हाइलाइट्स –
मुर्दा शंख, अभ्रक या माइका
विज्ञापन का झांसेबाज संसार
दावा- मेकअप से बढ़ता है आत्मविश्वास
मासूम बचपन पर नहीं किसी की भी नज़र!
राज एक्सप्रेस। दौर पूंजीवाद का है, जिसके पास नारीवाद को चुन-चुनकर पेश करने की महारत के साथ ताकत भी है। 'सुंदर' दिखने की 'नब्ज' की पहचान में दक्ष सौन्दर्य-प्रसाधन (सामग्री) कारोबार कमाई का सशक्त जरिया बन चुका है।
बकौल विज्ञापन इंडस्ट्री मेक-अप सामग्री के उपयोग से मानव मन में आत्मविश्वास जागृत होता है। कमर्शियल वेबसाइट फेमिनिज़्मइंडिया की अतिथि लेखक धरिका अथरे की इस बात में वजन है कि मेक-अप अपने आप में कई अरब डॉलर की इंडस्ट्री बन गई है। साथ ही पिछले सालों में सौंदर्य सामग्री की मांग में इजाफा हुआ है। लेकिन तन ढंकने वाली कपड़ा से लेकर सुंदर दिखाने वाली कॉस्मेटिक इंडस्ट्री के पीछे का एक काला सच भी है।
"मुर्दा शंख" जो मुर्दा में भी जान फूंक दे! -
जी हां सदियों पहले से धार्मिक, सामाजिक सरोकार से जुड़ी सीखों की सार्वजनिक नाट्य प्रस्तुतियों में कलाकार मुर्दा शंख का उपयोग करते रहे हैं।
दरअसल आगे चलकर यही मुर्दा शंख बाद में "अभ्रक" और वर्तमान में "माइका" नाम के साथ सौंदर्य प्रसाधन इंडस्ट्री की प्रमुख मांग बन चुका है।
दरअसल यह सदियों पुरानी वही नायाब युक्ति है जिसमें मुर्दा शंख चपोड़कर कलाकार स्वांग धरकर मुर्दे में भी जान फूंक दिया करते थे। जबकि अब इससे देयकाया को दमकाने का दावा किया जाता है।
हकीकत चमक की -
यह मुर्दा शंख यानी माइका अब मेक-अप की दुनिया का अनिवार्य हिस्सा बन गया है। क्या आप जानते हैं सौंदर्य सामग्री बनाने वाले कारखानों तक अभ्रक को पहुंचाने का प्राथमिक स्त्रोत क्या है? दरअसल यह सोर्स है छोटे मासूम नाबालिग बच्चे जिनका बचपन सुनहरी दुनिया रचने में फ़ना हो रहा है।
बचपन की कीमत -
आईशैड्स, लिपस्टिक्स, मस्कारा, नाखून पॉलिश, ब्लश जैसे चिटर-पिटर आइटम्स के अलावा और भी कई सौंदर्य सामग्रियों में अभ्रक का तड़का लगाए बिना सौंदर्य की चाशनी तैयार नहीं हो सकती।
नाता भारत का -
दरअसल कॉस्मेटिक इंडस्ट्री को सप्लाई किया जाने वाला सर्वोत्कृष्ट क्वालिटी का 60 फीसद अभ्रक का मूल स्त्रोत भारत है। इनमें से अधिकांश मात्रा में यह माइनिंग स्क्रैप यानी मूल खनन के अनुपयोगी हिस्से से मिलता है।
बहुराष्ट्रीय हैसियत वाली कई कॉस्मेटिक कंपनियों में से एक L’Oréal एक और कॉस्मेटिक ब्रांड मैबिलाइन (Maybelline) की पैरेंट कंपनी भी है। जिसका नाता भारत से है।
रिकॉर्ड्स के मुताबिक अधिकांश माइका खदानों को दो दशक पहले इसके पर्यावरणीय प्रभावों के कारण बंद कर दिया गया था। जबकि मौजूदा कालखंड में महज चंद खदानें कानूनी तौर पर संचालित हैं।
‘माइका’ बेल्ट -
