राज एक्सप्रेस। "भोपाल", मध्य भारत का एक छोटा कस्बा, मध्यप्रदेश की राजधानी, झीलों का शहर और गंगा-जमुनी तहजीब का एक बेहतरीन उदाहरण। भोपाल के साथ, ये सबकुछ आपने सुना होगा। साथ ही यह भी, दुनिया की सबसे भयानक औद्योगिक आपदा का साक्षी और देश में हुए सबसे खतरनाक दंगों का स्थान।
भोपाल में पहली और आखिरी बार(दिसंबर 2019 तक) धार्मिक दंगे दिसंबर 1992 में हुए। इससे पहले साल 1984 में 2 दिसंबर की रात यहां यूनियन कार्बाइड की फैक्टरी से निकली एक ज़हरीली गैस ने हज़ारों लोगों को मौत की नींद सुला दिया तो 50 लाख से भी अधिक लोग इससे प्रभावित हुए।
कार्बाइड फैक्टरी से निकली यह ज़हरीली गैस, मिथायल आइसोसाइनेट(MIC- Methyl Isocyanate) थी। तब इस गैस के बारे में या इसके लगने पर बचाव के बारे में कोई खास जागरूकता नहीं थी।
इस समय काज़ी कैंप में किराए से रहने वाले मुबारक खान बताते हैं कि, "हम लोग बिस्तर कर के लेटे ही थे कि, ठसका चलने लगा, अचानक खांसी चलने लगी। हमें लगा किसी ने मिर्ची जला कर छोड़ दी है। आधे घंटे में तो हर तरफ धुंआ ही धुंआ भर गया। आमने-सामने वाले एक-दूसरे से बात नहीं कर पा रहे थे, न चिल्ला पा रहे थे। मेरे एक साल के बेटे को लेकर मैं पूरी रात टहलता रहा। वो खांसता रहा। मुझे भी बहुत ज़्यादा खांसी हो रही थी।"
"जब सुबह हुई तो पता चला कि कोहराम मचा हुआ है। हर तरफ लाशें थीं। किसी तरह अस्पताल पहुंचे लेकिन बेचैनी होती रही। तीन दिन बाद मुझे खतरनाक उल्टी हुई, कीट की तरह कुछ बाहर निकला। तब जाकर कुछ ठीक लगा। मेरे घुटने बेकार हो गए इस कारण, चलने में बहुत दिक्कत होती थी। मैं तो किसी तरह बच गया बस ये समझ लीजिए। ज़िन्दगी होगी तो बच गया, नहीं तो चले जाता।"मुबारक खान, भोपाल निवासी
मुबारक खान टेक्सटाइल मिल में काम करते थे। साल 2004 में वे सेवानिवृत्त हो गए थे। गैस की वजह से उनकी पत्नी को टायफॉयड हो गया था। साल 2012 में इस ही बीमारी के चलते उनकी मृत्यु हो गई।
2 दिसबंर, 1984 की आधी रात में एक अमेरिकी कंपनी यूनियन कार्बाइड की भोपाल शाखा से ज़हरीली गैस निकली। मिथायल आइसोसाइनेट नाम की इस गैस ने पूरे शहर को गैस चैम्बर में तब्दील कर दिया। लोग बेतहाशा भागे, उल्टी करते, गिरते-पड़ते किसी तरह अपनी जान बचाने की कोशिश में भागते रहे।
एमआईसी के साथ और भी कई तरह की ज़हरीली गैस उस रात भोपाल के वातावरण में रिस गईं। जिस कारण यहां के लोगों को अपनी जान बचाने के लिए भागना पड़ा। इस दौरान कई लोग शहर छोड़ कर भी चले गए थे।
बर्बादी का यह मंजर देखने वालीं हामिदा बी बताती हैं कि, लोग खांस-खांसकर बेहाल होते जा रहे थे, वे गिरते और फिर नहीं उठते। वे हमेशा के लिए सो गए। किसी की आंखें फूल गईं तो किसी बांह फूल कर पेट जितनी हो गई। जिसको भी गैस लगी उसकी हालत खराब थी। जिधर देखा, उधर लाशें ही लाशें पड़ी थीं। लोगों को एक साथ दफनाया गया, बिना नाम के। सैकड़ों लोगों का एक साथ दाह संस्कार किया गया।
गैस त्रासदी का यह त्वरित परिणाम तो सबने देखा लेकिन जो लोग नहीं जानते थे वो ये कि, इसका प्रभाव आने वाली कई पीड़ियों को झेलना था। गैस कांड के बाद पैदा हुई दो से तीन नस्लें इसके प्रभाव से अछूती नहीं रहीं। कोई बच्चा अपंग पैदा हुआ तो कोई मानसिक रूप से विक्षिप्त। इस दुर्घटना में लगभग 20,000 लोग मारे गए। अलग-अलग स्त्रोत इसकी अलग-अलग जानकारी देते हैं। इनके अलावा 50 लाख से भी अधिक लोगों को इसने प्रभावित किया।
