हाइलाइट्स :
दिल्ली में हंसराज कॉलेज के कार्यक्रम में राजनाथ सिंह
राजनाथ सिंह बोले- मेरे विचार में शिक्षा के 3 स्तम्भ होते हैं
किताब भी हमारे लिए गुरु के समान है- राजनाथ सिंह
दिल्ली, भारत। शिक्षक दिवस के अवसर पर दिल्ली के हंसराज कॉलेज में आयोजित कार्यक्रम में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह शामिल हुए और कार्यक्रम को संबोधित किया।
इस दौरान रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने अपने संबोधन में कहा- सबसे पहले तो, हंसराज कॉलेज के प्रांगण में उपस्थित आप सभी शिक्षकगण, छात्रों को मैं शिक्षक दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं देता हूं। मैं स्वयं भी एक शिक्षक रहा हूँ। ऐसे में आज मैं आपलोगों से एक रक्षामंत्री के नाते नहीं, बल्कि एक शिक्षक के रूप में मिलने आया हूँ। हम सब उन्हें भारत के राष्ट्रपति के तौर पर, एक राजनीतिक व्यक्ति के रूप में तो जानते ही हैं, लेकिन राजनीति के अलावा उन्होंने शिक्षा तथा दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में भी बेहद महत्वपूर्ण योगदान दिया है। शिक्षक दिवस पर मैं पूर्व-राष्ट्रपति, डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी को, अपनी तरफ से श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं। श्री राधाकृष्णन जी एक बहु आयामी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे।
भारत भूमि ऋषियों की भूमि रही है, जिन्होंने अपनी ज्ञान परंपरा से इस देश में गुरुकुल पद्धति की शुरुआत की। एक ऐसी गुरुकुल पद्धति जिसमें इस राष्ट्र का नेतृत्व करने वाले युवाओं को तैयार किया जाता था। एक ऐसी गुरुकुल पद्धति जिसने सदैव राजसत्ताओं का मार्गदर्शन किया। गुरु के महत्व को समझते हुए इस राष्ट्र में एक महान गुरु परंपरा हमेशा से अस्तित्व में रही है। गुरुओं ने शताब्दियों से भारत की ज्ञान परंपरा का वहन किया है। भारत की विशाल गुरु परंपरा के इन्हीं वाहकों में स्वामी दयानंद सरस्वती जी अग्रणी रहे।रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह
कल्पना करिए कि 900 सालों से गुलामी की बेड़ियों में जकड़े हुए भारत में अंधकार कितना घना था। स्वाभाविक है, जब अंधकार इतना घना होगा तो उसके लिए प्रकाश पुंज भी उतना ही तीव्र होना चाहिए। उसके लिए प्रकाश पुंज भी ऐसा होना चाहिए जो उसे घने अंधेरे को अपनी तीव्रता से मात दे सके।
स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने उसी प्रकाश पुंज की भूमिका निभाई। उनका ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ ऐसा ही प्रकाश पुंज था जिसकी आभा आज तक भारतीय समाज में परिव्याप्त है। स्वामी दयानंद सरस्वती उन गुरुओं में थे,, जिन्होंने भारत के पुनर्जागरण का शंखनाद किया।
भारतीय पुनर्जागरण की में स्वामी दयानंद सरस्वती से प्रभावित होकर महात्मा हंसराज जी ने समाज सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया। देश के युवाओं को महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा प्रतिपादित वैदिक शिक्षा में शिक्षित करने के लिए उन्होंने देश में कई स्थानों पर DAV Schools की स्थापना की।
