हाइलाइट्स :
15 अगस्त 1975को की गई थी शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या।
पांचवी बार प्रधानमंत्री बनी शेख हसीना वाजेद।
1947 को ईस्ट पाकिस्तान में हुआ था शेख हसीना जन्म।
राज एक्सप्रेस। दिल्ली जैसे पौश इलाके में यूं तो लोगों का आना - जाना लगा रहता है लेकिन लाजपत नगर की रिंग रोड के पंधारा पार्क के पास एक घर में बंगाली स्टाइल में साड़ी पहने महिला अपने परिवार के साथ रहने आई थी। यह महिला कोई आम नागरिक नहीं थी क्योंकि भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने खुद इन्हें भारत बुलाया था। करीब 6 साल तक कड़ी सुरक्षा के बीच भारत में अपना नाम और पहचान बदल कर रही यह महिला कोई और नहीं बल्कि इस समय बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद हैं।
शेख हसीना वाजेद के बारे में जानने से पहले यह जानना जरूरी है कि, क्या कारण था कि, शेख हसीना वाजेद को अपना देश छोड़ 6 साल तक दिल्ली में पहचान छुपकर रहना पड़ा...।
तारीख थी 15 अगस्त साल 1975 भारत में स्वतंत्रता दिवस मनाया जा रहा था लेकिन पड़ोसी देश बांग्लादेश में तख्ता पलट की साजिशें रची जा रही थीं। ढाका के धनमोड़ी 32 (Dhanmodi 32) में सुबह अचानक गोलियों की आवाज सुनाई दी, यह पता बांग्लादेश के बंगबंधु कहे जाने वाले शेख मुजीबुर्रहमान का था। शेख मुजीबुर्रहमान उस समय बांग्लादेश के राष्ट्रपति थे। गोलियों की आवाज सुन शेख मुजीबुर्रहमान ने खुद को परिवार समेत एक कमरे में बंद कर लिया।
शेख मुजीबुर्रहमान पर दागी गई 18 गोलियां :
धनमोड़ी 32 के इस कमरे में सभी लोग तनाव में थे कुछ समय बाद गोलियों की आवाज आना भी बंद हो गई। मुजीबुर्रहमान ने हिम्मत दिखाई कमरे से बाहर आए। जैसे ही वह बाहर आए उनके सामने दो नौजवान बन्दूक लिए खड़े थे। पहले तो मुजीबुर्रहमान ने पूछा कि, यह सब क्या चल रहा है? तुम्हें क्या चाहिए? लेकिन उन्हें सामने से कोई जवाब नहीं मिला...। शेख मुजीबुर्रहमान को बाहर लाया गया। सामने से बंदूक लिए एक व्यक्ति आगे बढ़ा और तब तक गोलियां चलाई जब तक शेख मुजीबुर्रहमान की मौत हो गई। जानकारी के अनुसार शेख मुजीबुर्रहमान पर करीब 18 गोलियां दागी गई थी।
15 अगस्त को कुछ ही समय में बांग्लादेश के बंगबंधु कहे जाने वाले मुजीबुर्रहमान का परिवार समेत नामोनिशान मिटा दिया गया था। ये वही व्यक्ति थे जिन्होंने बांग्लादेश की आजादी के लिए अपने जीवन का अधिकांश समय जेल में बिता दिया था। ये कहानी यहीं खत्म हो सकती थी, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था। इस हमले में अब भी मुजीबुर्रहमान के परिवार के दो सदस्य सुरक्षित थे। शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या करने वाले इन दोनों तक नहीं पहुंच पाए क्योंकि दोनों ही सदस्य बांग्लादेश की सीमाओं से बाहर थे।
पिता की मौत की खबर सुन शेख हसीना पूरी तरह टूट गई :