यूनियन कार्बाइड के प्लांट से गैस का रिसाव होना गलती हो सकती है लेकिन यह हमारी लापरवाही का नतीज़ा है कि आज भी गैस-पीड़ितों को इंसाफ के लिए गुहार लगानी पड़ रही है। मध्यप्रदेश सरकार ने इन पीड़ितों के लिए अलग से गैस राहत मंत्रालय बनाया। अस्पताल भी खोला लेकिन कई पीड़ित आज भी सही मुआवज़े के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं।
गैस लगने से कई लोगों को टीबी, अनिमिया और कैंसर जैसी बीमारियां हो गईं। ये बीमारियां उन बच्चों को भी हुईं जो उस समय अपनी मां के पेट में थे और गैस कांड के बाद पैदा हुए। वहीं यूनियन कार्बाइड की फैक्टरी, जहां से यह गैस लीक हुई वहां अब भी कैमिकल वेस्ट होने के कारण शहर का ज़मीनी पानी भी खराब होता रहा।
यह सबकुछ सही तरीके से नियंत्रित किया जा सकता था लेकिन सरकार को एमआईसी के बारे में कोई जानकारी नहीं थी, न उसके इलाज के बारे में डॉक्टर्स और लोगों को कुछ खास पता था। डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट के अनुसार, साल 2014 में भी इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च को नहीं पता था कि गैस लगने से कितना व्यापक नुकसान हुआ और क्यों?
आईसीएमआर ने लगभग 24 रिसर्च स्टडीज़ भोपाल गैस कांड पर कीं पर साल 1994 से इन्हें बंद कर दिया गया और रिसर्च की तमाम ज़िम्मेदारी मध्यप्रदेश सरकार पर छोड़ दी गई। इन रिसर्च्स में सामने आया था कि, लोगों को फेफड़ों और आंखों से सम्बन्धित कई बीमारियां गैस लगने की वजह से हुई थीं।
गैस त्रासदी के 5 साल बाद साल 1989 में यूनियन कार्बाइड ने लोगों को मुआवज़ा देने के लिए 470 मिलियन डॉलर ज़ुर्माने के रूप में दिए। उस समय इनकी कीमत 750 करोड़ रूपए थी। यह भारत सरकार द्वारा मांगे गए मुआवज़े का 1/7 हिस्सा था। इसके बदले कंपनी के विरूद्ध सभी सिविल और क्रिमिनल केस बंद कर दिए गए।
इससे लगभग 5 लाख 74 हज़ार लोगों को गैस पीड़ित होने के नाते मुआवज़ा मिला। हुआ यह कि इन 5 सालों में सरकार ने जो अंतरिम मुआवज़ा लोगों को दिया था वो इससे काट लिया गया तो लोगों को 15 हज़ार से भी कम रूपए मिले।
लोगों ने यह भी इल्ज़ाम लगाए कि जो लोग गैसकांड से प्रभावित नहीं हुए थे उन्हें मुआवज़ा मिल गया जबकि जो पीड़ित थे उनमें से कई लोगों को मुआवज़ा नहीं मिला है। यह इसलिए हुआ क्योंकि न तो सरकार और न ही कानून ने सख्त कार्रवाई करते हुए कंपनी को इस अनर्थ के लिए ज़िम्मेदार ठहराया। सर्वोच्च न्यायालय में केस बंद होने के बाद कंपनी ने अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया।
कई रिपोर्ट्स में कहा गया कि कंपनी में कैमिकल्स बनाने के लिए उपकरण थे, वे खराब थे लेकिन यूनियन कार्बाइड ने इसे नहीं माना। उन्होंने तर्क दिया कि कंपनी में काम करने वाले किसी व्यक्ति ने जानबूझकर वॉल्व खुला छोड़ दिया और प्रेशर कंट्रोल करने वाले उपकरण को खराब कर दिया। इस कारण से पानी एमआईसी में चला गया और एक्ज़ोथर्मिक रिएक्शन हुआ। जिसके चलते एमआईसी धुंआ बनकर फैल गई।
इस दुर्घटना में कई तरह की लापरवाहियों का ज़िक्र तमाम मीडिया रिपोर्ट्स में मिलता है। घटना के समय चिकत्सकों नहीं बताया गया कि कौन सी गैस लीक हुई है। न ही इसके सही इलाज के बारे में बताया गया। आईसीएमआर ने अपनी स्टडीज़ को पूरा नहीं किया, जिनसे ये पता चलता कि लोग कितना अधिक इससे प्रभावित हुए हैं। न ही प्रभावित हुए लोगों के सही इलाज पर कोई जानकारी सामने आई।
