Lockdown: मार्केट बंद, मार्केटिंग जारी!

“सुनकर अजीब नहीं लगता; देश-दुनिया कोरोना के आतंक से निपटने लॉकडाउन के कारण घरों में दुबकी है, सभी मार्केट बंद हैं, लेकिन मार्केटिंग जारी है।”-मुद्दे पर जानें लोगों की राय...
Lockdown: मार्केट बंद, मार्केटिंग जारी!
Lockdown: मार्केट बंद, मार्केटिंग जारी! Kavita Singh Rathore -RE
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हाइलाइट्स :

  • मार्केटिंग रणनीति पर कोरोना वायरस!

  • एविएशन, मोबाइल, कारों, गाड़ियों के विज्ञापन घटे

  • मोबाइल रिचार्ज प्लान्स के विज्ञापनों की स्क्रीन पर भरमार

  • लॉकडाउन में TRP भुनाने मीडिया-एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री को भरपूर चांस

  • मोबाइल के मुफ्त डाटा से लॉकडाउन को सफल बनाने की हुई वकालत

राज एक्सप्रेसस। आपने धूल में लट्ठ मारने वाली बात तो सुनी ही होगी। जी हां हम आज मानवता के पतन के दौर में इसे चरितार्थ होते भी देख रहे हैं। सूत न कपास जुलाहों में लट्ठम-लट्ठा वाली कहावत की ही तरह भारत में लॉकडाउन से मार्केट बंद हैं लेकिन अत्यावश्यक सूचनाओं के बजाए स्क्रीन पर विज्ञापनों की निरर्थक भरमार है।

विज्ञापन बाजार :

डिजिटल एडवर्टाइजिंग के युग में विज्ञापन का बाजार दूसरे माध्यमों के मुकाबले बड़ा है। साल 2017 में प्रकाशित एमटीवाईएनवाई समूह की वर्ल्ड वाइड रिपोर्ट के मुताबिक भारत में अनुमानित तौर पर लगभग 9,490 करोड़ रुपये का डिजिटल एडवर्टाइजिंग मार्केट था। जबकि इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (IAMAI) की रिपोर्ट बताती है कि भारत में डिजिटल एड पर खर्च बढ़कर बड़े बाजार का रूप ले लेगा।

2025 तक इतना :

एक रिपोर्ट के मुताबिक कुल मिलाकर, भारतीय विज्ञापन उद्योग 2019 के अंत तक 68,475 करोड़ रुपये पर था और 2020 के अंत तक 10.9% बढ़कर 75,952 करोड़ रुपये तक इसके पहुंचने की उम्मीद है। आशा की जा है कि CAGR (कंपाउंड एनुअल ग्रोथ रेट) में 11.83% की वृद्धि के साथ यह साल 2025 तक 133,921 करोड़ रुपये बाजार का आकार ले लेगा। कोरोना-लॉकडाउन के कारण जब दर्शकों की भरमार हो तो फिर इस उद्योग के फलने-फूलने के हंड्रेड परसेंट चांस भी हैं।

गौर फरमाएं :

सुनकर अजीब नहीं लगता; देश-दुनिया कोरोना के आतंक से निपटने लॉकडाउन के कारण घरों में दुबकी है, सभी मार्केट बंद हैं, लेकिन मार्केटिंग फिर भी जारी है। मामला सेहत का है तो अभी के दौर में फार्मा इंडस्ट्री सहित तमाम जड़ी-बूटी वाले विज्ञापनों का ट्रैंड है। जबकि जब रोड पर निकलना ही मना है तो इसलिए बाइक्स से लेकर लग्ज़री कारों की झलकियां पर्दे से गायब हो गईं हैं। मोबाइल सर्विस प्रोवाइडर कंपनियों ने भी लोगों की दुःखती रग को पहचानकर वर्क एट होम प्लान्स को विज्ञापनों की भरमार के जरिए जमकर भुनाया है।

एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री की यदि बात करें तो लॉकडाउन में पर्दे पर जॉंबीज युग की काल्पनिक कथाओं की भरमार है। पायरेसी के साथ ही लोगों को ऑनलाइन ठगने का भी चलन जोर पकड़ रहा है।

TRP भुनाने का चांस :

सूचना, समाचार, मनोरंजन, खेल से जुड़े ऑनलाइन माध्यमों के पास अपनी TRP को फर्श से अर्श तक पहुंचाने के लिए लॉकडाउन एक तरह से सोने में सुहागा कहा जा सकता है। भारत जैसे विशाल आबादी वाले राष्ट्र में लोगों के लिए मोबाइल+टेलिविज़न मनोरंजन के प्रथम विकल्प हैं। एक अरब से अधिक दर्शकों के बीच तमाम चैनल्स अपनी पैठ बना सकते हैं। भले ही क्रिकेट के तमाम टूर्नामेंट्स रद्द हो गए हों, ओलम्पिक पर संशय हो तो भी आकर्षक खेल पैकेज दर्शकों को बांध सकता है।

फिल्म इंडस्ट्री को नुकसान :

देश में सिनेमाघरों के बंद होने से फिल्म इंडस्ट्री को नुकसान उठाना पड़ रहा है। कई बड़ी फिल्मों की रिलीज़ खटाई में पड़ गई है। कई बड़ी फिल्मों को थियेटर्स बंद होने से नुकसान उठाना पड़ा रहा है। मेकर्स से लेकर कलाकारों, सिनेमाघर मालिकों की लंबी चेन इस दौर में बड़े तौर पर प्रभावित हुई है। हालांकि मेकर्स टीज़र्स, प्रमोशंस के जरिए अभी भी मोर्चा संभाले हुए हैं भले ही बाजार बंद हो।

फिल्म समीक्षकों के अनुसार 'पूरे भारत में सिनेमाघर बंद होने से मालिकों को प्रति सप्ताह लगभग 40-50 करोड़ रुपयों तक का लॉस होगा। एक अन्य समीक्षक कोमल नाहटा ने भी कोरोना वायरस से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को तकरीबन 800 करोड़ रुपये तक के नुकसान का अनुमान लगाया है।

लॉकडाउन में मदद :

देखने में आया है कि घरों में रहने की पीएम की अपील के बावजूद लोग सड़कों पर नज़र आ ही रहे हैं। इस बारे में मोबाइल यूज़र अरुण आर्य की राय है कि “मोदीजी को लोगों के मोबाइल अकाउंट में डाटा फ्री करवा देना चाहिए। क्योंकि दिन भर घर में डेढ़-दो जीबी डाटा बहुत कम है। लोगों के पास यदि पर्याप्त डाटा होगा तो वे सड़कों पर नहीं निकलेंगे जिससे टोटल लॉकडाउन में भी मदद मिलेगी।”

आदित्य राजपूत कहते हैं कि “लॉकडाउन के दौरान विपदा की इस घड़ी में घरों में कैद मजबूर उपभोक्ताओं से महंगे रिचार्ज से कमाई करने और विज्ञापन पर खर्च के बजाए मोबाइल कंपनियों को मुफ्त पब्लिक कम्युनिकेशन में योगदान देना चाहिए।”

एक तरफ लाशों का अंबार लग रहा हो, दुःख भरी खबरें आ रहीं हों ऐसे में दूसरी तरफ मुनाफे के लिए उत्पादों का विज्ञापनों के जरिए कारोबारी प्रचार समझ से परे है वो भी तब जब बाजार ही बंद हों और सड़कों-गलियों पर सन्नाटा पसरा हो! आपकी क्या राय है?

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