पूर्वी राजस्थान की 40 से 50 विधानसभा सीटों पर गुर्जर समुदाय करता हैं विधायक का फैसला
राजस्थान की सामाजिक संरचना जाति व्यवस्था के साथ जटिल रूप से जुड़ी हुई है।
जाट समुदाय दोनों दलों के बीच बंटा हुआ नज़र आ रहा है।
राज एक्सप्रेस। राजस्थान, भारत के उन बड़े राज्यों में से एक है जिनकी राजनीति में जाति सबसे अहम् भूमिका निभाती है। वैसे तो राजस्थान के भीतर लगभग हर जाति वर्ग निवास करता है, लेकिन इनमे कुछ जातियां है, जिनके हाथ में आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर मुख्यमंत्री के पद की चाबी होती है। राज्य में 200 विधानसभा सीटें हैं, जहां चार जातियां जाट, राजपूत, मीना और गुज्जर प्रमुख भूमिका निभाती हैं।
राजस्थान की सामाजिक संरचना जाति व्यवस्था के साथ जटिल रूप से जुड़ी हुई है, हालाँकि, महाराष्ट्र, हरियाणा या कर्नाटक के विपरीत, जहाँ मराठा, जाट या लिंगायत जैसी विशिष्ट जातियाँ हावी हैं, राजस्थान की जाति संरचना विविध है। यह लेख राजस्थान की उसी विविध संरचना को ध्यान में रखकर चुनावों में हावी जातिय समीकरणों का आकलन करने का प्रयास करेगा।
राज्य की लगभग 10% आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाले, जाट कई उप-जातियों में विभाजित हैं, जिनमें अहलावत, पूनिया और अन्य शामिल हैं। इनका प्रभाव मुख्यतः मारवाड़ और शेखावाटी क्षेत्रों में है और इनकी उपस्थिति 40 विधानसभा क्षेत्रों में है। जाट समुदाय वैसे तो पारंपरिक तौर पर कांग्रेस के साथ रहा था लेकिन कुछ सालों से वह भाजपा की तरफ शिफ्ट होता दिखाई दिया है। जाट समुदाय मुख्य रूप से दोनों दलों (भाजपा और कांग्रेस) से एक मुख्यमंत्री की मांग करते हैं। हालाँकि, यह मांग अभी तक पूरी नहीं हुई है। भाजपा और कांग्रेस दोनों ने अपने इकाई प्रमुख के रूप में दोनों जाट चेहरों सतीश पूनिया और गोविंद डोटासरा को चुना था।
बरहाल, कुछ सालों के भीतर भाजपा से निष्काषित होने के बाद खुद की पार्टी बनाने वाले हनुमान बेनीवाल जाट समुदाय की राजनीती के बीच अपनी नयी पहचान बनाई है। इस साल मार्च में जयपुर में हुए जाट महाकुंभ में भी मांग राखी गयी थी कि राज्य का मुख्यमंत्री जाट समुदाय से हो।1950 से 1990 तक कांग्रेस ने जाटों का खूब समर्थन प्राप्त किया था। इसी के विपरीत जाट समुदाय के युवाओं के बीच कांग्रेस को लेकर नाराज़गी भी बढ़ने लगी थी क्योंकि कांग्रेस ने 1990 तक एक भी जाट नेता को मुख्यमंत्री नहीं बनाया था। इसी गुस्से की वजह से और अन्य मांगों को लेकर 1990 में जाट आंदोलन की शरुआत हुई थी। इन मांगों में से एक था जाट समुदाय को ओबीसी का दर्जा देना।
इस पूरे जाट प्रकरण को भाजपा ने राज्य अपनी जड़े मजबूत करने वाले मौके की तरह देखा।1990 में पहली बार भाजपा की सरकार बानी लेकिन मुख्यमंत्री बड़े राजपूत नेता भैरों सिंह शेखावत को बनाया गया था। इसी बीच 1998 में पहली बार अशोक गेहलोत को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया था लेकिन वो भी जाट नेता नहीं थे। राजस्थान को पहला जाट मुख्यमंत्री भाजपा ने दिया जब 2003 में वसुंधरा राजे ने मुख्यमंत्री पद की शपत ली थी। वर्तमान की अगर बात करे तो जाट समुदाय दोनों दलों के बीच बंटा हुआ नज़र आ रहा है। एक तरफ जहा किसान आंदोलन और भाजपा के बड़े जाट नेता वसुंधरा राजे एवं सतीश पूनिया को किनारे करना जाट समुदाय के लोगों के बीच भगवा दाल के लिए गुस्से को बढ़ा रहा था।
