आखिरकार, 27 साल बाद महिला आरक्षण विधेयक लोकसभा में पारित हो गया।
454 सदस्यों द्वारा विधेयक का समर्थन किया गया वही, दो सदस्यों ने इसका विरोध किया।
रंगनाथ मिश्रा आयोग 2008 की सिफारिशों पर आधारित है यह विधेयक।
2029 के आम चुनावों में हो सकता है इसका इस्तेमाल।
राज एक्सप्रेस। आखिरकार, 27 साल बाद महिला आरक्षण विधेयक लोकसभा में पारित हो ही गया। लोकसभा के 454 सदस्यों द्वारा विधेयक का समर्थन किया गया वही, केवल दो सदस्यों ने विधेयक का विरोध किया था। विधेयक को अब संसद के विशेष सत्र के शेष दो दिनों में पारित करने के लिए राज्यसभा में रखा जाएगा और इसके लिए आधे राज्यों की मंजूरी की आवश्यकता हो सकती है,लेकिन ऐतिहासिक कहा जाने वाला यह बिल आखिर है क्या ? जो भारत की महिलाओं की वर्तमान स्थिति और राजनीति को एक नए सिरे से बदल सकता है। आइये आज इस विधेयक को पूरी तरह समझते है...।
संविधान 108वां संशोधन विधेयक, राज्य विधान सभाओं और संसद में महिलाओं के लिए सीटों की कुल संख्या का एक तिहाई (33%) आरक्षित करने का प्रावधान करता है। विधेयक में 33% कोटा के भीतर एससी, एसटी और एंग्लो-इंडियन के लिए उप-आरक्षण का प्रस्ताव है। आरक्षित सीटें राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में रोटेशन द्वारा आवंटित की जा सकती हैं। विधेयक में कहा गया है कि संशोधन अधिनियम शुरू होने के 15 साल बाद महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण समाप्त हो जाएगा।
राजनीति में महिलाओं के लिए आरक्षण का मुद्दा भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़ा है।1931 में, ब्रिटिश प्रधान मंत्री को लिखे अपने पत्र में, महिला नेताओं बेगम शाह नवाज़ और सरोजिनी नायडू द्वारा नए संविधान में महिलाओं की स्थिति पर संयुक्त रूप से जारी आधिकारिक ज्ञापन प्रस्तुत किया गया। महिला आरक्षण विधेयक पहली बार 1996 में 81वें संशोधन विधेयक के रूप में लोकसभा में पेश किया गया था। इस विधेयक में लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण प्रदान किया गया।
विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजा गया था, लेकिन लोकसभा भंग होने के बाद विधेयक रद्द हो गया। 1998 में, 12वीं लोकसभा में इस विधेयक को दोबारा पेश किया गया।इस बार भी कोई समर्थन नहीं मिलने के बाद यह बिल रद्द हो गया। यह विधेयक 1999, 2002 और 2003 में फिर से पेश किया गया, लेकिन पिछली बार की तरह इसका भी वही हस्र हुआ।2008 में यह बिल राज्यसभा में पेश किया गया और 2010 में पारित हो गया। हालाँकि, इसे निचले सदन में कभी पेश नहीं किया गया और सदन के भंग होने के साथ ही यह ख़त्म हो गया।
महिला आरक्षण विधेयक, "संविधान पर संयुक्त समिति की रिपोर्ट (एक सौ आठवां संशोधन) विधेयक, 2008" की सिफारिशों पर आधारित है। इस समिति को रंगनाथ मिश्रा आयोग के नाम से भी जाना जाता है। इस विधेयक का उद्देश्य था लोकसभा और राज्य विधान सभाओं में महिलाओं के लिए कुल सीटों में से एक तिहाई आरक्षण प्रदान करने के लिए भारतीय संविधान में संशोधन की सिफारिश करना। इसमें पहले दौर और उसके बाद के दौर में आरक्षित किए जाने वाले निर्वाचन क्षेत्रों के निर्धारण के तंत्र पर चर्चा की गई है। यह रिपोर्ट आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों का चक्रानुक्रम, आरक्षण की अवधि, परिसीमन, सीट आवंटन पद्धति, आदि जैसे सभी अहम मुद्दों अपनी राय रखती है।
