दिल्ली, भारत। पत्रकारिता जगत में ‘पाञ्चजन्य’ का 75 वर्ष पूरा हो गया है, इस मौके पर रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में ‘पाञ्चजन्य’ के ७५ वर्ष पूरे होने पर आयोजित कार्यक्रम में भाग लिया और कार्यक्रम को संबोधित किया।
इस दौरान केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने अपने संबोधन में कहा- आजाद भारत की प्रमुख साप्ताहिक पत्रिकाओं में राष्ट्रवादी विचारधारा से ओत-प्रोत ‘पाञ्चजन्य’ का अपनी यात्रा के 75 वर्ष पूरा कर लेना भारतीय पत्रकारिता जगत की एक महत्वपूर्ण घटना है। अंग्रेजी शासन के दमन और शोषण के खिलाफ पत्रकारिता लामबंद हुई। कई संपादकों और पत्रकारों ने आजादी के 'शस्त्रहीन' संघर्ष में अपनी आहुति दी। खतरे झेले। यातनाएं सही। पर विचलित नहीं हुए। स्वाधीनता की अग्नि में तपकर भारत में पत्रकारिता फली-फूली।
पत्रकारिता अपने चिरंतन मूल्यों में बुद्धिमान समाज की सबसे उद्देश्यपरक शक्ति है। कभी वह अंग्रेजों के दमनकारी ताकत के खिलाफ लड़ती थी। तो कभी उसने आपातकाल की निरंकुशता और तानाशाही के खिलाफ संघर्ष किया। तो कभी वह सत्ता की ताकत के दुरुपयोग को रोकने का स्वर गुंजाती है।रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह
आजादी से पहले पत्रकारिता के तीन चेहरे थे। पहला- आजादी की लड़ाई को समर्पित, दूसरा- सामाजिक उत्थान के लिए समर्पित और तीसरा चेहरा- समाज सुधार और रूढ़ियों और कुरीतियों का विरोध करने वाली पत्रकारिता का था।
तीनों को आजादी का महाभाव जोड़ता है। इन्हीं तीनों घटनाओं का संगम हमे भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में मिलता है। आजादी के बाद पत्रकारिता लोकतंत्र के प्रहरी के तौर पर अपनी भूमिका निभाती रही।
स्वतंत्र भारत में पत्रकारिता को संविधान का चौथा स्तम्भ कहा जाने लगा। इसलिए कि वह जनता की आवाज को अपनी अभिव्यक्ति का आधार बना समाज और समय के सच को निरंतर उजागर करती थी। पत्रकारिता, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच एक सेवा सेतु बनी।
उद्देश्यपरक पत्रकारिता से ही समाज और देश के निर्माण की उम्मीद है। पाञ्चजन्य की 75 साल की पत्रकारिता उसी उद्देश्यपरक संकल्पबध्ता का इतिहास है। स्वतंत्रता प्राप्ति के फौरन बाद 14 जनवरी, 1948 को आवरण पृष्ठ पर भगवान श्रीकृष्ण के शंखनाद के साथ पंडित दीनदयालजी के दिशा निर्देशन और अटलजी के संपादकत्व में 'पाञ्चजन्य' साप्ताहिक शुरु हुआ।
यह पत्रिका स्वाधीनता आंदोलन के प्रेरक आदर्शो एवं राष्ट्रीय लक्ष्यों का स्मरण दिलाते रहने के संकल्प का उद्घोष था। इस पत्रिका का नाम श्री कृष्ण के ‘पाञ्चजन्य शंख’ के नाम पर रखा गया था। पेशे से न तो दीनदयाल जी पत्रकार थे और न ही अटलजी ने पत्रकारिता का कोर्इ कोर्स कर रखा था। ये दोनों विभूतियां एक विचार से प्रेरित होकर पत्रकारिता जगत में आए और इस दायित्व के लिए जिस तरह की दृष्टि और प्रतिबद्धता की आवश्यकता थी, उसका दोनों ने ही बखूबी निर्वहन किया।
दीनदयाल और अटलजी दोनों के भीतर पत्रकार कम और साहित्यकार का स्वभाव अधिक था। इसके बावजूद दोनों ने मिलकर जहां पत्रकारिता को राष्ट्रवादी तेवर और कलेवर दिया, वहीं देश और समाज में एक जागरूकता भी पैदा की, जिसकी आजादी के तुरंत बाद बहुत अधिक आवश्यकता थी।
पाञ्चजन्य’ की शुरूआत उस दौर में हुई जब देश तो आजाद हो चुका था, मगर जिन हाथों में देश की बागडोर थी उनकी जो वैचारिक दिशा थी वह भारतीय मूल्यों और आवश्यकताओं के अनुरूप नही थी।
जब भारत आजाद नही था तब भी हमारे देश के कई राष्ट्रीय नेताओं ने बिना पत्रकारिता की कोई औपचारिक डिग्री लिए हुए पत्रकारिता के माध्यम से देश और समाज का जागरण किया था। इस तरह से पत्रकारों की लिस्ट बहुत लम्बी है, जिनमें पंडित मदन मोहन मालवीय, महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, लाल लालपत राय, सरदार भगत सिंह, गणेश शंकर विद्यार्थी, विनोबा भावे और यहां तक कि बापू भी इस सूची में शामिल है।
दीनदयाल जी के लिए पत्रकारिता ही एकमेव मिशन था और सच्चे स्वयंसवेक की तरह वे न केवल स्वयं इस काम को पूरे मनोयोग से कर रहे थे बल्कि साथ-साथ राष्ट्रवादी पत्रकारों की एक पूरी श्रृंखला तैयार कर रहे थे। अटलजी का नाम तो मैं ले ही चुका हूं, आडवाणीजी, बालेश्वर अग्रवालजी, राजीव लोचन अग्निहोत्री जी, वचनेश त्रिपाठी जी, राम शंकर अग्निहोत्री, के.आर. मलकानी जी, देवेन्द्र स्वरूप जी, भानु प्रताप शुक्ल जी ये सारे राष्ट्रवादी पत्रकारिता जगत के दिग्गज, दीनदयालजी की प्रेरणा से काम कर रहे थे।
