नागरिकों की इच्छा शक्ति Social Media
राज ख़ास

नागरिकों की इच्छा शक्ति जागृत की जाए

लोकतंत्र में लोकतंत्र के नाम पर की जा रही राजनीति में विकृत परंपराओं का चलन आम होता जा रहा है। अधिकतम जनकल्याण के वादे और इरादे व्यक्त ।

Author : राजेंद्र बज

राज एक्सप्रेस। लोकतंत्र में लोकतंत्र के नाम पर की जा रही राजनीति में विकृत परंपराओं का चलन आम होता जा रहा है। अधिकतम जनकल्याण के वादे और इरादे व्यक्त करते हुए नागरिकों को प्रकारांतर से याचक भाव में लाया जा रहा है। विभिन्न राजनीतिक दल एवं उसके कर्णधार जनमत का बहुमत पाने हेतु खैराती योजनाओं का भरपूर सहारा लेते हुए देखे जा सकते हैं। इन योजनाओं के माध्यम से नागरिकों को एक प्रकार से अकर्मण्यता का पाठ ही पढ़ाया जा रहा है। विकसित राष्ट्र की परिकल्पना को साकार करने हेतु नागरिकों को अदम्य इच्छाशक्ति के साथ आत्मविश्वास से भरपूर होना चाहिए। दुर्भाग्य से इस दिशा में गंभीर प्रयास नहीं हो रहे हैं। येन-केन-प्रकारेण सत्ता के प्रति आसक्ति भाव, देश-प्रदेश के नीति-निर्धारकों को यथार्थवादी दृष्टिकोण आत्मसात करने के प्रति प्रेरित नहीं करता। बात-बात पर नागरिकों का शासन-प्रशासन पर निर्भर हो जाना बहुत चौंकाता है।

यह निश्चित है कि, आम नागरिकों से जुड़ी हुई समस्त समस्याओं का समाधान शासन स्तर पर ही हो सके, यह संभव नहीं हो पाता। दरअसल नागरिकों को जहां तक संभव हो अपने स्तर पर ही अपनी समस्याओं का समाधान करने की मानसिकता रखना होगी। दरअसल नागरिकों में आत्मनिर्भरता के भाव विकसित हो सके, ऐसे अनुकूल वातावरण का सृजन करने में शासन-प्रशासन का समर्पित हो जाना समय की मांग है। जब तक आम नागरिक स्वाभिमान की भावना से लबरेज नहीं होंगे, तब तक उनमें राष्ट्र के प्रति समर्पण की चेतना जागृत नहीं हो सकेगी। जरूरत इस बात की है कि, नागरिकों की शासन पर निर्भरता को कम किए जाने का प्रयास होना चाहिए। इसके साथ-साथ नागरिकों के मान-सम्मान और स्वाभिमान को बनाए रखने हेतु सामाजिक नेतृत्व को अपेक्षित सम्मान देने के भाव भी देश-प्रदेश के कर्णधारों में होने चाहिए। राजनीतिक नेतृत्व द्वारा नागरिकों के सर्वांगीण विकास के अनुरूप वातावरण देने का प्रयास किया जाना चाहिए।

वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में यह बड़ा अजीब-सा लगता है कि, घटना-दुर्घटना तथा प्राकृतिक प्रकोप की आर्थिक क्षतिपूर्ति हेतु नागरिकों में शासन पर निर्भरता के भाव होते हैं। दरअसल ऐसी होनी-अनहोनी की स्थिति में यह एकल तथा सकल समाज की संयुक्त जवाबदारी होनी चाहिए। जिससे कि, पीड़ित पक्ष को किसी न किसी हद तक आर्थिक संबल प्राप्त हो सके। दरअसल राजनीति में राजनीति का दुष्चक्र इतना गहरा गया है कि, यहां हर बात-बात पर अपने-अपने राजनीतिक पूर्वाग्रह मानवीय संवेदनाओं पर भारी पड़ जाते हैं। आखिर क्यों कर ऐसी सोच विकसित नहीं की गई जिससे कि, मानव का मानव से मानवीयता का नाता आबद्ध हो सके। यही कारण है कि, दिनोंदिन आम नागरिकों की शासन पर निर्भरता निरंतर विस्तार पाती जा रही है। यह सिलसिला आखिर किस मुकाम पर जाकर ठहरेगा? इसका अनुमान संपूर्ण रूप से लगाया नहीं जा सकता। वास्तव में यही सिलसिला चलता रहा तो कालांतर में शायद नागरिकों को जीवनयापन के लिए भी शासन पर पूर्ण रूप से निर्भर होना पड़े।

कल्पना की जा सकती है कि, यथास्थितिवाद के चलते कैसी-कैसी परिस्थितियां निर्मित हो सकती हैं ? दरअसल ऐसे हालात को बदला जाना देश-प्रदेश के भविष्य निर्माण के संदर्भ में अत्यंत आवश्यक प्रतीत होता है। दरअसल शासन की संवेदनशीलता नकारात्मक परिस्थितियां निर्मित करने में परोक्ष रूप से सहायक सिद्ध हो रही हैं। ऐसी स्थिति में दूरगामी नकारात्मक परिणामों की संभावनाओं के मद्देनजर शासन-प्रशासन को यथार्थवादी दृष्टिकोण आत्मसात करने की जरूरत है। ऐसा होने पर ही प्रतिकूल परिस्थितियों में भी प्रबल पुरुषार्थ के माध्यम से आशातीत सफलता प्राप्त करने के भाव नागरिकों में स्थापित किए जा सकते हैं। नागरिकों में नागरिकता के भाव स्थापित करने की दिशा में व्यावहारिक कदम उठाने होंगे। बिना इसके विकसित राष्ट्र की परिकल्पना करना दिवास्वप्न ही होगा। कुल मिलाकर राजनीति का विकृत स्वरूप एकल तथा सामूहिक रूप से समाज को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में प्रेरित नहीं करता। यही मूल समस्या की जड़ है, जिसे दूर करने पर ही व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र के स्वर्णिम भविष्य को सुनिश्चित किया जा सकता है।

खैर, आज नहीं तो कल लेकिन इस संदर्भ में संज्ञान अवश्य लेना होगा। राजनीतिक नेतृत्व द्वारा शासन-प्रशासन संचालित करते हुए, जिस शैली को आत्मसात किया जा रहा है, उसे दूर तक अपनाया जाना शायद संभव नहीं होगा। ऐसी स्थिति में विभिन्न समस्याओं के जाल का जंजाल दातारी भाव के प्रति पुनर्विचार की जरूरत पर बल देगा। लेकिन ऐसा होने पर आशंका इस बात पर आकर ठहरती है कि, ऐसी स्थिति में नागरिकों के तीव्र आक्रोश का सामना करना पड़ सकता है। ऐसी विकट परिस्थितियों के निर्मित होने के पूर्व समय रहते राजनीतिक नेतृत्व को अपनी रीति-नीति और कार्यप्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन कर लेना चाहिए। कुल मिलाकर मुद्दे की बात यह है कि, राजनीतिक नेतृत्व शासन-प्रशासन के माध्यम से आम नागरिकों को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में सक्रिय हो। नागरिकों को प्रबल पुरुषार्थ के प्रति अभिप्रेरित किया जाए तथा उनका मनोबल बढ़ाने की दिशा में अनुकूल वातावरण का भी सृजन किया जाए। ऐसा होने पर ही हम यह दावे के साथ कह सकेंगे कि हम सुनहरे कल की ओर बढ़ रहे हैं।

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