इस समय देश के कई राज्यों में चुनाव का माहौल है। जनप्रतिनिधि बनने के लिए प्रत्याशियों की मेहनत साफ दिखती है। प्रमुख राजनीतिक दलों की ओर प्रत्याशी का अधिकार मिलते ही नेता चुनाव जीतने के लिए कठोर परिश्रम में जुट गए हैं। ऐसा परिश्रम सांसद या विधायक बन जाने के बाद भले ही कोई नेता कभी न करे पर चुनाव जीतने के लिए उनका परिश्रम देखते बनता है। राजनीतिक दलों की ओर से प्रत्याशियों के रूप में नामित लोग, संबंधीसमर्थक, उनके माननीय बन जाने से अपने हितस्वार्थ साधने की जुगत में बैठे देशभर के सरकारी एवं गैर-सरकारी कर्मचारी और व्यापारी लोकतंत्र के लिए मतदान नहीं करते, अपितु ये सभी लोग अपने-अपने हितों-स्वार्थों के रक्षार्थ ही मतदान प्रक्रिया का हिस्सा बनते हैं।
इसी गणतांत्रिक भारत में कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें उनकी मानवीय योग्यता व नैतिकता के लिए कभी भी सराहना नहीं मिली। उनके नैतिक और मौलिक विचारों का मूल्यांकन व सम्मान नहीं किया गया। यदि कभी ऐसे लोगों के गहन दृष्टिकोण से भारत के गणराज्य और गणराज्य के लिए चुनावी प्रक्रिया का मूल्यांकन हो तो स्पष्ट हो जाएगा कि लोकतंत्र के नाम पर होने वाले चुनाव मात्र अनुपयोगी प्रक्रिया बन चुके हैं। अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो अपनी स्थापना के सात दशक बाद भारत के गणराज्य की परिभाषा और लोकतांत्रिक व्यवहार में समय, काल, परिस्थिति के अनुसार व्यापक परिवर्तन आ चुका होता। इस हिसाब से भारतीय गणराज्य के मुख्य चार स्तंभों कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और प्रेस में सर्वाधिक परिवर्तन होने चाहिए थे।
इसी अनुरूप लोक-व्यवहार में भी बदलाव हो सकता था। ये परिवर्तन लोगों के जीवन-स्तर को समुचित बनाने के लिए होने चाहिए थे, लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से, कर्ताधर्ताओं की अयोग्यता, अदूरदर्शिता के कारण अथवा जानबूझ कर भारतीय गणराज्य को लोगों के जीवन-स्तर के अनुसार परिवर्तनकारी नहीं बनाया जा सका। शैक्षिक विवेक, नैतिक-मौलिक समझ और आत्मानुसंधान के बल पर लोकतंत्र के वाहक अधिसंय लोग यदि चाहते तो लोकतांत्रिक धारणा, रीति, नीति, प्रक्रिया एवं प्रसारण को अपनी इच्छा के अनुरूप पूरी तरह बदलने का अभियान चला सकते थे। लोग चाहते तो चुनावी नौटंकियों से भारतीय गणराज्य को मुक्त भी कर सकते थे। चुनावी नौटंकियों में मूर्ख, अयोग्य और अविवेकी नेताओं के जनप्रतिनिधि बनने के रास्ते बंद कर सकते थे। लेकिन ऐसा न हो सका।
जो जनता गणतंत्र चलाने का नेतृत्व कर सकती थी, वह दशकों से अयोग्य और गणतंत्र विरोधी नेताओं का आत्मघाती नेतृत्व स्वीकार करती रही। इसी की परिणति है जो भारत के कई राजनीतिक दल और उनके प्रमुख नेता वंशवाद की उपज बन गए। ऐसे नेताओं के बच्चे बचपन से लेकर युवावस्था तक जीवन के भोग-विलास में डूबे रहे। भोग-विलास से मन भर गया तो अपने-अपने दलों के नेता भी बनते गए। इनके पास न तो अपने जीवन का कोई उद्देश्य था व न ही देश-समाज के लोगों की सेवा व कल्याण का भाव। अपने-अपने राजनीतिक वंश को आगे बढ़ाने के लिए ही इन लोगों ने भारतीय गणराज्य के चुनावों को राजनीति की प्रयोगस्थली बना दिया, जिसके नकारात्मक परिणामों से देश की आम जनता आज तक नहीं उबर पाई है।