बांग्लादेश से 7 हजार 287 किलोमीटर दूर जर्मनी में फ़ोन की रिंग बजी। खबर मिली की बांग्लादेश में शेख मुजीबुर्रहमान की परिवार समेत हत्या कर दी गई है। फ़ोन के दूसरी तरफ कोई और नहीं बल्कि शेख मुजीबुर्रहमान की सबसे बड़ी बेटी शेख हसीना थीं। पिता की मौत की खबर सुन शेख हसीना पूरी तरह टूट गई थीं। जब उन्हें पता चला कि, उनके परिवार के एक - एक यक्ति को चुन - चुन कर मौत के घाट उतार दिया गया है तो वे बदहवास हो गई। किसी ने नहीं सोचा था कि, जिस देश के लिए शेख मुजीबुर्रहमान ने पाकिस्तान के हुक्मरानों से विद्रोह किया उसी देश में उनकी हत्या कर दी जाएगी।
शेख हसीना भी इस बात का विश्वास नहीं कर पा रहीं थीं। दरअसल शेख हसीना और उनकी छोटी बहन शेख रेहाना दोनों ही बांग्लादेश में नहीं थीं। इसी कारण ये दोनों अब तक ज़िंदा रहीं । शेख हसीना को बताया गया कि, बांग्लादेश में सैन्य तख्तापलट हुआ है, उनकी जान को भी ख़तरा है। मतलब साफ था, शेख हसीना अपने पिता के अंतिम दर्शन के लिए भी बांग्लादेश नहीं लौट सकतीं थीं।
भारत से मिली मदद :
सभी तरफ से निराश और दुखी शेख हसीना के लिए सब ख़त्म सा हो गया था, लेकिन ठीक उसी समय शेख हसीना को भारत से मदद की पेशकश की गई। भारत से मदद की पेशकश शेख हसीना के लिए जीवन की नई उम्मीद थी । शेख हसीना अपने पूरे परिवार को लेकर भारत की राजधानी दिल्ली पहुंच गई।
इंदिरा गाँधी से मुलाकात :
जब कभी बांग्लादेश पर विपत्ति आई भारत ने मदद के लिए सबसे पहले हाथ आगे बढ़ाया। शेख मुजीबुर्रहमान के असेसिनेशन के बाद जब उनकी बेटी शेख हसीना के लिए अस्तित्व का संकट आया तो तात्कालीन प्रधानमत्री इंदिरा गांधी ने उन्हें भारत में शरण लेने के लिए बुलाया। दिल्ली के लाजपत नगर की रिंग रोड के पंधारा पार्क के पास एक घर में कड़ी सुरक्षा के बीच शेख हसीना और उनके परिवार को रखा गया। भारत में 6 साल तक शेख हसीना अपना नाम और पहचान बदलकर रहीं।
अब जानते हैं शेख हसीना का प्रारंभिक जीवन :
शेख हसीना का जन्म 28 सितम्बर साल 1947 को ईस्ट पाकिस्तान के तुंगीपारा में हुआ था। शेख हसीना, शेख मुजीबुर्रहमान और बेगम फजीलतुन्नेस मुजीब की सबसे बड़ी बेटी थीं। पिता बंगाली राष्ट्रवादी नेता थे, उनका अधिकांश समय जेल में बीता। शेख हसीना को उनकी मां और दादी ने मिलकर पाला पोसा। पिता से दूर होकर भी वे सबसे ज्यादा उन्ही से प्रभावित थीं। जब कभी शेख मुजीबुर्रहमान जेल से रिहा होकर आते तो शेख हसीना घंटों बैठ उनसे देश की स्थिति के बारे में जाना करती थीं।
शेख हसीना ने तुंगीपारा के एक प्राथमिक स्कूल में शिक्षा ग्रहण की। इसके बाद ढाका जाने पर उन्होंने अपनी पढाई ढाका के अजीमपुर गर्ल्स स्कूल में की। शेख हसीना के राजनीतिक जीवन की शुरुआत तभी हो गई थी जब उन्हें ईडन कॉलेज में छात्र संघ का उपाध्यक्ष चुना गया। ईडन कॉलेज से स्नातक की डिग्री पूरी कर उन्होंने ढाका यूनिवर्सिटी में प्रवेश लिया। उन्होंने यहाँ से बंगाली साहित्य का अध्ययन किया। ढाका यूनिवर्सिटी में शेख हसीना को स्टूडेंट लीग की महिला विंग का महासचिव चुना गया।
