हाइलाइट्स :
दिल्ली के दिल की पड़ताल
अपनी ढपली अपनी ताल
केजरीवाल वर्सेस ऑल!
राज एक्सप्रेस। एग्जिट पोल कितना सटीक है इस बारे में पिछले सर्वेक्षणों की पड़ताल जरूरी है। देश में चुनाव की हवा का रुख बताने वाले इस सर्वेक्षण पर सवाल उठते रहे हैं। वो तो भला हो चुनाव आयोग का कि, उसने इस पर लगाम कस दी वर्ना इसके पहले तक देश में राजनीतिक बिसात इन्हीं सर्वे के जरिए बिछती आई है।
मानसिक जुगाली :
लोकसभा चुनाव हो या फिर विधानसभा, सभी में सही बात तो यही है कि असल विनर बताने में ये सर्वेक्षण सिर्फ मनोवैज्ञानिक राय मात्र बनकर रह गए हैं। इसमें चैनलों पर विश्लेषकों की मानसिक जुगाली भी ऊँट किस करवट बैठेंगे ये तय करने में पीछे नहीं रहती।
इन सर्वे की हकीकत यदि बयां की जाए तो फाइनल रुझान तक तो इनकी बातें अधिकतर सही रहीं हैं लेकिन कौन, कितने पानी (सीटों) में तैरेगा इस बात पर आकर सर्वे अधिकतर फेल हो जाता है। मतलब बात सीटों पर रुझान के मामले में सिर्फ आस-पास ही बनकर रह जाती हैं।
विचारधारा हावी :
माना कि ये सर्वेक्षण है लेकिन भारत में चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में विचारधाराओं के भी हावी होने से इनकार नहीं किया जा सकता। दरअसल सर्वेक्षण निदर्शन यानी एक तरह की वैचारिक सैंपलिंग है जिसमें जनता की चुनाव में उतरीं राजनीतिक पार्टियों के प्रति राय ली जाती है। अब यह राय किस आधार पर ली जाए उसके भी सांख्यिकी में कई पैमाने हैं। लेकिन आजकल प्रचलित रुझान (हवा का रुख) ही एकमात्र मॉडल बनकर रह गया है।
विषमता परीक्षण :
आर्थिक, सामाजिक, भौगोलिक विषमता संपन्न भारत में संविधान की विषमताओँ के कारण कई स्तरों पर चुनाव पूर्व सर्वे की दरकार है लेकिन यह मात्र कुछ ही स्तरों तक सिमट कर रह गया है। लोकसभा-विधानसभा में किस सीट पर किस पार्टी के प्रत्याशी को कितने वोट मिलेंगे, किस वर्ग से मिलेंगे, किस स्थान से मिलेंगे इस वस्तुस्थिति पर किसी सर्वे में स्थिति दृष्टिगोचर नहीं होती। सिर्फ इतना भुनाया जाता है कि फलाना कैंडिडेट जीत सकता है।
PM-HM :
उदाहरण के लिए अब आज के माहौल में इतना तो साफ ही है कि पीएम और होम मिनिस्टर जहां से लड़ेंगे हर मोर्चे पर जीतेंगे तो इस बारे में सर्वे के बारे में क्या कहा जा सकता है। किस वर्ग से कितने वोट मिलेंगे, मौसम-बीमारी लाचारी के कारण कितने लोग वोट डालने आएंगे-नहीं आएंगे इन सारे आंकड़ों का वर्गीकरण प्रमाण सर्वे में मिल पाए तब सर्वे की सार्थकता मानी जानी चाहिए।
कसौटी क्या है?
सुनार की कसौटी ही उसके धंधे का आधार है उस तरह सर्वेक्षण में भी दलों की हैसियत भी परखी जानी चाहिए। तमाम सर्वे में मोटे तौर पर मात्र यह अनुमान लगाया जाता है कि अमुक पार्टी चुनाव जीतेगी! पर कहां कितनी सीट मिलेंगी, कितना जनाधार बढ़ेगा-घटेगा इसका ब्यौरा किसी भी सर्वे में नहीं मिलता।
द वर्डिक्ट :
एनडीटीवी के मशहूर पत्रकार प्रणव रॉय ने अपनी पुस्तक द वर्डिक्ट में लिखा है कि साल 1980 के बाद देश में एक तरह से कुल 833 सर्वेक्षण हुए जिनकी सटीकता 75 फीसदी रही। इसके अनुसार प्रत्येक चार में से तीन पोल सही साबित हुए।
लेकिन सवाल यह भी उठता है कि इन तमाम सर्वे में सिर्फ रुख के आधार पर संभावित नतीजों पर रायशुमारी हुई। रॉय के मुताबिक एग्जिटपोल की सटीकता, ओपिनियन पोल की तुलना में ठीक है। एक सर्वे के मुताबिक हर पांच में से चार एग्जिटपोल सही साबित हुए हैं। (लेकिन ये मात्र रुझान आधारित थे।)
ओपिनियन और एग्जिटपोल :
ज़रा इन दोनों के अंतर को समझ लेना जरूरी है। ओपिनियन जहां मतदाता की राय या मशविरे से ताल्लुक रखता है वहीं एग्जिटपोल का नाता फाइनल वर्डिक्ट यानी नतीजे से है। तमाम पार्टियां अपने स्तर पर एग्जिटपोल जाहिर करती हैं।
दिलवालों की दिल्ली :
दिलवालों की दिल्ली में कौन बसेगा इस बात को लेकर तमाम कयास लग रहे हैं। कुछ सर्वे कह रहे हैं कि आम आदमी पार्टी का आना तय है लेकिन कुल 70 सीटों वाली दिल्ली विधानसभा में बहुमत के आंकड़े पर 36 का पैंच तब और फंस गया है, जब केजरीवाल बोल रहे हों काम किया हो तो वोट दो, और दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष मनोज तिवारी कह रहे हैं कि वर्ना ईवीएम को न दोष दो!
