gurjeet kaur
"खैबर दर्रा" पेशावर से 11 मील दूर बाब - ऐ - खैबर से शुरू होता है। ऐतिहासिक महत्त्व रखने वाला यह दर्रा पकिस्तान और अफगानिस्तान की सीमा पर तोरखम में समाप्त होता है। यह अफगानिस्तान की राजधानी काबुल को पाकिस्तान के पेशावर से जोड़ने का काम करता है।
खैबर दर्रा की शुरुआत बाब- ऐ-खैबर से होती हैं। यहाँ अब एक बड़ा प्रवेश द्वार है। इसका निर्माण पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति अयूब खान ने करवाया था। इसे बनाने में 2 साल का समय लगा। इस प्रवेश द्वार पर उन सभी शासकों और आक्रमणकारियों का नाम लिखा गया है जिन्होंने इस दर्रे का उपयोग किया था।
यह दर्रा डेढ़ हजार फ़ीट ऊंची पहाड़ी चट्टानों से घिरा हुआ है। इस दर्रे के आसपास कई गुफाएं भी हैं। इसका सबसे खतरनाक इलाका अली मस्जिद का है। यहां दर्रा अत्यंत संकरा हो जाता है।
खैबर दर्रा ऐतिहासिक रूप से भारतीय उपमहाद्वीप पर आक्रमण का प्रवेश द्वार रहा है। यह दर्रा रणनीतिक और ऐतिहासिक महत्व का है। इसके दर्रे से फारसियों, यूनानियों, मुगलों और अफगानों के साथ-साथ ब्रिटिश भी गुजरे। इन सभी का उद्देश्य अफगान सीमा को नियंत्रित करना था।
5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में फारस के डेरियस प्रथम ने काबुल पर विजय प्राप्त करने के बाद खैबर दर्रे से होते हुए सिंधु नदी तक मार्च किया। दो शताब्दियों के बाद, सिकंदर के सेनापति हेफेस्टियन और पेर्डिकस ने दर्रे का उपयोग किया था हालांकि, उन्होंने बाद में भारत में प्रवेश के लिए अपना रास्ता बदल लिया था।
इस दर्रे पर लगभग सभी शासकों और आक्रमणकारियों को अफरीदी कबाइली का सामना करना पड़ा। यहाँ तक की ब्रिटिश सेना को भी इनसे निपटने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी। जब ब्रिटिश सेना अफगानिस्तान पर चढ़ाई करने निकली थी तो अफरीदी कबाइली को 1 लाख से अधिक रुपए टैक्स के रूप में देने पड़े थे ताकि यह दर्रा खुला रहे।
ऐतिहासिक महत्त्व के इस दर्रे पर साल 1961 में ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ ने यात्रा की थी। उनके साथ प्रिंस फिलिप भी खैबर दर्रे का दौरा करने आए थे।
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