1993 में स्थानीय निकायों में संविधान संशोधन विधेयक 72 और 73 को पेश कर ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए सभी सीटों और अध्यक्ष पदों का एक तिहाई (33%) आरक्षित किया गया है। महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड और केरल जैसे कई राज्यों ने स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 50% आरक्षण सुनिश्चित करने के लिए कानूनी प्रावधान किए हैं।विभिन्न सर्वेक्षणों से पता चलता है कि पंचायती राज की महिला प्रतिनिधियों ने गांवों में समाज के विकास और समग्र कल्याण में सराहनीय काम किया है और उनमें से कई निश्चित रूप से बड़े पैमाने पर काम करना चाहती हैं, हालांकि, उन्हें राजनीतिक संरचना में विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
भारत में महिला आरक्षण विधेयक का भारतीय राजनीति पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ेगा। इस विधेयक के माध्यम से राजनीतिक प्रतिनिधित्व में लैंगिक असमानता को संबोधित करते हुए राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाएगा जिससे महिलाओं को निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में एक मजबूत आवाज मिलेगी। यही नहीं, महिलाएं विभिन्न जीवन अनुभवों और दृष्टिकोणों को सामने लाती हैं, जिससे संभावित रूप से अधिक व्यापक और समावेशी नीतियां बनाई जा सकेंगी। इस ऐतिहासिक विधेयक से भारत की राजनीति जो, बहुत हद तक पितृसत्तात्मक थी वह धीरे-धीरे समानता की और बढ़ेगी जिससे महिलाएं प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और मुख्यमंत्री के पद पर बैठ सकेंगी।
वर्तमान में, केवल 14 प्रतिशत यानि 78 लोकसभा सांसद महिलाएँ हैं, जो की उनकी जनसँख्या के अनुपात में बेहद कम है। हालाँकि पहले लोकसभा चुनाव के बाद से महिला सांसदों की संख्या में वृद्धि हुई है, लेकिन यह कई अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है। आंकड़ों के अनुसार, रवांडा में 61 प्रतिशत, दक्षिण अफ्रीका में 43 प्रतिशत और बांग्लादेश में 21प्रतिशत महिलाएं सांसद है।
अंतर-संसदीय संघ की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व के मामले में भारत 193 देशों में से 144वें स्थान पर है। विभिन्न अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टों के अनुसार, लिंग अंतर की व्यापकता और पारंपरिक रूप से पुरुष प्रधान संस्थानों और सामाजिक स्तरों में सीमित महिला भागीदारी के कारण भारत में विकास गंभीर रूप से बाधित हो रहा है जिसके कारण भारत को आज इस विधेयक की सख्त जरुरत है।
कुछ लोग महिला आरक्षण बिल का पुरजोर विरोध भी कर रहे हैं। उनका तर्क है कि महिलाओं को आरक्षण प्रदान करना संविधान में निहित समानता के सिद्धांत के विपरीत है। महिलाएँ जाति समूहों की तरह एक समरूप समूह नहीं बनाती हैं, इसलिए महिला आरक्षण जाति-आधारित आरक्षण के समान नहीं है और दोनों के लिए एक ही तर्क नहीं दिया जा सकता है। कुछ लोगों का यह भी तर्क है कि संसद में सीटों के आरक्षण से मतदाताओं की पसंद महिला उम्मीदवारों तक सीमित हो जाएगी।
वही, कुछ का तर्क यह भी है कि आरक्षण से केवल विशेषाधिकार प्राप्त महिलाओं को लाभ हो सकता है, जिससे हाशिए पर मौजूद और वंचित समूहों की स्थिति और खराब हो जाएगी। आरक्षण से "प्रॉक्सी संस्कृति" या ऐसी स्थिति पैदा हो सकती है जहां निर्वाचित महिलाओं के पास वास्तविक शक्ति की कमी होती है और वे पुरुष निर्णय निर्माताओं की ओर से कार्य करती हैं।
इस विधेयक को लेकर कई सवाल भी है। दोनों सदनों में पास होने और राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षर के बावजूद कार्यान्वयन में दिक्कत प्रदान करेगा। सबसे बड़ा और अहम् सवाल तो यह है कि महिला सीटों का आरक्षण किस आधार पर किया जायगा, क्योंकि महिलाएं कोई जाती या समूह नहीं जिसके जनसँख्या के आधार पर सीट का बटवारा किया जाए। दूसरा अहम् सवाल यह है की क्या इस विधयेक से पंचायती राज की "सरपंच पति" जैसी चीज़ो से छुटकारा मिलेगा। एक आखरी सवाल यह है कि अगर परिसीमन के बाद जातिगत समीकरण और जातिगत जनगणना किस तरह कार्य में लाए जाएंगे।
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