राज एक्सप्रेस। दशकों पुराने अयोध्या विवाद मामले में फैसले की घड़ी नजदीक आ गई। उम्मीद है कि सर्वोच्च न्यायालय नवंबर के मध्य तक फैसला सुना देगा। अब जबकि अदालत का फैसला आने में कुछ दिन ही शेष हैं, ऐसे में आवश्यक है कि देश धैर्य का परिचय दे। फैसला जो भी आए उसे दोनों पक्ष स्वीकार करें। किसी तरह का उन्माद या फिर हिंसा देश की गंगा-जमुनी तहजीब को नष्ट करेगी और कोर्ट का विश्वास भी डिगेगा।
दशकों पुराने अयोध्या विवाद मामले में फैसले की घड़ी नजदीक आ गई। मध्यस्थता के जरिए विवाद सुलझाने की सभी कोशिशें विफल होने के बाद जिस तरह सर्वोच्च अदालत ने सभी पक्षकारों को नियत समय में पक्ष प्रस्तुत करने को कहा और लगातार 40 दिन तक सुनवाई की उसी का प्रतिफल है कि दशकों पुराना विवाद अब सुलझने के कगार पर है। उम्मीद है कि, सर्वोच्च न्यायालय नवंबर के मध्य तक फैसला सुना देगा। गौरतलब है कि इस मसले की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, जस्टिस एसए बोबडे, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस अब्दुल नजीर की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने की है। संविधान पीठ ने मध्यस्थता पैनल की रिपोर्ट देखने के बाद रोजाना सुनवाई का निर्णय लिया। गौरतलब है कि अदालत ने अयोध्या विवाद को अदालत से बाहर मध्यस्थता के जरिए सुलझाने को कहा था। इसके लिए तीन मध्यस्थ नियुक्त किए, जिनमें जस्टिस एफएम इब्राहिम कलीफुल्ला मध्यस्थता समूह के अध्यक्ष थे। उनके अलावा दो अन्य सदस्यों में आध्यात्मिक गुरू श्री श्री रविशंकर और वरिष्ठ वकील एवं मध्यस्थता संबंधी मामलों के विशेषज्ञ श्रीराम पंचू शामिल थे।
तब अदालत ने मध्यस्थता समूह को आठ सप्ताह का वक्त देते हुए चार सप्ताह के दरम्यान प्रगति रिपोर्ट दाखिल करने को कहा था। मध्यस्थता पैनल के अनुरोध पर सर्वोच्च अदालत ने 15 अगस्त तक समय बढ़ा दिया, लेकिन इसी बीच मुख्य मुकदमे के पक्षकार गोपाल सिंह विशारद ने नौ जुलाई को सर्वोच्च अदालत में अर्जी दाखिल कर कहा कि, मध्यस्थता में कुछ ठोस प्रगति नहीं हुई और इससे विवाद का हल निकलने की उम्मीद नहीं है। इसको ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च अदालत ने मध्यस्था पैनल से रिपोर्ट मांगी। ऐसा नहीं है कि मध्यस्थता पैनल ने राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक रूप से अति संवेदनशील इस मसले पर सहमति बनाने की कोशिश नहीं की। उसने समाज के सभी वर्गो के जिम्मेदार लोगों से बातचीत की और हर संभावनओं को टटोलने का प्रयास किया। लेकिन नतीजे उत्साहजनक नहीं रहे।
लिहाजा मध्यस्थता पैनल ने अपनी रिपोर्ट सर्वोच्च अदालत को सौंप दी। फिर उसे देखने के बाद सर्वोच्च अदालत इस नतीजे पर पहुंचा कि मध्यस्थता प्रक्रिया के जरिए विवाद का हल संभव नहीं है। ऐसे में उसके पास सुनवाई के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचा। हालांकि यह पहले से अनुमान था कि इस मसले का हल मध्यस्थता के जरिए संभव नहीं है। इसलिए कि मुस्लिम पक्षकारों द्वारा इसका लगातार विरोध जताया गया। जमीयत-ए-उलेमा हिंद ने अदालत के मध्यस्थता के सुझाव को सिरे से खारिज कर दिया। इसी तरह बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक जफरयाब जिलानी ने कहा कि वे अदालत के बाहर समझौते को तैयार नहीं हैं। उधर, हिंदू संगठनों ने बातचीत का तो स्वागत किया लेकिन उनका भी स्पष्ट मानना था कि, चूंकि पुरूषोत्तम भगवान श्रीराम का जन्म अयोध्या में हुआ लिहाजा जमीन भी रामलला की ही है। ऐसे में समझौते का कोई मतलब नहीं है। याद होगा जब इस मसले पर 30 सितंबर, 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला आया तब भी दोनों पक्षों के बीच एक बेहतरीन नतीजे पर पहुंचने की उम्मीद थी। लेकिन कुछ सियासी दलों और मजहबी संगठनों ने ऐसा नहीं होने दिया।
