राज एक्सप्रेस। भारत को अंग्रेजों से आजाद हुए 77 साल हो गए है, देश अंग्रेजों से तो आजाद हो गया पर अंग्रेजी से नहीं हो पाया। इस बात का ताजा उदाहरण हमारे सामने है। बीते दिन 1 जून गुरूवार को मध्यप्रदेश के इंदौर में एक इंजीनियरिंग पाठ्यक्रम की छात्रा ने अंग्रेजी भाषा का अच्छा ज्ञान नहीं होने पर आत्महत्या कर ली। अंग्रेजी भाषा किसी की जान से बढ़कर कैसे हो सकती है। अंग्रेजी भाषा को इतना महत्वपूर्ण किसने बनाया? जबकि हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेशों में जाकर भी अपना भाषण अपनी राजभाषा हिंदी में ही देते है, तो किसी स्टूडेंट को इंग्लिश नहीं आने पर उसे उस भाषा में क्यों बांधा जाता है? अंग्रेजी भाषा नहीं आने पर किसी को इतना प्रताड़ित करना क्या सही है? और इसमें हमारे समाज और शिक्षण संस्थान की क्या भूमिका हो सकती है। आइयें जानते है...।
समाज का भाषायी भेदभाव :
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 343 (1) कहता है कि संघ की राजभाषा हिंदी है तथा उसकी लिपि देवनागरी है। इसके बाद भी समाज के द्वारा यह भाषायी भेदभाव जारी है। जिससे बच्चों की मानसिकता पर गहरा असर पड़ता है। हमारी राजभाषा हिंदी है तो उसे बाकी भाषाओं से कम क्यों आंका जाता है। अंग्रेजी भाषा समाज में मान्यता का पैमाना नहीं है। हम जिस समाज में रहते है वहां के लोगों की दोहरी मानसिकता है। इस बात का सबूत यह है कि जब किसी को हिंदी भाषा नहीं आती या हिंदी समझ नहीं आती तब उसे यह कह कर टाल दिया जाता है कि वह ज्यादा पढ़ा लिखा है। वहीं अगर किसी को इंलिश नहीं आती तो उसे अनपढ़ समझा जाता है। इस तरह की घटनायें समाज की दोहरी मानसिकता को दर्शाती है।
समाज और शिक्षण संस्थान की भूमिका :
देश में अविभावकों की विचारधारा यह है कि, आने वाले समय में अंग्रेजी का बोलबाला होगा जिसमें उनके बच्चे पीछे न रह जाये। इस वजह से देश के अधिकतर अभिभावक अंग्रेजी मीडियम की तरफ झुके है। आज के समय में हिंदी मीडियम के प्रति अभिभावकों का आकर्षण कम होता जा रहा है। आज जो अभिभावक हिंदी मीडियम में अपने बच्चों का एडमिशन करवा रहे है वो अपनी आर्थिक स्थिति कमजोर होने के चलते मजबूरी में ऐसा कर रहे है। आज के समय में अभिभावकों को ऐसा लगता कि अगर उनके बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूल में नहीं पढ़ाया तो उनके बच्चों का भविष्य अंधेरे में होगा। जबकि ऐसा नही है।
वर्ल्ड लैंग्वेज डेटाबेस के 22वें संस्करण इथोनोलॉज के मुताबिक दुनियाभर की 20 सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में 6 भारतीय भाषाएं शामिल हैं, जिनमें हिंदी तीसरे स्थान पर है। वहीँ भारत में हिंदीं भाषा पहले स्थान पर है। इसके बाबजूद अंग्रेजी स्कूली शिक्षा को अधिक महत्त्व दिया है। हमारे देश की नई शिक्षा नीति में भी यह कहा गया है कि पाँचवी क्लास तक पढ़ाई का माध्यम मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा में रहेगा इसे क्लास आठ या उससे आगे भी बढ़ाया जा सकता है। विदेशी भाषाओं की पढ़ाई सेकेंडरी लेवल से होगी। नई शिक्षा नीति में यह भी कहा गया है कि किसी भी भाषा को थोपा नहीं जाएगा। देशी-विदेशी सभी भाषाओं में ज्ञान का भंडार है, उन्हें सीखने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन पहला सम्मान अपनी मातृभाषा के लिए आवश्यक है।
UPSC में हिंदी प्रतिभागियों का श्रेष्ठ प्रदर्शन :
देश में सरकारी नौकरियों में आईएएस (IAS) की नौकरी सबसे ऊंचे दर्जे की मानी जाती है। संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) द्वारा आयोजित की जाने वाली सिविल सेवा परीक्षा में हिंदी माध्यम वाले छात्रों ने अपनी जगह बनाई है। हिंदी माध्यम से 54 उम्मीदवार सफल हुए हैं। यह UPSC के इतिहास में हिंदी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन है। पिछले साल आए 2021 बैच के रिजल्ट में ऐसे 24 उम्मीदवार सफल हुए थे। यानी हिंदी का ग्राफ लगातार बढ़ रहा है।
साल 2022 में मध्यप्रदेश में 14965 लोगों ने आत्महत्या की है। जिनमें एमपी के चार महानगरों के आकड़े इस प्रकार है।
भोपाल 566 30 फीसदी
ग्वालियर 320 29 फीसदी
इंदौर 737 34 फीसदी
जबलपुर 214 16.9 फीसदी
इससे बचने के लिए उठाएं कदम :
इस तरह की घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए अभिवावकों को हिंदी और इंलिश मीडियम वाली इस मानसिकता से बाहर आना पड़ेगा जिससे बच्चों को एक स्वतंत्र परिवेश मिल सके। समाज में जिस प्रकार इंग्लिश को अपनाया गया है उसी प्रकार हिंदी को भी अपनाया जाना चाहिए। परिवार को ध्यान रखना चाहिए कि बच्चों पर किसी भी प्रकार की एक्टिविटी को थोपा न जाये, गेम,पढ़ाई और न कोई भाषा। अभिभावक को बच्चों के साथ मैत्रीपूर्ण व्यवहार रखना चाहिए जिससे बच्चे बिना किसी दबाब और झिझक के खुलकर अपनी बात रख सके।
अभी तक बच्चों में आत्महत्या के जितने केस हुए है लगभग सभी में डिप्रेशन कॉमन फैक्टर है। बच्चों में मानसिक दवाब बहुत बढ़ रहा है जिसके चलते निराश, हताश परेशान बच्चे आत्महत्या जैसा कदम उठाते है। आत्महत्या किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकती है इसलिए हमें देश के युवाओं के क्षमता निर्माण पर जोर देना चाहिए। शिक्षण प्रणाली में आधारभूत रचनात्मक सुधार के साथ- साथ जनअभियानों से लोगों को भाषा के भेदभाव के प्रति जागरूक करने की आवश्यकता है।
मुश्किल समय संबल देती कवि नरेंद्र वर्मा की यह कविता
तुम मन की आवाज सुनो, जिंदा हो, ना शमशान बनो।
पीछे नहीं आगे देखो, नई शुरुआत करो।
मंजिल नहीं, कर्म बदलो, कुछ समझ ना आए।
तो गुरु का ध्यान करो, तुम मन की आवाज सुनो।
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