स्त्री-पुरुष अनुपात सुधारना होगा Social Media
राज ख़ास

स्त्री-पुरुष अनुपात सुधारना होगा

पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की संख्या में संतोषजनक संतुलन नहीं बन पा रहा है, तो इसकी जवाबदेही किसकी बनती है? क्या सच में बदल रही है देश की स्थिति।

Author : राज एक्सप्रेस

राज एक्सप्रेस। देश के महापंजीयक कार्यालय की ओर से जारी-2016 की नागरिक पंजीकरण प्रणाली के मुताबिक दक्षिण भारतीय राज्यों में स्त्री-पुरुष के बीच अनुपात की खाई चौड़ी हो रही है। अगर पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की संख्या में संतोषजनक संतुलन नहीं बन पा रहा है, तो इसकी जवाबदेही किसकी बनती है? एक समय दक्षिण भारत के राज्यों से सीख लेने की बात कही जाती रही है, मगर वहां भी अब हालात बिगड़ रहे हैं।

देश में स्त्री-पुरुष अनुपात को लेकर लंबे समय से चिंता जताई जाती रही है। अब तक इस मसले पर अमूमन उत्तर भारत के राज्यों को कठघरे में खड़ा पाया जाता रहा है। दक्षिण भारत के राज्यों में स्त्री-पुरुष अनुपात का आंकड़ा काफी अच्छी स्थिति में रहा है। पर एक नए आंकड़े के मुताबिक कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों में उभरी तस्वीर चिंताजनक है। देश के महापंजीयक कार्यालय की ओर से जारी-2016 की नागरिक पंजीकरण प्रणाली के मुताबिक पिछले कुछ सालों के दौरान इन राज्यों में पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की संख्या में तेजी से गिरावट दर्ज की गई है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने देश में बढ़ रही इस असमानता पर चिंता जताई है। इस पर आधारित खबर का संज्ञान लेते हुए आयोग ने केंद्रीय महिला और बाल कल्याण विभाग के सचिव और सभी राज्यों के मुख्य सचिवों को कारण बताओ नोटिस जारी किया है। आयोग का यह सवाल सही है कि अगर दक्षिण के विकसित राज्यों में भी स्त्रियों की तादाद में कमी आ रही है तो फिर महिलाओं के कल्याण के लिए जारी योजनाओं पर अमल की क्या स्थिति है।

इसमें कोई संदेह नहीं कि, हाल के वर्षो में केंद्र और राज्य सरकारों ने बालिकाओं के संरक्षण के लिए सामाजिक चेतना विकसित करने के कई प्रयास किए हैं और इसके लिए अनेक योजनाएं लागू की गई हैं। ‘बेटी पढ़ाओ, बेटी बचाओ’ जैसे अभियान का मुख्य उद्देश्य यही है। लेकिन इसके बरक्स अगर पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की संख्या में संतोषजनक संतुलन नहीं बन पा रहा है, तो इसकी जवाबदेही किसकी बनती है? इस गहराती समस्या पर बात करते हुए उत्तर भारत के राज्यों को दक्षिण भारत के राज्यों से सीख लेने की बात कही जाती रही है, जहां स्त्री और पुरुष अनुपात न केवल संतोषजनक रहा है, बल्कि कई हिस्सों में पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों की संख्या कुछ ज्यादा भी दर्ज की गई थी। हालत यह है कि आंध्र प्रदेश में 2016 में प्रति एक हजार लड़कों के मुकाबले महज आठ सौ छह लड़कियों का जन्म दर्ज किया गया। यह आंकड़ा सबसे निम्न स्तर पर मौजूद राजस्थान के बराबर है। तमिलनाडु, तेलंगाना, कर्नाटक जैसे राज्यों में भी तस्वीर बहुत बेहतर नहीं है।

सवाल यह है कि पिछले कुछ सालों के दौरान आखिर क्या और किस तरह का बदलाव आया है, जिसमें अकेले केरल को छोड़ कर दक्षिण भारत के राज्यों में भी लड़कियों को जन्म देने और उनके संरक्षण के प्रति समाज का रुख इस कदर नकारात्मक हो गया? इस मसले पर सामाजिक कार्यकर्ताओं का मानना है कि पिछले कुछ सालों के दौरान दक्षिण के राज्यों में भी जिस तरह गर्भावस्था में लिंग जांच कराने की प्रवृत्ति है, वह बेहद चिंताजनक है। इसके लिए मुख्य रूप से इस तरह की जांच को आसान बनाने वाली आधुनिक मशीनों की उपलब्धता ही जिम्मेदार है। लेकिन आखिर क्या वजह है कि, जो समाज बेटियों के जीवन को लेकर जागरूक रहा है, वह मशीनों की आसान उपलब्धता के बाद सोच के स्तर पर इतना प्रतिगामी हो रहा है। क्या सरकार और प्रशासन का तंत्र इस कदर कमजोर है कि, वह गर्भावस्था में लिंग जांच करने वाले क्लिनिकों या फिर अस्पतालों पर लगाम लगाने में सक्षम नहीं है? जाहिर है, अब समाज में लैंगिक समानता की चेतना का विकास करने के साथ-साथ गर्भ में भ्रूण की जांच करने वालों के खिलाफ अगर तुरंत सख्ती नहीं की गई, तो आने वाले समय में तस्वीर और ज्यादा चिंता करने लायक हो जाए।