द गार्डियन के एक लेख में दावा है कि झारखंड और बिहार में लगभग 20 हजार से अधिक बच्चे अभी भी अभ्रक की कई अवैध खदानों में काम करते हैं। गौरतलब है झारखंड और बिहार को ब्रिटिश औपनिवेशिक काल से ‘माइका’ बेल्ट कहते आए हैं। यहां एक बार लाभ का अवसर दिखने के बाद इसे निकालने से संभवतः निगम भी कोई रोक नहीं लगा सकता है।
गोरखधंधे का चक्र -
अतिथि लेखक धरिका अथरे की रपटानुसार, पाँच वर्ष की आयु तक के हजारों बच्चे और युवा अपनी टोकरियों में अभ्रक इकट्ठा करने के बाद स्थानीय निर्यातक तक पहुंचाते हैं।
दिन भर की इस पूरी कवायद में बच्चों के नसीब में पहुंचते हैं मात्र 20 से 30 रुपये। यही वो जरिया है जिससे बच्चे अपने परिवार की खान-पान की छोटी-मोटी जरूरतों को पूरा करने में अपना हाथ बंटाते हैं।
खतरे में जीवन -
स्थिति से साफ तौर पर स्पष्ट है बाल श्रम बड़े पैमाने पर मानव अधिकारों का उल्लंघन है। अभ्रक खनन में शामिल कई बच्चे स्कूल में नहीं जा पा रहे। इसके साथ खदान में छांटा-बीनी के दौरान आसन्न बच्चों के स्वास्थ्य जोखिमों का खतरा भी इसमें शामिल है।
दबने का खतरा -
कई दफा देखने में आया है कि, खदान की दीवार गिरने से खदान में कई बच्चे फंसकर रह गए। साल 2016 में, थॉमस रॉयटर्स फाउंडेशन की एक जांच से पता चला कि भारत में अवैध माइका खदानों में स्क्रैप खनन के कारण कई बच्चों की मौत हो गई। जबकि इन बच्चों की मौतों पर पर्दा डाल दिया गया ।
चांदी चाइना की!
चमकदार चमक वाला अभ्रक खोजने "मुर्दा" दुनिया में सारा दिन बिताने वाले बच्चों को यह तक पता नहीं होता कि; यह (माइका) कहां जा रहा है या इसका क्या उपयोग किया जाता है? स्थानीय निर्यातकों को देने के बाद, यह ज्यादातर चीन और फिर उसके बाद कई यूरोपीय और अमेरिकी कंपनियों को भेजा जाता है।
बेलगाम श्रृंखला -
सौंदर्य प्रसाधन की आपूर्ति श्रृंखला उचित रूप से नियंत्रित नहीं है। इसके बारे में प्रचलित है कि प्रत्येक कॉस्मेटिक उत्पाद में एक सैकड़ा से अधिक तत्व समाहित हो सकते हैं। जिनकी सप्लाई दुनिया भर के देशों से होती है।
अभ्रक सप्लाई में नाबालिगों का सहारा लेने वाली कई वैध-अवैध कंपनियों की काली सच्चाई देश/दुनिया के सामने आ चुकी है। कई कंपनियों ने तो अपनी काली छवि को सुधारने के लिए "बचपन बचाओ" जैसे आंदोलनों तक का सहारा लिया है।
माइका स्कैंडल -
इस मुद्दे पर चर्चा जब छिड़ती है तो जुबान पर शब्द "माइका स्कैंडल" जा अटकता है। दरअसल इस घोटाले के सामने आने के बाद कई कंपनियों ने अपनी आपूर्ति श्रृंखला को सुधारने का जतन जरूर किया है, लेकिन यह प्रयास काफी मुश्किल भरा रहा।
सवाल लाख टके का? -
ऐसे में 20 से 30 रुपये में सरलता से मिल रहा चाइल्ड लेबर का जरिया यदि प्रमुख सोर्स से दूर कर दिया जाए तो क्या कपड़ा और सौंदर्य वस्तु उत्पादन कारोबार जीवित रह पाएगा?
