जलवायु परिवर्तन  Pankaj Baraiya - RE
राज ख़ास

भविष्य की अनदेखी ठीक नहीं

जलवायु परिवर्तन को लेकर भारत अगर आज भी सजग नहीं हुआ तो आने वाला वक्त महंगा साबित हो सकता है। भारत 2050 तक फल-सब्जियों के अलावा दूध के लिए भी तरस जाएगा।

Author : राज एक्सप्रेस

राज एक्सप्रेस। संसदीय समिति ने कहा है कि, जलवायु परिवर्तन को लेकर भारत अगर आज भी सजग नहीं हुआ तो आने वाला वक्त महंगा साबित हो सकता है। भारत 2050 तक फल-सब्जियों के अलावा दूध के लिए भी तरस जाएगा। यह बात पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की रिपोर्ट में सामने आई है। ग्लोबल वार्मिग को लेकर पूरी दुनिया का जो हाल है, वह भविष्य के लिए घातक हो सकता है। प्रकृति के प्रति जो जिम्मेदारी है, उसे हमें ही निभाना होगा, अन्यथा हम आने वाली पीढ़ी को सिर्फ विनाश देंगे।

रिपोर्ट में कहा गया है कि, दूध के उत्पादन को लेकर यदि अब नहीं संभले तो इसका असर 2020 तक दिखने लगेगा। दूध के उत्पादन में 1.6 मीट्रिक टन की कमी आ सकती है। इसके अलावा चावल समेत कई फसलों के उत्पादन में कमी और किसानों की आजीविका पर इसका असर दिखाई देगा। जलवायु परिवर्तन का सीधा असर फसलों पर भी दिखाई देगा। 2020 तक चावल के उत्पादन में चार से छह फीसदी, आलू में 11, मक्का में 18, सरसों में दो फीसदी तक कमी आ सकती है। वहीं, सबसे बुरा असर गेंहू की उपज पर होगा। अनुमान है कि, गेहूं की उपज 60 लाख टन तक गिरेगी।

रिपोर्ट के अनुसार, दूध के उत्पादन में सबसे ज्यादा गिरावट उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, राजस्थान और पश्चिम बंगाल में देखने को मिलेगी। ग्लोबल वार्मिंग से इन राज्यों में गर्मी तेजी से बढ़ेगी, इससे पानी की कमी होगी और असर पशु उत्पादकता पर पड़ेगा। सेब के बागानों पर भी जलवायु परिवर्तन का बुरा असर होगा। रिपोर्ट में कहा गया है कि, सेब की खेती समुद्र तल से 2500 फीट की ऊंचाई पर करनी होगी, क्योंकि अभी खेती 1230 मीटर की ऊंचाई पर होती है। आने वाले वक्त में यहां गर्मी बढ़ने से सेब के बाग सूख जाएंगे और खेती ऊंचाई वाली जगह पर स्थानांतरित करनी पड़ेगी। उत्तर भारत में जलवायु परिवर्तन के कारण कपास उत्पादन कम होने तो मध्य और दक्षिण भारत में बढ़ोत्तरी होने की संभावना है। पश्चिम तटीय क्षेत्र केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक और महाराष्ट्र तथा पूर्वोत्तर राज्यों, अंडमान निकोबार और लक्षद्वीप में नारियल उत्पादन में इजाफा होने का अनुमान है।

ग्लोबल वार्मिंग को लेकर यह रिपोर्ट हमें सचेत करने वाली है। कुछ दिनों पहले आई एक और रिपोर्ट ने हमारी लापरवाही की भयावहता को उजागर किया था। रिपोर्ट में कहा गया था कि, फरवरी में मौसम ने गर्मी का अहसास करवाना शुरू कर दिया है। बेशक अगले एक-दो दिन में मौसम में बदलाव होने की संभावना जताई जा रही है, लेकिन बीता जनवरी माह वर्ष 2006 के बाद सबसे अधिक गर्म महीना दर्ज किया गया। 2006 में जहां औसत अधिकतम तापमान 22.4 डिग्री सेल्सियस रहा, वहीं जनवरी-18 में औसत अधिकतम तापमान 22.2 रहा। इस साल का जनवरी माह पिछले 12 वर्षो में सबसे गर्म महीना दर्ज किया गया। जनवरी, 2006 में औसत अधिकतम तापमान 22.4 के बाद सीधे इस साल 22.2 दर्ज किया गया।

रिपोर्ट में कहा गया था कि, वर्ष 2018 का जनवरी माह 12 वर्ष बाद सबसे गर्म महीना रहा। इस माह बरसात भी मात्र 4.4 मिलीमीटर दर्ज की गई। वर्ष 2016 को छोड़ दें, तो 2012 से लेकर 2017 तक बरसात भी इस जनवरी से ज्यादा हुई थी। अधिकतम तापमान औसतन 1.7 डिग्री सेल्सियस ज्यादा रहा है, जिस कारण जनवरी गर्म महीना रहा। जनवरी माह पर नजर दौड़ाएं तो 6 और 9 जनवरी को न्यूनतम तापमान दो बार 4.2 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया। तभी मौसम ने यू-टर्न लिया और अचानक न्यूनतम तापमान में गिरावट होने से सर्दी बढ़ गई। इसके अलावा 23 जनवरी को पश्चिमी विक्षोभ के कारण आई बरसात से मौसम ने एक बाद दोबारा से पलटी मारी। बरसात होने से एक दिन पहले तक 25.2 डिग्री सेल्सियस रहा अधिकतम तापमान घटकर सीधे दिन के समय 13 डिग्री तक पहुंच गया था। मौसम का यह बदलाव प्रकृति की नहीं, बल्कि हमारी देन है। हम ग्लोबल वार्मिंग को लेकर जिस तरह से बेपरवाह हैं, उसका असर दिखने लगा है।