कहा जाता है कि, अपनी युवा जनसंख्या के बूते पर भारत के पास अगले तीन दशकों में तरक्की की कुलांचे भरने का मौका है। आज दुनिया के सबसे युवा देशों में शुमार किया जाने वाला भारत तीन दशक बाद युवा नहीं रहेगा। जनसंख्या उम्रदराज होनी शुरू होगी, तो उत्पादकता घटेगी। उत्पादकता घटेगी, तो अगले तीन दशकों में हुई तरक्की पर भी लगाम लगेगी और कुछ सालों के लिए एक ठहराव आ जाएगा। उस ठहराव को फिर गतिशील बनाना तब के हालात पर निर्भर होगा। फिलहाल तो सबसे बड़ी बात यह है कि आज देश को युवा ताकत का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करना चाहिए। यह तभी संभव है, जब इसमें सभी युवा योगदान दें। युवक भी, युवतियां भी और ऐसा तभी हो सकेगा जब युवतियों के सामने कोई डर न हो- वे निर्भय होकर काम कर सकें। समाज और देश की तरक्की के लिए फिलहाल सबसे बड़ी जरूरत महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों को रोकने की है। ऐसे अपराधों के लिए अनेक कारण गिनाए जा सकते हैं- समाज की पुरुषवादी सोच, महिलाओं को कमतर आंकना, महिलाओं का आत्मनिर्भर न होना, महिलाओं को दूसरे दर्जे का मानने की पुरातन सोच यह सूची काफी लंबी हो सकती है। लेकिन इसकी महत्वपूर्ण वजह जनसांख्यिकी भी हो सकती है। एक सर्वे में पाया गया है कि जिन समाजों और देशों में स्त्री-पुरुष अनुपात सही है, वहां महिलाओं की स्थिति सम्मानजनक होती है और उनके खिलाफ अपराध कम होते हैं। इसके विपरीत, पुरुषों की तुलना में स्त्रियों का कम होना महिलाओं के खिलाफ अपराधों की वजह है।

2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में प्रति हजार पुरुषों की तुलना में 940 महिलाएं हैं। 28 राज्यों व सात केंद्रशासित प्रदेशों में से 19 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में केरल (1084) पुड़ुचेरी (1038), तमिलनाडु (995), आंध्रप्रदेश (992), छत्तीसगढ़ (991), मणिपुर (987), मेघालय (986), ओडिशा (974), गोवा (968), कर्नाटक (968), उत्तराखंड (963), त्रिपुरा (961), असम (954), पश्चिम बंगाल (947), झारखंड (947), महाराष्ट्र (946) और लक्षद्वीप (946) में यह अनुपात राष्ट्रीय औसत 940 से बेहतर है। वहीं, 16 राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों नागालैंड (931), मध्यप्रदेश (930), राजस्थान (926), अरुणाचल प्रदेश (920), गुजरात (918), बिहार (916), उत्तर प्रदेश (908), पंजाब (893), सिक्किम (889), जम्मू-कश्मीर (883), अंडमान व निकोबार द्वीप समूह (878), हरियाणा (877), दिल्ली (866), चंडीगढ़ (818), दादरा व नागर हवेली (775) और दमन व दीव (618) में स्त्री-पुरुष अनुपात राष्ट्रीय औसत से कम है। 2001 की जनगणना में देश में स्त्री-पुरुष अनुपात 933-1000 था। यानी अगले 10 साल में प्रति हजार पुरुषों पर 7 स्त्रियां बढ़ीं। यह अच्छी खबर जरूर है, मगर अंतर अब भी काफी (60) है।

भारत में केवल केरल और पुडुचेरी में महिलाओं की संख्या पुरुषों से ज्यादा है। अगर पूरी दुनिया पर नजर डालें, तो कुल 118 देशों जिनमें जिम्बाब्वे, वियतनाम, वेनेजुएला, उजबेकिस्तान, उरुग्वे, यूक्रेन, टुवालु, तुर्कमेनिस्तान, थाईलैंड, तंजानिया, तजाकिस्तान, स्विट्जरलैंड, स्वीडन, स्वाजीलैंड, सूरीनाम, सर्बिया, सेनेगल, साओ तेत्मे एंड प्रिंसिप, सैन मैरिनो, सेंट मार्टिन, सेंट लुशिया, सेंट किट्स ऐंड नेर्विस, रवांडा जैसे देश हैं, वहां भी पुरुषों से ज्यादा महिलाएं हैं। ये देश सभी महाद्वीपों के हैं। विकसित और विकासशील, हर तरह के हैं। इनमें से ज्यादातर देशों में महिलाओं के खिलाफ भारत से कम अपराध होते हैं, क्योंकि वहां कन्याओं को बोझ नहीं माना जाता और कन्या भ्रूण हत्याएं नहीं होतीं। महिलाओं के प्रति आपराधिक नजरिया यहीं से शुरू होता है। ये सारे देश हमारे लिए उदाहरण हैं। हम इनसे कुछ सीखकर स्त्री-पुरुष के अनुपात को साधने में सफल हो सकते हैं।

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