कसौटी नारी गरिमा की -
मामले में गौर करने वाला पहलू यह है कि फैशन से जुड़ी चीजों को बेचने के लिए नारी गरिमा के मूल्यों को किस तरह भुनाया जा रहा है। नारी के सहारे कैसे उत्पाद को बेचा जा रहा है? सौंदर्य उत्पादों से कौन-कैसे आत्मविश्वासी और सशक्त बन रहा है? हमें इन सवालों की सच्चाई समझनी होगी।
दरअसल अब महिला ही नहीं बल्कि पुरुषों को सुंदर और कथित आत्मविश्वासी बनाने वाले सौंदर्य उत्पादों की हकीकत और दावों को समझने के लिए लोगों को भी झूठी बातों के बारे में सोचना होगा जिसे धड़ल्ले से समाचार पत्रों, टेलिविजन और ऑन लाइन माध्यमों में ठूंसा जा रहा है।
देहयष्टि की प्रचुरता -
दरअसल मेक-अप ब्रांड्स के दंभ की वजह बाजार में प्रचार के लिए सहजता से उपलब्ध महिला मॉडल्स की देहयष्टि भी है। कपड़ा कारोबार में भी कमोबेश यही ट्रेंड प्रचलित है। यहां पर भी मानवाधिकारों के साथ ही लिंग आधारित हिंसा के एक नहीं, दर्जन नहीं बल्कि सैकड़ों-हजारों उदाहरण बगैर ढूंढ़े मिल जाएंगे।
ऐसे में नारीत्व की गरिमा का गलत बखान करने वाले उत्पादों को प्रचार करने से भी रोकना जरूरी हो गया है। साथ ही नारीत्व की गरिमा की रक्षा के लिए खोते मासूम बचपन की कीमत भी सरकार, सौंदर्य उत्पादकों और उत्पाद का उपयोग करने वालों को समझनी होगी।
क्योंकि किसी खास उत्पाद या पोशाक के लिए यदि किसी बच्चे का जीवन और भविष्य दांव पर हो तो ऐसा उत्पाद कभी भी नारीवाद के लिए मुक्तिदायक नहीं कहा जा सकता है।
नैतिक उत्पाद श्रृंखला -
हां ऐसे में उपयोगकर्ता नैतिक रूप से निर्मित मेकअप उत्पादों को उपयोग में लाकर बच्चों, समाज और देश के निर्माण में बहुमूल्य योगदान प्रदान कर सकते हैं। वैकल्पिक साधनों को अपनाकर भी अनैतिक कामों में लगी कंपनियों के काले कारोबार पर लगाम कसी जा सकती है।
अनैतिक काम को सहारा देने वाले ब्रांड्स पर दवाब बनाकर भी नियम विपरीत कामकाज पर रोक लगाई जा सकती है। ...तो किसी भी खास उत्पाद का ग्राहक बनने से पहले यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम यह जांच लें कि कहीं हम किसी अनैतिक काम को बढ़ावा तो नहीं दे रहे हैं। क्योंकि बात अनमोल है- “हंसती आंखों में झांककर देखो, कोई आंसू कहीं छुपा होगा।”
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डिस्क्लेमर – आर्टिकल रिपोर्ट्स और उपलब्ध आंकड़ों पर आधारित है। इसमें शीर्षक-उप शीर्षक और संबंधित अतिरिक्त प्रचलित जानकारी जोड़ी गई हैं। इस आर्टिकल में प्रकाशित तथ्यों की जिम्मेदारी राज एक्सप्रेस की नहीं होगी।
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