किसी दल में यदि एकाधिक नेतागण लोक कल्याण के प्रति समर्पित होते भी हैं तो उन्हें भ्रष्टाचार और व्यक्तिगत कल्याण में रुचि लेने वाले दूसरे नेताओं व कार्यकर्ताओं का विरोध झेलना पड़ता है। विभिन्न दलों से जुड़े नेता अपने-अपने दल की लोकप्रियता में गिरावट आते ही दल बदल की कुसंस्कृति तक अपनाने से नहीं हिचकते। इस एकमात्र उदाहरण से समझा जा सकता है कि राजनीतिक दलों की ओर से चुनाव में प्रत्याशी बनने के लिए लोग न केवल अपने पारंपरिक राजनीतिक दल से विश्वासघात करते हैं अपितु गणतंत्र के चुनावी वातावरण को भी खराब करते हैं। यह पहली बार नहीं है कि चुनाव की तिथियों की घोषणा के बाद नेता दल-बदल के कार्यक्रम कर रहे हैं। यह चलन दशकों पूर्व आरंभ हो चुका था। चुनावी समर में देश के नागरिकों को कुंठित करने वाला यह अकेला उदाहरण नहीं है।
एक ऐसा देश जो पिछले पांच वर्षों से 7.5 प्रतिशत की वार्षिक जीडीपी व आम जनता के लिए सुगम एक स्थिर महंगाई दर के साथ आगे बढ़ रहा है और इस समयावधि से पूर्व आर्थिक रूप में असंतुलित एवं महंगाई से ग्रस्त रहा है, अभी इस स्थिति में नहीं है कि चुनाव खर्चीला बना सके। आम जनता भी यही सोचती है कि आखिर भारत को पूर्ण विकसित होने तक इतने महंगे चुनाव की जरूरत ही क्यों है? या यह गणतांत्रिक उद्देश्यों, मान्यताओं और आदर्शों के प्रतिकूल नहीं? देश की जनता बार-बार होने वाले चुनावों, विभिन्न तरह के चुनावी चक्रों और लोकतंत्र के नाम पर चुनावी कार्यक्रमों की तैयारियों व इन तैयारियों पर होने वाले विशाल व्यय से बुरी तरह विचलित है। यदि लोकतंत्र जनता द्वारा जनता के लिए की अवधारणा पर आधारित है तो जनता तो अपने स्थिर विवेक और निष्ठावान चिंतन से, आम चुनाव हों या कोई भी अन्य चुनाव, सभी के विरोध में खड़ी है। फिर चुनाव को लोकतंत्र का पर्व बनाने और इसमें बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने के अनेक प्रेरणाप्रद कार्यक्रम क्यों बनाए जा रहे हैं? या यह सब कुछ चुनाव में उम्मीदवार बनकर खड़े कुछ लोगों, उनके समर्थकों के लिए हो रहा है?
यदि भारत में आम चुनाव को गणतंत्र का महापर्व कहा जाता है तो इसके निहितार्थ उस दशा में क्या हो सकते हैं जब ज्यादातर लोगों के भीतर चुनाव के संबंध में अलगाव और घृणा पैदा हो रही है? स्पष्ट है कि जनता के साथ लोकतांत्रिक चुनाव के नाम पर बहुत बड़ा धोखा किया जाता रहा है और जनता भय और दबाव में बलात इस चुनाव का हिस्सा बनती रही है। चुनाव के प्रति जनता जिन कारणों से विमुख रहती आई है और जिस कारण से शतप्रतिशत मतदान का लक्ष्य अब भी स्वप्न बना हुआ है, उनमें से एक व प्रमुख कारण है राजनीतिक दलों के जनप्रतिनिधि। कितनी बार यह चर्चा हो चुकी है कि राजनीतिक दलों को समुचित और साफ छवि वाले जनप्रतिनिधि ही चुनाव में उतारने चाहिए। परिणामस्वरूप गणतंत्र की वास्तविक भावना के अनुरूप देश में यथोचित कार्य नहीं हो सके।
भविष्य में राजनीतिक दल और चुनाव आयोग मिलकर यह प्रयास कर सकते हैं कि चुनाव केवल दलों के होंगे। केवल पार्टियों के प्रतीक चिह्न वोटिंग मशीन में होंगे। लोगों को किसी भी स्तर के चुनाव में सिर्फ पार्टी को चुनना होगा और जब पार्टी बहुमत प्राप्त करेगी तो उस पर जनता और कानून दोनों का दबाव हो कि वह योग्य लोगों को ही क्षेत्रवार जनप्रतिनिधि बनाए। संभवत: इस तरह का चुनावी प्रयोग लोगों के मन से खत्म हो रही गणतांत्रिक निष्ठा को बचा सके। बहरहाल, लोकतंत्र की जिस परिकल्पना को हम साकार करना चाहते हैं, वह तभी पूरी होगी, जब देश का हर आम आदमी राजनीतिक दलों और चुनी जाने वाली सरकार से जवाब मांगने में सक्षम होगा। इसी से लोकतंत्र बेहतर होगा। वरना तब तक चुनाव सिर्फ धन की बर्बादी ही रहेगा।
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