधी ने उन्हें ही झंडा डिजाइन करने का काम सौंप दिया।
गांधी के कहने पर शामिल किया सफेद रंग
करीब 30 देशों के राष्ट्रीय ध्वज का अध्ययन करने के बाद पिंगली ने लाल और हरे रंग का एक झंडा बनाया, जिसके बीच में चरखा था। इसमें लाल रंग हिन्दू और हर रंग मुस्लिमों के प्रतिक के रूप में शामिल किया गया था। हालांकि महात्मा गांधी के कहने पर पिंगली ने झंडे में सफेद रंग भी शामिल किया। आगे चलकर लाल रंग की जगह केसरिया रंग और चरखे की जगह अशोक चक्र तिरंगे में शामिल किया गया। आजादी के दिन इस झंडे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में मान्यता दे दी गई।
जीते-जी नहीं मिली पहचान
देश को उसका राष्ट्रीय ध्वज देने वाले ‘पिंगली वेंकैया’ को जीते-जी असल पहचान नहीं मिल पाई। आजादी के बाद भी पिंगली का जीवन बेहद गरीबी में बीता। 4 जुलाई 1963 को उन्होंने चित्तनगर की एक झोपड़ी में रहते हुए अंतिम सांस ली। इसके बाद उनका परिवार भी गुमनामी में जीता रहा। साल 2009 में जब भारत सरकार ने पिंगली के सम्मान में डाक टिकट जारी किया तो देश के ज्यादातर लोगों को पिंगली के बारे में पता चला।
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