राज एक्सप्रेस, भोपाल। सीनियर छात्रों के लिए रैगिंग भले ही मौज-मस्ती हो सकती है, लेकिन रैगिंग से गुजरे छात्र के जहन से रैगिंग की भयावहता मिटती नहीं है। इसी भयावहता का उदाहरण ओडिशा में सामने आया है। रैगिंग एक मानसिक विकृति है। यह सिर्फ कानून से नियंत्रित नहीं हो सकेगी। रैगिंग से पीड़ित छात्रों को इसकी जानकारी अभिभावक, विश्वविद्यालय, प्रशासन और संबंधितों को देने की हिम्मत दिखानी चाहिए।
रैगिंग! यह शब्द पढ़ने में सामान्य लगता है। इसके पीछे छिपी भयावहता को वे ही छात्र समझ सकते हैं, जो इसके शिकार हुए हैं। आधुनिकता के साथ रैगिंग के तरीके भी बदलते जा रहे हैं। रैगिंग आमतौर पर सीनियर विद्यार्थी द्वारा कॉलेज में आए नए विद्यार्थी से परिचय लेने की प्रक्रिया। लेकिन अगर किसी छात्र को रैगिंग के नाम पर अपनी जान गंवाना पड़े तो उसे क्या कहेंगे। रैगिंग के नाम पर समय-समय पर अमानवीयता का चेहरा भी सामने आया है। गलत व्यवहार, अपमानजनक छेड़छाड़, मारपीट ऐसे कितने वीभत्स रूप रैगिंग में सामने आए हैं। सीनियर छात्रों के लिए रैगिंग भले ही मौज-मस्ती हो सकती है, लेकिन रैगिंग से गुजरे छात्र के जहन से रैगिंग की भयावहता मिटती नहीं है। इसी भयावहता का उदाहरण ओडिशा में सामने आया है। देश के अलग-अलग राज्यों ने रैगिंग पर बैन लगा रखा है और सुप्रीम कोर्ट ने इसे मानवाधिकारों का हनन तक करार दिया है, लेकिन ऐसी घटनाएं सामने आती रहती हैं। जहां संबलपुर की एक टेक्निकल यूनिवर्सिटी में सीनियर्स के जूनियर्स की रैगिंग करने की तस्वीरें सोशल मीडिया पर सामने आई हैं।
प्रारंभिक जांच में पता चला है कि यह तस्वीरें राज्य सरकार की वीर सुरेंद्र साई यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नॉलजी की हैं। इनमें दिख रहा है कि फस्र्ट और सेकंड क्लास के छात्र स्टेज सिर्फ अंडरगार्मेट पहने पर नाच रहे हैं और बड़ी संख्या में छात्र नीचे खड़े उन्हें देख रहे हैं। बताया गया है कि यूनिवर्सिटी में रैगिंग का यह पहला मामला नहीं है। पिछले साल भी ऐसी ही घटना सामने आई थी। राज्य के कौशल विकास और तकनीकी शिक्षा मंत्री प्रेमानंद नायक ने घटना का संज्ञान लेते हुए मामले की जांच के आदेश दिए हैं। इसका बाद यूनिवर्सिटी ने गुरुवार को 10 छात्रों को एग्जाम में बैठने से रोक दिया है। इसके अलावा करीब 52 छात्रों पर जूनियर्स की रैगिंग के लिए 2000 रुपए जुर्माना लगाया गया है। गौरतलब है कि संबलपुर की इस घटना से पहले उत्तर प्रदेश के सैफई में मेडिकल कॉलेज से 150 छात्रों का सिर मुंडाकर कैंपस में परेड का वीडियो सामने आया था। हालांकि, यूनिवर्सिटी के कुलपति ने घटना का खंडन किया था। शिक्षण संस्थानों में रैगिंग पर पूरी तरह रोक लगाने के लिए लागू किए गए नियम-कायदों के बावजूद आज भी आए दिन इस तरह की घटनाएं सामने आ रही हैं। हालांकि इस मसले पर सुप्रीम कोर्ट तक ने बेहद सख्त रुख अख्तियार किया है और यह निर्देश है कि किसी भी रूप में रैगिंग होने पर आरोपी से लेकर संस्थान तक के खिलाफ कार्रवाई होगी। लेकिन यह समझना मुश्किल है कि कुछ संस्थानों में वरिष्ठ माने वाले छात्रों के भीतर कौन-सी सामंती ग्रंथि बैठी होती है कि वे सारे नियम-कायदों को धता बता कर वहां आए नए विद्यार्थियों को परेशान करने से नहीं चूकते।
गत वर्ष पहले इलाहाबाद के मोतीलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज से सामने आया है, जहां एमबीबीएस पाठ्यक्रम के पहले वर्ष में दाखिला लेने वाले सौ से ज्यादा छात्रों के साथ रैगिंग के नाम पर अमानवीय सलूक किया गया था। वहां जूनियर डॉक्टरों को मजबूर किया गया था कि वे घुटनों के बल चल कर सभी वरिष्ठों सहित कर्मचारियों को सलाम करें। छात्रओं को भी परेशान किया गया। जिन्होंने इस रैगिंग का विरोध किया, उनकी पिटाई की गई और शिकायत करने पर उनका भविष्य चौपट कर देने की धमकी दी गई। गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट की ओर