पढ़ाई के दौरान न्यूक्लियर वैज्ञानिक से शादी :
साल 1967 में ईडन कॉलेज से ग्रेजुएट होने के बाद शेख हसीना का विवाह न्यूक्लियर वैज्ञानिक एमए वाजिद मियां से कराया गया। विवाह के बाद भी उन्होंने अपनी पढ़ाई और राजनीति में सक्रियता जारी रखी। 1969 से ही ईस्ट पाकिस्तान में बांग्लादेश के लिए आंदोलन शुरू हो गया था।
शेख हसीना ने बांग्लादेश के इस मूवमेंट में सक्रीय भागीदारी निभाई। जब उनके पिता को जेल भेज दिया गया तो शेख हसीना अक्सर उनसे मिलने जाया करती थीं और उन्हें देश की हालत से अवगत करती थीं, लम्बे समय तक ये दौर जारी रहा। फिर आया साल 1971 और बांग्लादेश में सब कुछ बदल गया। 26 मार्च 1971 से शुरू हुआ बांग्लादेश मुक्ति युद्ध, आखिरकार 16 दिसंबर साल 1971 को बांग्लादेश के जन्म के साथ समाप्त हुआ। शेख मुजीबुर्रहमान के नेतृत्व में बांग्लादेश ने नई सरकार का गठन हुआ।
अब शेख हसीना के जीवन में स्थिरता आने लगी थी। छात्र जीवन से राजनीति की शुरुआत करने वाली नेता अब दो बच्चों की मां भी थी। देश को पिता के नेतृत्व में आगे बढ़ता देख शेख हसीना ने पति के पास जर्मनी जाने का निर्णय लिया। साल 1975 के जुलाई महीने में शेख हसीना जर्मनी चली गई। उन्हें छोड़ने के लिए उनका पूरा परिवार आया था। तब शायद ही उन्होंने सोचा हो की ये अंतिम मुलाकात है...।
अब लौटते हैं शेख हसीना के भारत में निर्वासन के समय में...
शेख हसीना पर बांग्लादेश में प्रवेश करने पर रोक लगी हुई थी। अब शेख हसीना को भारत में लम्बा वक्त भी हो गया था। उधर बांग्लादेश में जियाउर रहमान के नेतृत्व में सैन्य शासन स्थापित हो चुका था। शेख हसीना अब और गुमनाम नहीं रह सकती थीं। वे सामने आई, उन्होंने बांग्लादेदश के लिए आवाज उठाई। साल 1981 में भारत में ही रहते हुए उन्हें अवामी लीग जिसकी स्थापना उन्ही के पिता ने की थी का अध्यक्ष चुना गया। अब शेख हसीना समेत पूरे बांग्लादेश की किस्मत बदलने वाली थी। आवामी लीग का अध्यक्ष चुने जाने के बाद शेख हसीना को हिम्मत आई उन्होंने बांग्लादेश लौटने का निर्णय लिया।
बांग्लादेश वापसी :
साल 1981 में ही वे बांग्लादेश लौट गई। शेख हसीना करीब 6 साल बाद अपने देश लौट रहीं थीं। देश लौटने पर भारी भीड़ उनके स्वागत के लिए पहुँची। देश लौटने के कुछ समय के बाद ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। खैर अब गिरफ्तारी और नजरबंदी का दौर शेख हसीना के लिए लम्बे समय तक जारी रहने वाला था। शेख हसीना पर तरह तरह के करप्शन चार्ज लगाकर गिरफ्तार कर लिया गया।
1981 से लेकर 1985 तक अलग - अलग मामलों में कभी उन्हें नजरअंदाज किया जाता तो कभी गिरफ्तार किया जाता। बांग्लादेश के लिए भी यह कठिन समय था। बांग्लादेश पर चुनाव करवाने का दबाव था। साल 1986 में ढाका में इलेक्शन तय किए गए। चुनाव के कुछ समय पहले ही शेख हसीना को रिहा किया गया था।