मध्यस्थता पैनल की लाख कोशिश के बाद भी कोई नतीजा नहीं निकला। उसका महत्वपूर्ण कारण सिर्फ यह था कि बाबरी मस्जिद के पैरोकार किसी भी कीमत पर रामजन्म भूमि पर अपना दावा छोड़ने को तैयार नहीं थे। जबकि वे इस तथ्य से भलीभांति अवगत रहे कि 30 सितंबर, 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा स्पष्ट कहा गया कि जहां रामलला की मूर्ति स्थापित है, वहां के मालिक रामलला ही हैं न कि कोई और। उसके बावजूद भी मुस्लिम पक्षकार इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने से बाज नहीं आए। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद हिंदू पक्षकारों में भी इस बात पर विमर्श तेज हो गया कि जब न्यायालय द्वारा विवादित जमीन रामलला का ही माना गया है तो फिर उसे तीन हिस्सों में बांटने का क्या औचित्य है। लिहाजा रामलला के पैरोकार भी सर्वोच्च अदालत पहुंच गए। चूंकि अब मामले की सुनवाई सर्वोच्च अदालत में पूरी हो गई है ऐसे में माना जा रहा है कि संविधान पीठ के अध्यक्ष मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई 17 नवंबर को सेवानिवृत हो रहे हैं उससे पहले फैसला आ जाएगा।
जानकारों का कहना है कि सर्वोच्च अदालत में सामान्य तौर पर जब किसी मामले की नियमित सुनवाई होती है तो फिर जो पीठ सुनवाई कर रही होती है वही पीठ सुनवाई करके फैसला सुनाती है। आमतौर पर बीच में सुनवाई पीठ को बदलने की परंपरा नहीं रही है। अच्छी बात यह रही कि अदालत इस मामले में लेटलतीफी को तैयार नहीं था अन्यथा मुस्लिम पक्षकारों ने मामले को उलझाने की भरपूर कोशिश की। लेकिन अदालत ने सुनिश्चित कर दिया कि अब किसी तरह का घालमेल नहीं चलेगा। उसने सुनवाई की शुरूआत मूल वाद संख्या तीन और पांच से की। गौरतलब है कि मूल वाद संख्या तीन निर्मोही अखाड़ा का मुकदमा है व मूल वाद संख्या पांच भगवान रामलला विराजमान का मुकदमा है। अदालत ने मामले के वकीलों और पक्षकारों से दो टूक कहा कि जिन साक्ष्यों और दलीलों को वे अदालत में पेश करने वाले हैं उसके बारे में पहले ही बता दें ताकि अदालत स्टॉफ उसे पेश करने के लिए तैयार रखे। दरअसल सर्वोच्च अदालत नहीं चाहता था कि साक्ष्यों को लेकर देरी हो।
यहां जानना आवश्यक है कि 30 सितंबर, 2010 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अयोध्या मामले को लेकर चल रहे मालिकाना हक से संबंधित चार वादों पर अपना निर्णय दिया था। निर्णय के अनुसार विवादित 2.77 एकड़ जमीन को तीन हिस्सों में बराबर-बराबर बांटी जानी थी। अर्थात एक तिहाई जमीन रामलला को दी जानी थी जिनका पैरोकारी हिंदू महासभा द्वारा किया जा रहा है। इसी तरह एक तिहाई जमीन सुन्नी वक्फ बोर्ड और इतनी ही जमीन निर्मोही अखाड़ा को दी जानी थी। इसी निर्णय को सर्वोच्च अदालत में चुनौती दी गई। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के तीनों न्यायाधीशों के फैसले पर नजर दौड़ाएं तो न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा ने फैसले में कहा था कि वह 12 वीं शताब्दी के राममंदिर को तोड़कर बनाया गया। न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल ने कहा कि वह किसी बड़े हिंदू धर्मस्थल को तोड़कर बनाया गया। न्यायमूर्ति खान ने भी कहा कि वह किसी पुराने ढांचे पर बना था। इन विद्वान न्यायाधीशों के फैसले से स्पष्ट हो गया था कि वहां राममंदिर ही था जिसे तोड़कर मस्जिद का स्वरूप दिया गया। इन विद्वान न्यायाधीशों के अलावा 2003 में विवादित स्थान की खुदाई से भी कई सामग्रियां प्राप्त हुई जिसे अदालत के समक्ष रखा गया।
ध्यान देना होगा कि विवादित ढांचा गिराए जाने के बाद आज भी भगवान श्रीराम कार सेवकों द्वारा तिरपाल के अस्थायी मंदिर में रह रहे हैं। यह तिरपाल का मंदिर उसी स्थान पर है जहां विध्वंस से पहले रामलला विद्यमान थे। अब अदालत का फैसला आने में कुछ दिन ही शेष हैं। ऐसे में आवश्यक है कि, देश धैर्य का परिचय दे। फैसला जो भी आए उसे दोनों पक्ष स्वीकार करें।
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