से सभी शिक्षण संस्थानों के लिए यह सख्त निर्देश है कि अगर वहां रैगिंग की घटना हुई तो इसके लिए उन्हें भी जवाबदेह माना जाएगा। हर उच्च शिक्षा संस्थान में रैगिंग के खिलाफ एक समिति बनाने से लेकर संबंधित नियमों का पालन नहीं करने पर संस्थान की मान्यता रद्द कर देने तक की बात है। इसके बावजूद अगर कुछ शिक्षा संस्थानों में नए विद्यार्थियों को रैगिंग की मार झेलनी पड़ रही है तो यह न केवल संस्थानों की लापरवाही और नियम-कायदों को ताक पर रखने का मामला है, बल्कि यह वरिष्ठ कहे जाने वाले विद्यार्थियों के सामाजिक बर्ताव पर भी सवालिया निशान है।
पिछले कुछ वर्षो में शिक्षा संस्थानों में रैगिंग की वजह से पीड़ित विद्यार्थियों की तकलीफदेह दास्तान से लेकर आत्महत्या तक कर लेने की घटनाएं सामने आने के बाद जागरूकता बढ़ी है। सामाजिक स्तर पर इसका विरोध भी हुआ है। मगर हैरानी की बात है कि जिस दौर में शिक्षण संस्थानों में मानवीय और संवेदनशील व्यवहार की सबसे ज्यादा जरूरत महसूस की जा रही है, उस वक्त में भी रैगिंग के नाम पर नवागंतुकों को अपने साथ इस तरह के बर्ताव का सामना करना पड़ रहा है। कोई विद्यार्थी जब पहली बार किसी संस्थान में दाखिला लेता है तो वहां उसके साथ हुए शुरुआती व्यवहार का गहरा असर उसके मन-मस्तिष्क पर पड़ता है। यहां तक कि कई बार इससे जीवन और समाज के प्रति उनकी दृष्टि सकारात्मक या फिर नकारात्मक हो जाती है। इसलिए किसी भी शिक्षण संस्थान में यह सुनिश्चित किए जाने की जरूरत है कि वहां पहली बार आए विद्यार्थियों को ऐसा व्यवहार मिले, जिससे न केवल अपने व्यक्तित्व में सकारात्मक निखार आए, बल्कि इसका लाभ देश और समाज को भी मिले।
स्कूल के अनुशासित जीवन के बाद जब एक छात्र उमंग, उत्साह के साथ कॉलेज में प्रवेश करता है, तब उसे रैगिंग की सच्चाई का भान नहीं होता। जब सीनियर्स रैगिंग लेकर उसे प्रताड़ित करते हैं तो समझ पाता है कि रैगिंग होती क्या है। हंसी, मजाक और थोड़े से मनोरंजन, सीनियर छात्रों के प्रति सम्मानजनक व्यवहार से प्रारंभ हुई रैगिंग अपशब्द बोलना, नशा कराना, यौन उत्पीड़न, कपड़े उतरवाना जैसे घृणित स्तर तक पहुंच चुकी है। सीनियर्स द्वारा की जाने वाली रैगिंग का दर्द उन परिवारों से पूछ जाना चाहिए जिनके होनहार बच्चे इस रैगिंग के कारण डिप्रेशन में चले गए या उनका जीवन समाप्त हो गया। मार्च 2009 में हिमाचल प्रदेश के एक मेडिकल कॉलेज के छात्र अमन काचरू को रैगिंग के कारण अपनी जान गंवानी पड़ी थी। ऐसा नहीं है कि इस अभिशाप के विरुद्ध न्याय प्रणाली ने कोई कार्य नहीं किया। सुप्रीम कोर्ट ने रैगिंग के संबंध में समय पर महत्वपूर्ण कानून बनाकर सख्त फैसले किए। 11 फरवरी 2009 को सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने स्पष्ट कहा कि रैगिंग में संलिप्त पाए गए छात्र के विरुद्ध क्रिमिनल केस दर्ज होना चाहिए। साल 2001 में सुप्रीम कोर्ट ने रैगिंग पर संज्ञान लेते हुए इसकी रोकथाम के लिए सीबीआई के पूर्व निदेशक ए. राघवन की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय में अपने अधीन आने वाले शिक्षा संस्थानों में रैगिंग के विरुद्ध कड़े निर्देश जारी किए। कई राज्यों ने भी इस पर रोक लगाने के लिए कानून बनाए। 1997 में तमिलनाडु में विधानसभा में इलाज ढूंढना होगा। समाज अपने स्तर पर ढूंढे और सरकार अपने स्तर पर। मगर इलाज में अब देरी संभव एंटी रैगिंग कानून पास किया गया। मगर नतीजा अब तक ढांक के तीन पात है। रैगिंग एक मानसिक विकृति है। यह सिर्फ कानून से नियंत्रित नहीं हो सकेगी। रैगिंग से पीड़ित छात्रों को इसकी जानकारी अभिभावक, विश्वविद्यालय, प्रशासन और संबंधितों को देने की हिम्मत दिखानी चाहिए। आत्महत्या का विकल्प न चुनें यह सच है फिर भी हर एक की मानसिक क्षमता और सहनशीलता अंतत: अलग-अलग होती है। मगर अब जानलेवा हो चुकी इस बीमारी का नहीं है।
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