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बुंदेलखंड में पितृपक्ष में बच्चे करते हैं महबुलिया पूजा का आयोजन

देशभर में और मुख्य रूप से उत्तर भारत में पुरखों की याद में विशेष पूजा अर्चना को समर्पित पितृपक्ष से जुड़ी विभिन्न परंपराएं प्रचलित है।

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महोबा। देशभर में और मुख्य रूप से उत्तर भारत में पुरखों की याद में विशेष पूजा अर्चना को समर्पित पितृपक्ष से जुड़ी विभिन्न परंपराएं प्रचलित है। बुंदेलखंड में इस दौरान एक अनूठी परंपरा “ महबुलिया ” पूजा का आयोजन किया जाता है। महबुलिया इस क्षेत्र की ऐसी अनूठी परंपरा है, जिसमें घर के बुर्जुग नहीं बल्कि छोटे छोटे बच्चे हिस्सा लेते हैं।

बुंदेलखंड में लोक जीवन के विविध रंगों में पितृपक्ष पर पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और समर्पण का भी अंदाज जुदा है। पुरखों के तर्पण के लिए यहां पूजन, अनुष्ठान और श्राद्ध आदि के आयोजनों के अतिरिक्त बच्चों व बालिकाओं की महबुलिया पूजा बेहद खास है, जो नई पीढ़ी को संस्कार सिखाती है।

पूरे पंद्रह दिन तक चलने वाले इस कार्यक्रम में गोधूलि वेला पर हर रोज पितृ आवाहन और विसर्जन के साथ इसका आयोजन होता है। इस दौरान यहां के गांवों की गलियां तथा चौबारे में बच्चों की मीठी तोतली आवाज में गाए जाने वाले महबुलिया के पारम्परिक लोक गीतों से झंकृत हो उठते हैं। समूचे विंध्य क्षेत्र में लोकपर्व का दर्जा प्राप्त महबुलिया की पूजा का भी अपना अलग ही तरीका है।

बच्चे कई समूहों में बंटकर इसका आयोजन करते हैं। महबुल को एक कांटेदार झाड़ में रंग बिरंगे फूलों और पत्तियों से सजाया जाता है। विधिवत पूजन के उपरांत उक्त सजे हुए झाड़ को बच्चे गाते बजाते हुए गांव के किसी तालाब या पोखर में ले जाते हैं जहां फूलों को कांटों से अलग कर पानी में विसर्जित कर दिया जाता है। महबुलिया के विसर्जन के उपरांत वापसी में यह बच्चे राहगीरों को भीगी हुई चने की दाल और लाई का प्रसाद बांटते हैं। प्रसाद सभी बच्चे अपने घरों से अलग अलग लाते हैं।

जगनिक शोध संस्थान के सचिव डॉ. वीरेंद्र निर्झर ने कहा कि महबुलिया को पूरे बुंदेलखंड में बालक बालिकाओं द्वारा उत्सव के रूप में मनाया जाता है। हर रोज जब अलग-अलग घरों में महबुलिया पूजा आयोजित होती है तो उसमें घर की एक वृद्ध महिला साथ बैठकर बच्चों को न सिर्फ पूजा के तौर तरीके सिखाती बल्कि पूर्वजों के विषय में जानकारी देती हैं। इसमें पूर्वजों के प्रति सम्मान प्रदर्शन के साथ सृजन का भाव निहित है। झाड़ में फूलों को पूर्वजों के प्रतीक के रूप में सजाया जाता है, जिन्हें बाद में जल विसर्जन कराके तर्पण किया जाता है। दूसरे नजरिये से देखा जाए तो महबुलिया बच्चों के जीवन मे रंग भी भरती है। इसके माध्यम से मासूमों में धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार पैदा होते हैं। उनको फूल पत्ती वनस्पतियों तथा रंगों से परिचित कराने के साथ साजसज्जा करना भी सिखाया जाता है।

समाजसेवी श्रीमती सरस्वती वर्मा ने बताया कि बुंदेली लोक जीवन के विविध रंगों में महबुलिया बिल्कुल अनूठी परंपरा है जो देश के अन्य हिस्सों से अलग है। इसमें बेटियों के महत्व को प्रतिपादित किया गया है और उसे खुशियों का केंद्र बिंदु बनाया गया है। पितृपक्ष में बुजुर्ग जहां सादगी के साथ पुरखों के पूजन तर्पण आदि में व्यस्त रहते हैं और घर माहौल में सन्नाटा पसरा रहता है तब महबुलिया पूजन के लिए बालिकाओं की चहल पहल खामोशी तोड़ती है तथा वातावरण को खुशनुमा बनाती है।

श्रीमती वर्मा ने कहा कि सदियों पूर्व से प्रचलित परम्परा की शुरुआत कब हुई इस बात का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। मान्यता है कि पूर्व में कभी महबुलिया नाम की एक वृद्ध महिला थी, जिसने इस विशेष पूजा की शुरुआत की थी। बाद में इसका नाम ही महबुलिया पड़ गया। उन्होंने कहा कि बदलते दौर में सांस्कृतिक मूल्यों के तेजी से ह्रास होने के कारण महबुलिया भी प्रायः विलुप्त हो चली है।

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