‘कॉप-14’ सम्मेलन को संबोधित करते हुए नरेंद्र मोदी  Pankaj Baraiya - RE
राज ख़ास

पर्यावरण का बड़ा दुश्मन प्लास्टिक

पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र की ओर से आयोजित ‘कॉप-14’ सम्मेलन को संबोधित करते हुए नरेंद्र मोदी ने विश्व समुदाय से यह आग्रह किया कि अगर पूरी दुनिया के सामने खड़ी होने वाली गंभीर चुनौतियों को कम करना है

Author : राज एक्सप्रेस

राज एक्सप्रेस। एक बार उपयोग में आने वाले प्लास्टिक से छुटकारा हासिल करना होगा। दरअसल, यह तभी होगा, जब सरकार और समाज दोनों अपनी जिम्मेदारी समझेंगे। यह किसी से छिपा नहीं है कि रोजमर्रा के जीवन में प्लास्टिक के बढ़ते उपयोग ने आज किस तरह की मुसीबतें पैदा कर दी हैं। पर्यावरण को होने वाले नुकसान के अलावा कचरे के ढेर और नालों के जाम होने की वजह से खड़ी होने वाली परेशानियों का सामना लोगों को आमतौर पर करना पड़ता है। ऐसा नहीं है कि इस समस्या की विकरालता और इसके घातक असर के बारे में लोगों को जानकारी नहीं है। वे अपने स्तर पर इससे उपजी मुश्किलों को झेलते ही हैं, कई स्तरों पर चलने वाले जागरूकता अभियानों के रास्ते भी लोगों के पास इस तरह की जानकारियां पहुंचती हैं कि प्लास्टिक का अंधाधुंध उपयोग पर्यावरण से लेकर आम जनजीवन तक के लिए कितना घातक है। खासतौर पर एक बार उपयोग में आने वाले प्लास्टिक के सामान कचरे की शक्ल में प्रदूषण का पहाड़ खड़ा कर रहे हैं। इसके बावजूद लोगों के बीच अब भी प्लास्टिक के इस्तेमाल के मामले में घोर लापरवाही देखी जाती है। लोग यह सोचना या समझना जरूरी नहीं समझते कि प्लास्टिक के सामानों के जरिए होने वाली मामूली सुविधा की कीमत उनके साथ-साथ समूचे पर्यावरण को कैसी चुकानी पड़ रही है।

इसी के मद्देनजर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह आह्वान किया है कि अब वक्त आ गया है जब एक बार इस्तेमाल में आने वाले प्लास्टिक को अलविदा कह दिया जाए। पिछले दिनों संयुक्त राष्ट्र की ओर से आयोजित ‘कॉप-14’ सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्होंने विश्व समुदाय से यह आग्रह किया कि अगर पूरी दुनिया के सामने खड़ी होने वाली गंभीर चुनौतियों को कम करना है तो उसके लिए एक बार उपयोग में आने वाले प्लास्टिक से छुटकारा हासिल करना होगा। यों तो प्लास्टिक से पैदा मुश्किलों के मद्देनजर पर्यावरणविद लंबे समय से चेतावनी देते रहे हैं। सरकार की ओर से भी अक्सर ऐसी घोषणाएं सामने आती रहती हैं कि अब प्लास्टिक और उससे बने सामान के उपयोग को सीमित और उससे आगे प्रतिबंधित किया जाएगा। राष्ट्रीय हरित पंचाट से लेकर देश की कई अदालतों ने प्लास्टिक पर पाबंदी लगाने के लिए सख्त दिशा-निर्देश जारी किए। इसके बाद कुछ राज्यों ने इसके उपयोग को प्रतिबंधित करने की घोषणाएं भी कीं। लेकिन इन घोषणाओं के बरक्स आज भी पॉलिथीन और प्लास्टिक से बने दूसरे तमाम सामानों का आम उपयोग किसी से छिपा नहीं है।

नतीजतन, न केवल आम जनजीवन के सामने कई तरह की मुश्किलें खड़ी हो रही हैं, बल्कि समूचा पर्यावरण इससे बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। नहरों-नालों के बाधित होने के अलावा जमीन की उर्वरा शक्ति क्षीण हो रही है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर प्लास्टिक के बेलगाम इस्तेमाल को पूरी तरह रोका नहीं गया तो आने वाले वक्त में किस तरह की चुनौतियां भी खड़ी हो सकती हैं। लेकिन चिंता जताने और अदालती सख्ती के बाद कुछ घोषणा करने से ज्यादा सरकारों को कोई और कारगर कदम उठाना जरूरी नहीं लगता। सवाल यह है कि जब तक पॉलिथीन सहित प्लास्टिक से बने दूसरे तमाम सामान बाजार में उपलब्ध हैं, फिर तब तक उनके उपयोग को कैसे और किस हद तक सीमित किया जा सकेगा! आम लोगों के बीच जागरूकता और जिम्मेदारी का इस कदर अभाव है कि साधारण सुविधा के लिए इससे होने वाले नुकसानों की परवाह नहीं की जाती।