वही जाट समुदाय की मांगों को न माने वाली गेहलोत सर्कार से भी जाट खफा नज़र आ रहे है। कांग्रेस ने जाटों को लुभाने के लिए बड़े जाटलैंड के नेता गोविन्द सिंह डोटसारा को प्रदेश अध्यक्ष बनाया था लेकिन उन्ही के पार्टी नेताओं द्वारा जाट समुदाय के खिलाफ बोले गए बयान अशोक गेहलोत का काम ख़राब कर रहे है। हालाँकि, पिछले कुछ समय में कांग्रेस ने भाजपा के कई बड़े जाट नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल कर राजपूत मतों को साधने का प्रयास किया है।
लगभग 6-8% आबादी वाले राजपूत, एक समय राजस्थान के राजनीतिक परिदृश्य पर हावी थे। हालाँकि स्वतंत्रता के बाद समुदाय से केवल एक ही मुख्यमंत्री (भैरों सिंह शेखावत) चुना गया है, लेकिन उनका प्रभाव कम नहीं हुआ है। राजपूत समुदाय 30 विधानसभा सीटों पर अपना प्रभाव रखता है और ऐतिहासिक रूप से राजस्थान की राजनीती का सेंटर पॉइंट रहा है। जाटों के विपरीत, राजपूतों ने लंबे समय तक भाजपा पर भरोसा किया है। बहरहाल, 2018 के चुनावों में, भाजपा की हार सबसे बड़ा कारण राजपूत समुदाय ही था।
सालों तक राजपूत समुदाय का समर्थन का लुफ्त उठाने वाली भाजपा को फिल्म पद्मावत, जसवंत सिंह का बाड़मेर से टिकट काटना और राजपूत समुदाय से आने वाले हिस्ट्रीशीटरों के एनकाउंटर ने राजपूत समुदाय को भाजपा के खिलाफ जाने को मजबूर कर दिया था। हालाँकि, ताज़ा आए ओपिनियन पोल्स की माने तो भाजपा इस गुस्से शांत करने में सफल हुई है। भाजपा ने बड़े राजपूत नेता लोकेन्द्र सिंह कालवी के बेटे और पोलो खिलाडी भवानी सिंह कालवी को दिल्ली में कैबिनेट मंत्री अर्जुनराम मेघवाल की उपस्थिति में पार्टी में शामिल कर राजपूत के गुस्से को शांत करने का कार्य किया।
यही नहीं, महाराजा महाराणा प्रताप के वंशज विश्वराज सिंह मेवाड़ को पार्टी में शामिल कराया। विश्वराज सिंह मेवाड़ को शामिल कर भाजप ने राजपूत मतदाताओं के बीच यह मैसेज देने का प्रयास किया की वह राजपूतों का कितना सम्मान करती है। कांग्रेस ने राजपूत मतदाताओं को लुभाने के लिए इस बार सबसे ज्यादा टिकट राजपूत समुदाय के प्रत्याशियों को दिए है। हालाँकि, ऐतिहासिक दृष्टि से कांग्रेस को कभी भी राजपूतों का समर्थन नहीं मिला है। राजपूतों का मानना था की कांग्रेस एक ऐसी पार्टी हैं जिसने भारत के इतिहास में उनके वीर और महान योद्धाओं और उनके संस्कृति के योगदान को पूरी तरह से स्वीकार नहीं किया।
कांग्रेस की कृषि नीतियां और भूमि सुधार कभी-कभी पारंपरिक सामंती व्यवस्था से टकराते थे। भूमि का पुनर्वितरण और हाशिए पर रहने वाले समुदायों को सशक्त बनाने के उद्देश्य से बनाई गई इन नीतियों को अक्सर राजपूतों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति और भूमि स्वामित्व के लिए खतरा माना जाता था, जिससे समुदाय और पार्टी के बीच तनावपूर्ण संबंध पैदा हो गए। बहरहाल इसके विपरीत कांग्रेस को 2018 के चुनाव में राजपूतों का भरी समर्थन भी प्राप्त हुआ था जिसके कारण ही उनकी सरकार में वापसी हुई थी।