एक और नाम मुझे याद आ रहा है, वह है तेलू राम काम्बोज जी का जो उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद से ‘प्रलयंकर’ नाम से एक पत्र निकालते है। आप में से कुछ लोग उनसे मिले भी होंगे पर शायद यह नही जानते होंगे कि उनके पत्र का नाम ‘प्रलयंकर’ दीनदयालजी ने ही रखा था।
मैंने किसी किताब में देखा था जहां इस बात का वर्णन है कि दीनदयालजी पहले ‘पाञ्चजन्य’ का नाम प्रलयंकर ही रखना चाहते थे। किन्ही कारणों वश यह संभव न हो सका। मगर अच्छी बात यह है कि दीनदयालजी के प्रेरणा से ‘पाञ्चजन्य’ और ‘प्रलयंकर’ दोनों आज भी प्रकाशित हो रहे हैं।
‘पाञ्चजन्य’ के शुरूआती दिनों में क्या-क्या समस्याएं नही आती थी। संसाधनों का अभाव से लेकर शासन सत्ता का पूरा विरोध झेलना। दीनदयालजी और अटलजी संपादन, प्रूफ रीडिंग, प्रकाशन से लकर कई बार प्रकाशित सामग्री का बंडल खुद साइकिल पर लेकर हाकरों तक पहुंचाने जाते थे।
उस समय सत्ता में बैठे हुक्मरानों की टेढ़ी नजर हमेशा ‘पाञ्चजन्य’ पर सबसे पहले पड़ती थी। अभी ‘पाञ्चजन्य’ को शुरू हुए महीना भी नही बीता था कि बापू की हत्या से उपजे वातावरण का फायदा उठाते हुए तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इसके प्रकाशन पर रोक लगा दी। ‘पाञ्चजन्य’ पर बार-बार लगाई जा रही जबरदस्ती की रेाक न केवल राष्ट्रवादी पत्रकारिता पर हमला था बल्कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी पूरा हनन था।
जब भारतीय संविधान लागू किया गया तो Article 19 में हर भारतीय नागरिक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे संविधान निर्माताओं ने सुनिश्चित की।मगर राष्ट्रवादी विचारधारा को कुचलने के लिए जल्द ही तत्कालीन शासकों ने भारतीय संविधान में संशोधन करते हुए उस पर पाबंदियां लगा दी।
लोकतंत्र की मजबूती के लिए जहां विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच 'Separation of Power' का सिद्धान्त लागू किया जाता है, वहीं मीडिया जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, उसकी स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी लोकतंत्र की मजबूती के लिए बेहद जरूरी है।
हमारे संविधान निर्माताओं ने Article 19 के माध्यम से यह सुनिश्चित भी किया। फिर ऐसा क्या हुआ कि 1951 में यानि एक साल के बाद ही उस संविधान में संशोधन करने की नौबत आ गई जिसे ‘दुनिया का सबसे उत्तम संविधान’ माना गया। कारण बहुत साफ था। कांग्रेस पार्टी जो उस समय पूरे देश पर एकक्षत्र राज कर रही थी उसे विरोध सुनना गवारा नही था। लोकतंत्र में विरोध का अधिकार हर व्यक्ति को है। मगर कांग्रेस किसी भी किस्म की आलोचना को दबाने के लिए इतनी उतावली थी कि संविधान को ही बदल डाला।
मैं दो पत्रिकाओं का यहां नाम लेना चाहूंगा। एक थी ‘क्रास रोड्स’ जो वामपंथी विचार से प्रेरित थी और मद्रास से निकलती थी। दूसरी थी इसी विचार परिवार की मैगजीन 'Organiser'. ये दोनों ही पत्रिकाएं कांग्रेस को इतनी नागवार गुजरी कि प्रतिबंद्ध लगा दिए गए।
संविधान में पहले संशोधन को पारित करने के लिए कई दिनों तक बहस चली। मगर जो बहस इस बिल पर सदन में हुर्इ है उस दौरान डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर जो जोरदार बहस की है, वह आज भी उतनी प्रासंगिक है जितनी 1950 के दशक में थी। मैं मानता हूं कि आजाद भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर जिस तरह की वकालत हमारे प्रेरणा स्रोत और मार्गदर्शक डॉ. श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने की है वह अपने आपमें बेमिसाल है। उसके बारे में हर भारतीय को जानना और समझना चाहिए। मेरी दृष्टि में आजाद भारत में Freedom of Speech और Freedom of Expression के सबसे बड़े पैरोकार हमारे नेता और प्रेरणास्रोत डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी थे।
‘पाञ्चजन्य’ ‘राष्ट्रधर्म’ जैसी पत्रिकाओं की विश्वसनीयता बनाने के लिए दीनदयालजी और अटलजी ने मिलकर परिश्रम किया है क्योंकि Credibility ऐसे ही नहीं बनती। जब मिशन की स्पष्टता होती है तो दमन से आपको दबाया नही जा सकता। किसी भी ताकत के आगे न झुकना ही पत्रकारिता की असली ताकत है।
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