सरकार ने माना कि इस दुर्घटना में 5,295 लोगों की मौत हुई और 6,199 लोग घायल हुए। सरकार ने ये नहीं माना कि इस गैस त्रासदी का प्रभाव लोगों पर सालों तक रहा और कई लोगों पर अब भी है।
6 दिसंबर 1992, हमारे देश के इतिहास की एक काली रात। जब हज़ारों की तदाद में एक समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के प्रार्थना स्थल को गिरा दिया। इसके बाद देश के कई स्थानों में दंगे फैल गए। मुम्बई में हुए दंगों का ज़िक्र मिलता है लेकिन एक और शहर था जो इन दंगों की आग में जल रहा था, भोपाल।
भोपाल में हुए दंगों के लिए सांप्रदायिक भड़काऊ भावनाओं से अधिक यहां का समाचार जगत ज़िम्मेदार है। फर्स्टपोस्ट में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, 7 दिसंबर से शुरू हुए ये दंगे दो हफ्ते तक चले और इनमें 143 लोगों की जानें गईं। जबकि तत्कालीन समय के लोगों का कहना है कि, असल में मरने वाले लोगों की संख्या इससे दोगुना है।
हिन्दी के अखबारों ने इस दौरान दंगों को खत्म करने के बजाए उन्हें भड़काने वाली खबरें लिखीं। बहुसंख्यक वर्ग पर होने वाले जुर्मों की अफवाहें लोगों तक समाचार पत्र की प्रमाणित मोहर के साथ पहुंचीं। इन खबरों ने लोगों में नफरत फैलाने का काम किया। लगभग सभी दैनिक अखबारों ने झूठी अफवाहों को खबर का रूप देकर उनका प्रमाणीकरण दिया।
एक अखबार ने हैडिंग लगाई कि, 'बारूद से भरा टैंकर भोपाल आया।' वहीं दूसरे अखबार ने छापा कि, "औरतों का बलात्कार कर, स्तन काट दिए"। पत्रकारों ने जब इस खबर के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री से जांच की मांग की तो पाया गया कि यह खबर गलत थी। जब जांच की यह टीम जेपी अस्पताल महिला के बारे में पता करने पहुंची तो उन्हें इस तरह का कोई मामला नहीं दिखा।
इसके बाद जिस रिपोर्टर ने यह खबर छापी थी उसने माना कि बहुसंख्यक समुदाय के एक प्रभावी कट्टरपंथी संगठन के दबाव में आकर उसने यह खबर छापी थी। साथ ही ऐसी कई खबरें दबाव में और हिंसा भड़काने के लिए छापी गई थीं।
ताज्ज़ुल मस्जिद में पाकिस्तानी नागरिकों के छुपे होने की अफवाह भी उड़ाई गई। महिलाओं के खिलाफ हुए अपराधों के बारे में भी बढ़ा-चढ़ाकर लिखा गया जिससे यहां की जनता में शांति और सद्भाव की जगह नफरत फैली। पुराने भोपाल और बीएचईएल के कुछ इलाकों में इनका असर सबसे अधिक हुआ। आर्मी के मौजूद होने और धारा 144 लगने के बावजूद यह दंगे दो हफ्ते तक चलते रहे।
इन दंगों में मीडिया की भूमिका पर मशहूर लेखक और पद्मश्री से सम्मानित मंज़ूर एहतेशाम कहते हैं कि, "मीडिया का हाथ तो था। उन्हें पढ़ कर लग ही नहीं रहा था कि ये वही अखबार हैं जिन्हें रोज़ पढ़ते हैं। पूरा कि पूरा कवरेज एक तरफा था और वो अल्पसंख्यकों के विरूद्ध था। उस वक्त मीडिया का यह रूप खुल कर दिखा।"
हिन्दी साहित्य के वरिष्ठ लेखक मंज़ूर एहतेशाम भोपाल निवासी हैं। वे गैस त्रासदी और 92 के दंगों के बीच यहीं रहे और शहर की आबोहवा में हो रहे बदलाव को उन्होंने काफी नज़दीक से महसूस किया। भारत के चतुर्थ सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार से सम्मानित, साथ ही साहित्य के कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाज़े गए मंज़ूर एहतेशाम दोनों घटनाओं को बहुत ही निराशाजनक बताते हैं।