आप सब तो यह जानते ही होंगे कि कैसे मैकाले ने यह कहकर भारतीय प्राच्य विद्या का अपमान किया था, कि "एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की केवल एक shelf समूचे भारतीय साहित्य के बराबर है। ऐसा कहकर उसने भारतीयों के मन में अपनी प्राचीन विद्या के प्रति एक भ्रांति फैलाई। स्वामी दयानंद सरस्वती और महात्मा हंसराज ने आर्य समाज और DAV schools के माध्यम से न सिर्फ इस भ्रांति पर प्रहार किया बल्कि हमारा राष्ट्रीय व सांस्कृतिक आत्मविश्वास भी वापस लौटाया।
मेरे विचार में शिक्षा के 3 स्तम्भ होते हैं - पहला- शिक्षक, इसके बारे में मैंने अभी आपसे बात की; दूसरा- शिक्षार्थी, जो शिक्षा ग्रहण करता है; और तीसरा- शिक्षा के transmission का माध्यम, जो मूलतः किताबें होती हैं। किताबें ज्ञान का महत्त्वपूर्ण माध्यम होती हैं। किताबों के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी ज्ञान का हस्तांतरण होता है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी अनेक किताबों व पत्रिकाओं ने स्वतंत्रता संग्राम को और गति प्रदान की।
किताब भी हमारे लिए गुरु के समान है। भारत की बात यदि मैं करूँ तो हम देखते हैं कि वेदों, उपनिषदों व प्राचीन शास्त्रों ने किस प्रकार से पुस्तकों के रूप में भारतीय संस्कृति रूपी रथ के लिए एक सारथी की भूमिका निभाई है। जब भारत की सनातन चेतना कई आक्रमण-कारियों के आघात को झेलकर सुसुप्त अवस्था में जा चुकी थी। जब भारतीय संस्कृति पर एक घना कोहरा छा गया था, तब गोस्वामी तुलसीदास ने राम के चरित्र को श्रीरामचरितमानस के रूप में उतारकर भारतीय समाज को एक प्रेरणा दी।
वेद शब्द संस्कृत के मूल धातु ‘विद‘ शब्द से बना है, जिसका अर्थ होता है 'जानना'। कई लोग वेद को अपौरुषेय या देवकृत भी मानते हैं, जिसका अर्थ हुआ कि वेदों को किसी पुरुष या देवता द्वारा लिखा नहीं गया है, बल्कि यह श्रुति व स्मृति के माध्यम से सुनाए ज्ञान पर आधारित है। यह वेद ही थें, जिन्होंने न सिर्फ ज्ञान के प्रकाश पुंज के रूप में कार्य किया बल्कि विधि-विधान व सामाजिक नियमों के रूप में भी भारत की संस्कृति का मार्गदर्शन किया। वेदों में धार्मिक व आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ भौतिक एवं सामाजिक ज्ञान भी था।
जिसे हम भारतीय संस्कृति के नाम से जानते हैं, उसका basis हमें वेदों द्वारा निर्धारित सामाजिक नियमों व सांस्कृतिक विधानों में मिलता है; वेदों में वर्णित विज्ञान-गणित आदि में मिलता है। इसी प्रकार और दृष्टियों से भी वेदों का महत्त्व देखा जा सकता है। यह माना जा सकता है कि एक विज्ञान के रूप में गणित भी वैदिक काल में अस्तित्व में था। आप शुल्वसूत्र का उदाहरण देख सकते हैं, जिसने पाइथागोरस theorem के आने से कहीं बहुत पहले, ज्यामितीय दृष्टिकोण को पूरी दुनिया के सम्मुख पेश कर दिया गया था।
ऋग्वेद में लिखा है, अत्राह गोरमन्वत नाम त्वष्टुरपीच्यम् । इत्था चन्द्रमसो गृहे ॥ इसका अर्थ है कि चंद्रमा के पास अपनी रोशनी नहीं है बल्कि सूर्य से रोशनी लेता है।यह बात ऋग्वेद मे लिखी हैं जिसकी खोज वैज्ञानिकों ने बहुत बाद मे की
ताज़ा समाचार और रोचक जानकारियों के लिए आप हमारे राज एक्सप्रेस वाट्सऐप चैनल को सब्स्क्राइब कर सकते हैं। वाट्सऐप पर Raj Express के नाम से सर्च कर, सब्स्क्राइब करें।