बहरहाल चुनाव हुए और बांग्लादेश में शेख हसीना के नेतृत्व में आवामी लीग ने करीब 100 सीटें हासिल की थीं। बहुमत आंकड़ा नहीं मिल पाया शेख हसीना को विपक्ष में बैठना पड़ा। ये चुनाव मार्शल लॉ के अंतर्गत कराए गए थे। कुछ लोग इस चुनाव में हिस्सा लेने के लिए शेख हसीना की आलोचना भी करते हैं।
19 बार हत्या के प्रयास :
बांग्लादेश में लोकतंत्र स्थापित करने के लिए शेख हसीना लगातार प्रयास कर रहीं थीं। इस बीच वे जगह - जगह रैली किया करती थीं। एक रिपोर्ट के अनुसार बांग्लादेश में शेख हसीना को मारने के लिए कुल 19 बार प्रयास किया गया। वे हर बार अपने समर्थकों के कारण बच जाती थीं। कई हमलों में उनकी पार्टी के कार्यकर्ता और नेता मारे गए। 1988 में तो उनकी कार में ही बम प्लांट कर दिया गया था।शेख हसीना चिटगांव में चुनावी रैली के लिए गई थीं। जिस समय उन्हें यह जानकारी मिली वो कार में ही सवार थीं। शेख हसीना को तो बचा लिया गया लेकिन इस हमले में करीब 80 लोगों की जान गई।
हत्या के इन प्रयासों से बचते बचाते साल आया 1991, बांग्लादेश में दोबारा चुनाव कराए गए। इस चुनाव में शेख हसीना को जीत की उम्मीद थी लेकिन बीएनपी को सामान्य बहुमत मिला। शेख हसीना ने आवामी लीग के अध्यक्ष पद से इस्तीफे की पेशकश की लेकिन पार्टी के अन्य नेताओं ने उन्हें इस्तीफ़ा नहीं देने दिया। हार के बाद शेख हसीना ने विपक्ष में बैठना स्वीकार किया।
पहली बार सत्ता में काबिज शेख हसीना :
1996 में आम चुनाव हुए शेख हसीना पहले बार बांग्लादेश की प्रधानंमंत्री बनी। उनका यह कार्यकाल बांग्लादेश और भारत के लिए बेहतर संबंधों की शुरुआत था। इसके बाद 2001 में भी चुनाव हुए और अब अवामी लीग हार गई। बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी यानी बीएनपी को दो तिहाई बहुमत मिला। शेख हसीना ने केयर टेकर गवर्नमेंट पर ठीक तरह से चुनाव न करवाने का आरोप लगाया। अब बीएनपी सत्ता में थी तो अवामी लीग के नेताओं की गिरफ्तार शुरू हुई।
15 दिन तक देश नहीं लौट सकी थीं हसीना :
बीएनपी का विरोध करते करते साल 2007 आया। शेख हसीना अमेरिका की यात्रा के लिए गई थीं। उनके जाते ही उनपर देश में प्रवेश करने से रोक लगा दी गई। शेख हसीना ने करीब 15 दिन अमेरिका में बिताए। बढ़ते दबाव के चलते बीएनपी को शेख हसीना से बैन हटाना पड़ा और फिर जब वो लौटी तो उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। जैसे ही हसीना एयरपोर्ट पर पहुँची भीड़ ने गर्म जोशी से उनका स्वागत किया। यह समय बिलकुल वैसा ही था जब शेख हसीना भारत से बांग्लादेश लौटी थीं।
साल 2009 से सत्ता पर काबिज़ :
शेख हसीना साल 2009 में हुए चुनाव में विजयी हुई। इसके बाद 2014 फिर 2019 और अब 2024 में वे दोबारा सत्ता में लौट आई हैं। बांग्लादेश में प्रमुख विपक्षी पार्टी ने इस बार चुनाव का बहिष्कार किया और मतदान प्रतिशत भी कुछ कम रहा लेकिन आवाम लीग को स्पष्ट बहुमत मिला है।
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