मथुरा, उत्तर प्रदेश। भगवान कृष्ण की नगरी मथुरा स्थित वृन्दावन के सप्त देवालयों में शुमार मशहूर राधारमण मन्दिर में अनूठे तरीके से दीपावली मनाई जाती है। जिसमें देवी लक्ष्मी के बजाय राधारानी की पूजा होती है।
मंदिर में स्वयं प्राकट्य राधारमण महाराज और राधारानी का दरबार लगता है। इस साल दीपावली पर इस मन्दिर में यह दरबार 24 अक्टूबर को लगेगा। जहां अन्य मन्दिर शयन भोग के बाद 10 बजे तक बन्द हो जाते हैं, वहीं राधारमण मन्दिर में दीपावली की रात में 11 बजे तक राधारमण महाराज और श्रीराधा का दरबार लगा रहता है। मन्दिर के सेवायत आचार्य एवं ब्रज संस्कृति की विभूति श्रीवत्स गोस्वामी ने बताया कि वैसे तो यह दरबार मन्दिर के सेवायत आचार्यों एवं उनके परिवारीजनों के लिए लगता है, पर इस दरबार में जो भी श्रद्धालु आते हैं, उन्हें भी प्रसाद मिलता है।
उन्होंने बताया कि रात 9 बजे से लगनेवाले दरबार में मन्दिर के सभी सेवायत आचार्य परिवारीजनों के साथ मन्दिर में एकत्र होते हैं तथा प्रत्येक को ठाकुर राधारमण महराज एवं लक्ष्मी स्वरूपा राधारानी के आशीर्वाद के रूप में प्रसाद की एक थाली मिलती है। यह प्रसाद दैहिक, दैविक, भौतिक ताप से मुक्ति दिलाता हुआ वर्ष पर्यन्त घर में खुशियों की वर्षा करता है।
उन्होंने बताया कि लक्ष्मी जी वास्तव में राधारानी का प्रकाश स्वरूप हैं। जब लक्ष्मी जी प्रकट हुईं तो आकाश की बिजली में जितनी चमक होती है उतनी चमक उन्होंने सृष्टि में फैला दी। उन्होंने यह भी बताया कि राधा जी की अंगकांति लक्ष्मी हैं। इसलिए दीपावली पर ‘राधा महालक्ष्मी नमः’ के रूप में मन्दिर में राधा जी की पूजा होती है। उनका विशाल पंचामृत अभिषेक होता है तथा इस दिन विशेष भोग अर्पित किया जाता है।
मन्दिर में राधारानी एवं ठाकुर राधारमण महाराज को चूंकि दीप अर्पण करने का विधान है इसलिए इस दिन श्रद्धालुओं में दीप अर्पण करने की होड़ सी लग जाती है। इस दिन ठाकुर जी चांदी की हटरी में राधारानी के साथ विराजते हैं किंतु सांकेतिक रूप से मिट्टी की हटरी स्थापित कर उसमें गणेश लक्ष्मी का प्रतिस्थापित की जाती है तथा उनकी खील बताशे से पूजा होती है, क्योकि राधारमण मन्दिर में पर्व शास्त्र और लोक के अनुरूप मनाते हैं।इसमें लोक और शास्त्र का एक प्रकार से मिलन होता है।
उन्होंने बताया कि वैसे दीपावली लक्ष्मी जी का प्राकट्य उत्सव है तथा उत्तर भारत में इसी रूप में दीपावली मनाते हैं, किंतु बंगाल में काली की पूजा करने का विधान है। दोनों का समाहार वैष्णव धर्म में यह होता है कि जो काली हैं, वही कृष्ण हैं और जो कृष्ण हैं वही काली हैं।
राधारमण मन्दिर, वृन्दावन का वह प्रमुख देवालय है, जहां का विग्रह स्वयं प्राकट्य है तथा इस विग्रह को ग्रहण करने का आदेश गोपाल भट्ट गोस्वामी को उस समय हुआ था जब वे नेपाल में गंडकी नदी में स्नान कर रहे थे। उनकी धोती में बार बार शालिग्राम आने के बावजूद उन्हें वे ग्रहण नहीं कर रहे थे। आकाशवाणी के माध्यम से उन्हें इसे ग्रहण करने का आदेश हुआ था। यह गोपाल भट्ट गोस्वामी का ही तप और साधना थी कि शालिग्राम से वतर्मान विग्रह के रूप में न केवल ठाकुर जी प्रकट हुए थे, बल्कि उनकी आराधना पर ठाकुर जी के मुख्य विग्रह में उन तीन मन्दिरों विग्रह समायोजित हो गए थे जिनमें श्रंगार करने के लिए वे जाते थे जब वे वृद्ध हो गए थे तब उन्हें तीन मन्दिरों में जाना मुश्किल हो रहा था।
इस मन्दिर के विग्रह में ‘गोविन्द कौ सो मुख, गोपीनाथ कौ सो हिय मदनमोहन के राजत श्रीचरण हैं।’ अर्थात इस मन्दिर के विग्रह का मुख गोविन्द देव मन्दिर के विग्रह की तरह, वक्षस्थल गोपीनाथ मन्दिर की तरह तथा श्री चरण मदनमोहन मंदिर के विग्रह की तरह से हैं। मंदिर के विग्रह की इसी विशेषता के कारण इस विग्रह की भावपूर्ण आराधना करने वाले को दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से मुक्ति मिलती है तथा ऐसे भक्त के लिए मोक्ष का द्वार खुल जाता है।
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