भारतीय जनता पार्टी के सर्वेक्षण के मुताबिक मनोज तिवारी का मानना है कि दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 48 सीटें मिलेंगी! जबकि कुछ एग्ज़िट पोल का दावा है कि आम आदमी पार्टी वाले मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को पार्टी समेत आने से कोई नहीं रोक सकता।
साल 2004 :
इस साल के चुवावी सर्वेक्षणों को छोड़ दें तो अधिकांश पोल 97 प्रतिशत सही साबित हुए। आंकड़ों के मुताबिक 133 लोकसभा सर्वेक्षणों में साल 2004 के एग्जिट और ओपिनियन पोल को छोड़कर लगभग सौ फीसदी नतीजे सही साबित हुए। (लेकिन ये मात्र अनुमान थे सीटों की संख्या इनमें सटीक नहीं बताई गई/ ना साबित हुई।)
एकमात्र नाम :
साल 2019 में तकरीबन सभी एग्जिट पोल पर एक ही विजेता का नाम था और वो सही भी साबित हुआ लेकिन इसमें सांख्यिकी के सर्वे में मान्य तमाम पहलुओं पर ध्यान केंद्रित नहीं किया गया। वैसे भी नागरिकता (संशोधन) अधिनियम वाले भारत में जनगणना 10 साल और आर्थिक सर्वे 5 साल में करने का चलन जो है।
एजेंसियों का रोल :
तमाम देशी-विदेशी एजेंसियां भारत में लोकसभा और कुछ खास-खास विधानसभाओं पर सर्वे जारी करती हैं। लेकिन ये रुझान के आधार पर मात्र भविष्यवाणी बनकर रह जाती हैं। अधिकांश मामलों में एग्जिट पोल तो ठीक रहा है लेकिन सीटों की संख्या की घट-बढ़ के साथ ही मनोदशा का रुझान भी पूर्व घोषणा के अनुरूप नहीं रहा है।
मानक विचलन :
सांख्यिकी की गणना में मानक विचलन (स्टैंडर्ड डेविएशन) का अहम रोल है। ऐसे में चुनाव पूर्व वोटों का अनुमान लगाने में अधिकतम +/-/% की कसौटी की सीमा अहम होती है। इस पैमाने पर कई पोल या तो अधूरी जानकारियां पेश करते हैं या फिर आंकड़ा जारी करने से बचते हैं। आपको बता दें आंकड़ों की शुद्धता का प्लस-माईनस परसेंट का जो पैमाना है इस पर यदि एग्जिट पोल्स और ओपिनियन पोल्स की हकीकत को परखा जाए तो फिर कई लूप होल्स भी नज़र आ जाएंगे।
300 का आंकड़ा :
आंकड़ों के मुताबिक लोकसभा चुनाव में महज एक प्रतिशत वोट का इजाफा 10 से 15 सीटों का फर्क ला सकता है। प्लस-माईनस परसेंट आंकड़ों को यदि समझें तो लोकसभा सीटों के मामले में इसे +/- 35 सीटों के तौर पर समझा जा सकता है। मसलन 300 सीटों पर कोई सर्वे तब सटीक माना जाएगा यदि उसके पूर्वानुमान में 300 के मान से +/- 35 यानी 335 से 265 सीटों का पूर्वानुमान दर्शाया गया हो।
मौटे तौर पर 27 फीसदी एग्जिटपोल ही सीटों की सही संख्या बता पाने में कामयाब रहे हैं। अब दिल्ली के दिल में कौन बसता है ये देखना फिलहाल बाकी है... चुनाव आयोग ने मतदान के दिन एग्जिट पोल और इससे 48 घंटे पहले किसी भी प्रकार के चुनावी सर्वेक्षणों के प्रसारण पर रोक लगाई है।
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