"ये लगता है कि बावजूद इसके कि सब लोग परेशान थे, चिंतित थे कि क्या होगा पर फिर भी ये अंदाज़ा नहीं था कि भोपाल में खासतौर पर जबकि ये गैस त्रासदी हो चुकी थी जिसे दोनों ही समुदायों को एक साथ झेलते हुए देखा था कि इतना गंदा कुछ होगा। इसमें बाकायदो दो वर्गों में बंटकर एक-दूसरे के खिलाफ कार्रवाई होगी लेकिन वो हुआ। उसके पीछे राजनीति कितनी थी और स्वाभाविक कितना था, यह तो आने वाला समय ही तय करेगा बहरहाल, उस वक्त जो था वो अच्छा नहीं था।"मंज़ूर एहतेशाम, वरिष्ठ लेखक
वो यह भी कहते हैं कि, "हैरत इस बात की हुई, लग यह रहा था कि, गैस त्रासदी में लगा था कि लोग एक-दूसरे के करीब आए हैं लेकिन 92 में पता चला कि नहीं करीब नहीं आए हैं। लोगों के अपने मुद्दे हैं और वो उनको साध रहे हैं।"
दंगो के बाद भोपाल की राजनैतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों में किस तरह का बदलाव आया इस पर वो कहते हैं कि, "उसके बाद से अच्छा तो नहीं हुआ। राजनैतिक तौर पर भी स्थिर नहीं हो पाया है। ऊपरी तौर पर सब सामान्य है लेकिन अंधरूनी तौर पर कैसा है, क्या है, कहना मुश्किल है। लगता है कि राजनैतिक तौर पर इसे पनपाया जा रहा है। सोच नहीं बदल रही है।"
दंगो के समय हुआ मतभेद बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदायों में आज भी कायम है। शहर के रिहायशी इलाकों के विभाजन को देखकर आप यह समझ सकते हैं। भोपाल दंगों पर आई रिपोर्ट के अनुसार, इन दंगों में 35 करोड़ रूपए की सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचा। जबकि प्रत्यक्षदर्शी और अन्य रिपोर्ट्स के अनुसार, नुकसान लगभग 55 से 60 करोड़ रूपए का हुआ था। मुआवज़े के तौर पर देखा जाए तो राज्य सरकार ने 110 मामलों में मात्र 2.42 करोड़ रूपए का भुगतान किया है।
मुझे भोपाल में रहते हुए लगभग 20 साल हो गए हैं। इन वर्षों में मैंने कभी नहीं जाना कि यहां कोई दंगा हुआ था। न ही लोगों के व्यवहार में वो नफरत देखने को मिलती है लेकिन 92 में हुए दंगों ने लोगों में दूरी ज़रूर ला दी है। सांस्कृतिक मोर्चा मंच और पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स, दिल्ली द्वारा अप्रैल 1993 में जारी रिपोर्ट में दंगों के माहौल पर एक महिला कहती हैं कि,
चाहे 84 की गैस त्रासदी हो या 92 के सामुदायिक दंगे, भोपाल में दिसंबर माह एक काली रात की तरह है। जिसके स्याह अंधेरे ने हज़ारों लोगों को लील लिया और लाखों को अपाहिज कर दिया, शारीरिक, मानसिक और वैचारिक सभी स्तरों पर। दोनों ही घटनाओं का भयावह प्रभाव चाहे क्षणिक रहा हो लेकिन इसका असर बहुत दूर तक गया।
जहां एक ओर गैस ने भोपाल की कई पीढ़ियों को बर्बाद कर दिया तो वहीं सामुदायिक दंगों ने लोगों में नफरत भर दी। जो शहर गैस लीक होने के दौरान एक साथ खड़ा हुआ था वो दंगों में दो समुदायों में बंट गया।
हमीदा बी ठीक ही कहती हैं, "पहले जब यहां किसी हिन्दू के घर शादी होती थी तो मुसलमानों से सलाह ली जाती थी। जब मुसलिमों के घर निकाह पड़ा जाता था तो हिन्दुओं से पूछा जाता था। लोग एक-दूसरे के सुख-दुख में शरीक होते थे। अब देख लीजिए आप, लोग आंख मिलाने में भी कतराने लगे हैं। ऊपर से सब ठीक दिखता है लेकिन अंदर ही अंदर एक डर बैठा हुआ है।"
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