गुर्जर, जिनकी आबादी लगभग 9 से 12 प्रतिशत है और पूर्वी राजस्थान की 40 से 50 विधानसभा सीटों पर महत्वपूर्ण हैं, कांग्रेस और भाजपा दोनों के लिए एक महत्वपूर्ण वोट बैंक हैं। कांग्रेस के सबसे बड़े गुर्जर नेता सचिन पायलट है जो कि इस बार भी मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदारों में से एक है। दूसरी तरफ, भाजपा ने विजय बैंसला को मैदान में उतारा है। बैंसला गुर्जर आरक्षण आंदोलन में अहम् भूमिका निभाने वाले कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के बेटे है। पिछली बार भाजपा ने 11 गुर्जर जाति के उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था, लेकिन सभी को हार का मुंह देखना पड़ा था क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में गुर्जर समुदाय ने कांग्रेस को वोट किया था।
गुर्जर समुदाय का कांग्रेस को इतना बड़ा सपोर्ट देने का सबसे बड़ा कारण यह था कि उन्हें उम्मीद थी कि कांग्रेस सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाएगी। इस बार गुर्जर वोटर्स को साधना कांग्रेस के लिए बड़ी चुनौती है क्योंकि सचिन पायलट को सीएम नहीं बनाने से गुर्जर वोटर्स नाराज है। इस नाराज़गी की आग में घी डालने के काम स्वयं मुख्यमंत्री अशोक गेहलोत ने किया जब उन्होंने सचिन पायलट को डिप्टी सीएम और प्रदेशाध्यक्ष के पद हटवा दिया और लगातार उनके खिलाफ बयानबाज़ी की। अशोक गेहलोत और सचिन पायलट के बीच के इस टकराव ने गुर्जर समुदाय को कांग्रेस से अलग होने का काम किया बल्कि राज्य में कांग्रेस की छवि को भी क्षति पहुंचाई है।
बहरहाल, कांग्रेस के अंदरूनी सूत्रों और स्थानीय मीडिया रिपोर्ट्स की माने तो सचिन पायलट और राहुल गाँधी के बीच किसी एक बड़े विषय को लेकर सहमति हो गयी है और उन्हें कांग्रेस वर्किंग कमिटी का सदस्य बना दिया गया है। सीडब्लूसी का सदस्य बनाएं जाने के बाद पायलट पूरे ज़ोर से साथ चुनाव प्रचार में लग चुके है। दूसरी तरफ, भाजपा ने राज्यसभा सांसद किरोड़ी लाल मीणा को सवाई माधोपुर विधानसभा से चुनाव मैदान में उतारा है।
पूर्वी राजस्थान के जिलों में बसने वालों यह अनुसूचित जनजाति का राजस्थान की राजनीति में बड़ा किरदार निभाते हुए आई है। राजस्थान की कुल जनसँख्या का 7 प्रतिशत होने के कारण मीणा जाति का लगभग 13-15 विधानसभा सीटों बड़ा असर देखने को मिलता है। इस जनजाति का प्रभाव पूर्वी राजस्थान के बहार भी देखा जा सकता है जैसे की करौली, धौलपुर और उदयपुर। मीणा जाति के सबसे बड़े नेता है किरोड़ी लाल मीणा जिन्हें पूर्वी राजस्थान में बाबा किरोड़ी के नाम से भी जाना जाता है। किरोड़ी लाल मीणा भाजपा के लिए सबसे जरुरी मीणा नेता है।
हालाँकि, 2008 में उन्होंने भाजपा छोड़ अपनी नई राष्ट्रीय जनता पार्टी की स्थापना कर बीजेपी को बड़ा झटका दिया था लेकिन 10 सालों बाद 2018 में वह फिर भाजपा से जुड़ गए थे। बहरहाल, किरोड़ी लाल मीणा को अपनी पार्टी से जोड़ने के बाद भी भाजपा को फ़ायदा नहीं पंहुचा और मीणा जाती बहुल सीटों में उन्हें सबसे बड़ी हार का मुँह देखना पड़ा था। वही दूसरी कांग्रेस ने रमेश चाँद मीणा से जैसे नेता को 2008 में पार्टी में शामिल कर किरोड़ी लाल मीणा के वर्चस्व को काम करने का काम किया है।
किरोड़ी लाल मीणा पांच बार विधायक, 2 बार लोक सभा सांसद और वर्तमान में राज्य सभा सांसद है। उन्हें इस बार फिर सवाई माधोपुर से कांग्रेस के गद्दावर नेता अबरार अहमद के बेटे दानिश अबरार को हारने का जिम्मा सौपा गया है। इसके आलावा किरोड़ी लाल मीणा को मीणा बहुल इलाकों में भाजपा का परचम लहराने का भी कार्यभार सौपा गया है।
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