देश में शिक्षा का अधिकार लागू होने से भले ही इस बात की आश्वस्ति मिल गई हो कि ज्यादा से ज्यादा बच्चे स्कूल में पढ़ें और कम ही स्कूल छोडऩे पर मजबूर हों लेकिन सच्चाई यह है कि आठवीं क्लास से पासआउट होने वाले आधे से अधिक बच्चे सामान्य गणित तक नहीं कर सकते। वहीं एक चौथाई बच्चे तो पढ़ तक नहीं सकते हैं। प्रथम नामक एनजीओ द्वारा जारी ऐनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट के अनुसार आठवीं क्लास में पढऩे वाले 56 फीसदी स्टूडेंट्स तीन अंकों की संख्या को एक अंक के नंबर से भाग नहीं दे सकते हैं। वहीं पांचवीं क्लास के 72 फीसदी बच्चे भाग ही नहीं दे सकते हैं, जबकि तीसरी क्लास के 70 प्रतिशत बच्चे घटाना नहीं कर सकते। यह स्थिति एक दशक पहले से भी बदतर है। अगर पिछली रिपोर्ट पर नजर डालें तो 2008 में पांचवीं लास के 37 फीसदी बच्चे सामान्य गणित कर लेते थे, जबकि आज यह संख्या 28 प्रतिशत से कम है। गणित की जानकारी में लड़कियां, लडक़ों से काफी पीछे हैं। केवल 44 फीसदी लड़कियां ही भाग कर सकती हैं, जबकि लड़क़ों में संख्या 50 फीसदी के आसपास है।
एक ओर दुनिया में फिर से गणित की उपयोगिता का दायरा बढ़ रहा है, तो दूसरी ओर शून्य के आविष्कारक देश के रूप में प्रतिष्ठित भारत में इस विषय को लेकर कोई सनसनी नहीं दिखती। यहां तक पिछले साल जब भारतीय मूल के प्रतिभाशाली गणितज्ञ मंजुल भार्गव को मैथमैटिस का फील्ड्स मेडल दिया गया, तो भी यह सवाल लोगों के जेहन में गूंजता रहा कि क्या ये उपलब्धियां भारतीय बच्चों और युवाओं में गणित के प्रति कोई उल्लेखनीय लगाव पैदा कर पाएंगी। दुनिया में फील्ड्स मेडल को नोबेल के समकक्ष माना जाता है और विशेषज्ञों का मत है कि इसे हासिल करना नोबेल पाने से भी ज्यादा कठिन है, पर जहां तक गणित के क्षेत्र में भारतीय मेधा का सवाल है, एक से बढ़ कर एक उदाहरण होने के बावजूद युवाओं में गणित से दूर भागने का रुझान दिखाई देता है। हमारे देश में बच्चे मामूली जोड़-घटाव और गुणा करने तक के लिए अब तक कैलकुलेटर, मोबाइल फोन या कंप्यूटर पर ही आश्रित नहीं हुए हैं, बल्कि वे गणित को आनंद का विषय भी नहीं मानते।
गणित आनंद का विषय (जॉय ऑफ मैथ्स) हो सकता है- इस बारे में एक स्थापना महान गणितज्ञ जीएच हार्डी की है जिन्होंने अपनी किताब ‘अ मैथमैटेशियंस अपोलॉजी’ में यह बात स्वीकार की है कि भले ही अप्लाइड मैथ्स (व्यावहारिक गणित) को तुच्छ और नीरस माना जाता है, पर इसके दार्शनिक रोमांच और इसकी स्थायी एस्थेटिक वैल्यू यानी आनंद से इनकार नहीं किया जा सकता। हार्डी का बयान दार्शनिक कोटि का है और उन्होंने अप्लाइड मैथ्स की प्योर (विशुद्ध) मैथ्स से जो तुलना की है, आज वह बेमानी हो चुकी है क्यूँकि इन दोनों दायरों का अंतर तेजी से मिटता जा रहा है। अगर हम गणित को बेहतर करना चाहते हैं, तो काफी काम करना होगा।
ताज़ा समाचार और रोचक जानकारियों के लिए आप हमारे राज एक्सप्रेस वाट्सऐप चैनल को सब्स्क्राइब कर सकते हैं। वाट्सऐप पर Raj Express के नाम से सर्च कर, सब्स्क्राइब करें।