मानव सहित सभी प्रजातियों और धरती का अस्तित्व खतरे में है। शायद ही कोई तथ्यों से अवगत व्यक्ति इससे इंकार करे। तमाम आनाकानी के बावजूद भयावह प्राकृतिक आपदाओं व विध्वंसों ने दुनिया को इस तथ्य को स्वीकार करने के लिए इस कदर बाध्य कर दिया है कि, वे इस हकीकत से इंकार न कर सके। इस स्थिति से निपटने के लिए कई अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन और संधि-समझौते हो चुके हैं। ये सम्मेलन या कार्य-योजनाएं दुनिया भर के पर्यावरणविदों तथा मनुष्य एवं धरती को प्यार करने वाले लोगों की उम्मीदों का केंद्र रहे हैं, क्योंकि इस सम्मेलन की सफलता या फिर असफलता पर ही मानव जाति के अस्तित्व का दारोमदार टिका हुआ था। इसी से यह तय होना था कि, आने वाले वर्षों या सदियों में कौन से देश का अस्तित्व बचेगा या कौन सा देश समुद्र में समा जाएगा या किस देश का कितना हिस्सा समुद्र में डूब जाएगा, कितने देश या क्षेत्र ऐसे होंगे, जिनका नामो-निशान ही नहीं बचेगा। कितनी प्रजातियां कब विलुप्त हो जाएंगी। मानव प्रजाति का अस्तित्व अब कितने दिनों तक कायम रहेगा। समुद्री तूफान, सुनामी या अतिशय बारिश किन क्षेत्रों को तबाह कर देगी, किस पैमाने पर जान-माल का नुकसान होगा। कितने इलाके रेगिस्तान में बदल जाएंगे। बाढ़, सूखा या असमय बारिश कितने लोगों पर किस कदर कहर ढाएगी।

पृथ्वी का औसत तापमान लाखों वर्षो से 15 डिग्री सेंटीग्रेड बना है। क्षेत्र विशेष में समय विशेष पर तापमान में वृद्धि या कमी होती रहती है, लेकिन औसत तापमान स्थिर रहता है। इसी औसत तापमान में वृद्धि को वैश्विक तापमान में वृद्धि या ग्लोबल वार्मिंग कहते हैं। चूंकि इसके चलते बड़े पैमाने पर जलवायु में परिवर्तन होता है, इसी के चलते इसे जलवाय परिवर्तन या क्लाइमेट चेंज भी कहते हैं। 1980 के दशक में इस मानव निर्मित समस्या की गंभीरता की ओर पर्यावरणविदों व वैज्ञानिकों का ध्यान गया। संयुक्त राष्ट्र ने इस विश्वव्यापी समस्या की गंभीरता को स्वीकार करते हुए 1992 में पहला पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया। तब से थोड़े-थोड़े अंतराल पर यह सम्मेलन आयोजित किया जाता रहा है। पर्यावरणविदों तथा वैज्ञानिकों का मानना है कि शायद थोड़े बहुत विनाश के साथ पृथ्वी दो डिग्री सेंटीग्रेड तक की तापमान वृद्धि को बर्दाश्त कर ले। यह अलग बात है कि, इतनी भी वृद्धि तमाम भयावह एवं विध्वंसक आपदाओं को जन्म देगी। कुछ देश समुद्र के आगोश में समा जाएंगे, कुछ देशों के बड़े हिस्से तथा कुछ देशों के छोटे हिस्सों को समुद्र निगल लेगा। जब 0.7 सेंटीग्रेड की वृद्धि पर इतनी प्राकृतिक आपदाएं घटित हो रही हैं, तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि, दो डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ने पर क्या होगा?

वैज्ञानिक मानते हैं कि, यदि वैश्विक तापमान वृद्धि पर जताई गई चिंताओं पर संज्ञान नहीं लिया गया तो यह कृषि के लिए घातक साबित हो सकता है। इसमें मानसून पैटर्न में बदलाव की आशंका के साथ गंगा घाटी के सूखे की चपेट में आने की भविष्यवाणी की गई है। इससे किसान, बेघर और गरीब तबाह हो जाएंगे। हमारे सामने आज सबसे बड़ी चुनौती कृषि को जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान वृद्धि के खतरों से बचाने की है। इसके लिए हमें फसलों को इसके प्रतिरोधी बनाना होगा। नए शोध करने होंगे, नई किस्में तैयार करनी होंगी, लेकिन चिंताजनक यह है कि, इस दिशा में देरी हो रही है, देरी इसलिए है, क्योंकि हम भविष्य के संकट की अनदेखी कर रहे हैं। मगर अब इस दिशा में लापरवाही भारी पड़ सकती है।

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