यानी सरकार और समाज के स्तर पर इस मामले में अब तक जिस तरह की अनदेखी कायम रही है, उसमें तय है कि प्लास्टिक से पैदा मुश्किलों में इजाफा होगा। जाहिर है, प्लास्टिक के उत्पादन को नियंत्रित या फिर बैन करने से लेकर जनजागरूकता के इस मोर्चे पर एक व्यापक अभियान चलाने की जरूरत है, ताकि लोग खुद ही इससे दूर हो सकें। पर्यावरण का संकट हमारे लिए एक चुनौती के रूप में उभर रहा है। संरक्षण के लिए अब तक बने सारे कानून और नियम सिर्फ किताबी साबित हो रहे हैं। पारस्थितिकी असंतुलन को हम नहीं समझ पा रहे हैं। पूरा देश जल संकट से जूझ रहा है। जंगल आग की भेंट चढ़ रहे हैं। प्राकृतिक असंतुलन की वजह से पहाड़ में तबाही आ रही है। आर्थिक उदारीकरण और उपभोक्तावाद की संस्कृति गांव से लेकर शहरों तक को निगल रही है। प्लास्टिक कचरे का बढ़ता अंबार मानवीय सभ्यता के लिए सबसे बड़े संकट के रूप में उभर रहा है। भारत में प्लास्टिक का प्रवेश लगभग 60 के दशक में हुआ।

आज स्थिति यह हो गई है कि 60 साल में यह पहाड़ के शक्ल में बदल गया है। दो से तीन साल पहले भारत में अकेले आटोमोबाइल क्षेत्र में इसका उपयोग पांच हजार टन वार्षिक था संभावना यह जताई गई थी कि इसी तरफ उपयोग बढ़ता रहा तो जल्द ही यह 22 हजार टन तक पहुंच जाएगा। भारत में जिन ईकाइयों के पास यह दोबारा रिसाइकिल के लिए जाता है वहां प्रतिदिन 1,000 टन प्लास्टिक कचरा जमा होता है, जिसका 75 फीसदी भाग कम मूल्य की चप्पलों के निर्माण में खपता है। 1991 में भारत में उत्पादन नौ लाख टन था। आर्थिक उदारीकरण की वजह से प्लास्टिक को अधिक बढ़ावा मिल रहा है। 2014 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार समुद्र में प्लास्टि कचरे के रूप में पांच हजार अरब टुकड़े तैर रहे हैं। अधिक वक्त बीतने के बाद टुकड़े माइक्रो प्लास्टिक में तब्दील हो गए हैं। जीव विज्ञानियों के अनुसार समुद्र तल पर तैरने वाला यह भाग कुल प्लास्टिक का सिर्फ एक फीसदी है जबकि 99 फीसदी समुद्री जीवों के पेट में है या फिर समुद्र तल में छिपा है।

एक अनुमान के मुताबिक वर्ष 2050 तक समुद्र में मछलियों से अधिक प्लास्टिक होगी। पिछले साल अफ्रीकी देश केन्या ने भी बैन पर पूर्ण बैन लगा दिया है। इस बैन के बाद वह दुनिया के 40 देशों के उन समूह में शामिल हो गया है जहां प्लास्टिक पर पूर्ण रुप से प्रतिबंध है। यहीं नहीं केन्या ने इसके लिए कठोर दंड का भी प्राविधान है। प्लास्टिक बैग के इस्तेमाल या इसके उपयोग को बढ़ावा देने पर चार साल की कैद और 40 हजार डालर का जुर्माना भी हो सकता है। जिन देशों में प्लास्टिक पूर्ण प्रतिबंध है उसमें फ्रांस, चीन, इटली और रवांडा जैसे मुल्क शामिल हैं लेकिन भारत में लचीला रुख अपनाया जा रहा है जबकि यूरोपीय आयोग का प्रस्ताव था कि यूरोप में हर साल प्लास्टिक का उपयोग कम किया जाए।

प्लास्टिक और दूसरे प्रकार के कचरों के निस्तारण का अभी तक हमने कुशल प्रबंधन तंत्र नहीं खोजा है. जिससे कचरे का यह अंबार पहाड़ में तब्दील हो सके। उपभोक्तावाद की संस्कृति ने गांव गिराव को भी अपना निशाना बनाया है। यहां भी प्लास्टिक संस्कृति हावी हो गई है। कोई भी हाथ में झोला लेकर बाजार खरीदारी करने नहीं जा रहा है। चाय, दूध, खाद्य तेल और दूसरे तरल पदार्थ जो दैनिक जीवन में उपयोग होते हैं उन्हें भी प्लास्टिक में बेहद शौक से लिया जाने लगा है जबकि गर्म वस्तुओं में प्लास्टिक के संपर्क में आने से रसायनिक क्रिया होती है, जो सेहत के लिए हानिकारक है। इंसान तमाम बीमारियों से जूझ रहा है। पर्यावरण को हम सिर्फ दिवस में नहीं समेट सकते हैं, इसके लिए पूरी इंसानी जमात को प्रकृति के साथ संतुलन बनाकर लंबी लड़ाई लड़नी होगी। समय रहते अगर हम नहीं चेते तो भविष्य में बढ़ता पर्यावरण संकट हमारी पीढ़ी को निगल जाएगा।

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