राज एक्सप्रेस। आदिवासी क्रन्तिकारी कोमराम भीम ने करीब 1 शताब्दी पहले "जल, जंगल और ज़मीन" का नारा दिया था। यह नारा उन्होंने हैदराबाद के निज़ाम द्वारा दक्कन के आदिवासियों के जंगल को छीनकर ज़मींदारों को देने खिलाफ एक आंदोलन में दिया था। कोमराम भीम समेत गोंड जनजाति के कई लोगों ने निज़ाम के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी और अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे। आज 2023 में, छत्तीसगढ़ स्थित हसदेव जंगल में बसने वाले हजारों आदिवासी अपने जंगल को बचाने के लिए आंदोलन कर रहे है। यह आंदोलन पिछले 10 सालों से चल रहा है। यह आंदोलन परसा ईस्ट केते बासेन खदान के खिलाफ चल रहा है जिसके अंतर्गत 2 चरणों में 1900 हेक्टेयर भूमि में खड़े हज़ारों साल पुराने पेड़ों को काटा जाना है। चलिए, जानते है कि आखिर क्यों "मध्य भारत का फेफ़ड़ा" कहे जाने वाले हसदेव जंगल के पेड़ों की हो रही कटाई और कब हुई थी इसकी शुरुआत?
हसदेव जंगल, उत्तर छत्तीसगढ़ के 3 जिलों में फैला हुआ है जिसमें कोरबा, सूरजपुर और सरगुजा जिला आता है। 2010 में, कोयला और वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने एक शोध में पाया था कि हसदेव जंगल की भूमि के भीतर 5.7 बिलियन टन का कोयला भंडार है। इस शोध के बाद यूपीए सरकार द्वारा राजस्थान राज्य की बिजली आपूर्ति के लिए राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को छत्तीसगढ़ में 3 कोयला खदानों का आवंटन किया गया था। जून 2011 में, इस आवंटन पर वन पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने खनन को प्रतिबंधित करते हुए इसे "नो-गो-ज़ोन" घोषित कर दिया था।
हालांकि, तत्कालीन वन मंत्री जयराम रमेश के आदेश पर नियम के खिलाफ जाकर यहां परसा ईस्ट केते बासेन कोयला परियोजना को वन स्वीकृति दी गई थी। 2014 में इसे नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) में चुनौती दी गई, जिसने 2014 में खनन कार्य को निलंबित कर दिया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने ट्रिब्यूनल के आदेश पर रोक लगा दी और कहा कि जब तक इसका फैसला नहीं आ जाता खनन कार्य नहीं रुकेगा।
वर्तमान में यहां 137 हेक्टेयर के 50 हजार से ज्यादा पेड़ काटे जा चुके है। गांव घाट बर्रा के पेंड्रामार जंगल को पूरी तरह काट दिया गया है जो कोरबा और सरगुजा जिले किए की सीमा में आने वाले उदयपुर तहसील में पड़ता है। पर्यावरण एक्टिविस्ट आलोक शुक्ला की मानें तो यहां लगभग 4 लाख पेड़ों की कटाई होगी। इसके पहले चरण का कोयला क्षेत्र पूरी तरह समाप्त होने के करीब है। सितंबर 2020 में राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड (RRVUNL) ने कहा कि खदान में केवल 20 मिलियन टन कोयला बचा है। जिसके बाद साल 2022 में छत्तीसगढ़ सरकार ने इसके दूसरे चरण को शुरू करने की अनुमति दे दी थी।
स्थानीय समुदायों और गांवों ने लंबे समय से जंगल में खनन गतिविधियों का विरोध किया है क्योंकि वे अपनी आजीविका के लिए इस पर निर्भर हैं। इसके अलावा जिस तरह भगवानों के मंदिर हमारे लिए सबसे अहम् इमारत होते है उसी प्रकार जंगल और उसके पेड़ आदिवासियों के लिए भगवान होते है जिन्हें वह अलग-अलग नामों से बुलाते है। उन्होंने "हसदेव आरण्य बचाओ संघर्ष समिति" जैसे विरोध संगठनों का गठन किया है जिसे "छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन" जैसे संघठन द्वारा समर्थन प्राप्त है। ग्रामीणों का आरोप था कि साल 2009 में भारतीय संविधान की पांचवीं अनुसूची के अनुसार इस तरह के अभ्यास के लिए ग्राम सभाओं की सहमति आवश्यक है।
छत्तीसगढ़ वन विभाग द्वारा फर्जी ग्राम सभा बनाई गयी थी जिसके बारे में कोई आधिकारिक जानकारी ग्रामीणों को नहीं दी गई थी और ऐसी बैठकों की उपस्थिति शीट में कुछ हस्ताक्षर मृत ग्रामीणों के थे। इसके आलावा मानव-हाथी संघर्ष के मुद्दे पर भी ग्रामीण आदिवासियों का विरोध है। तारा, हरिहरपुर, फतेहपुर, घाटबर्रा और जनार्दनपुर जैसे विभिन्न गांवों के आदिवासी लोग अपने दैनिक जीवन पर सीधे प्रभाव के कारण प्राधिकरण द्वारा निकासी के इन आदेशों के खिलाफ 2 मार्च, 2022 से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं।
प्रदर्शनकारियों का दावा है कि इस क्षेत्र में कोयला खनन के लिए पीईकेबी चरण- II के नए आवंटन के कारण 700 परिवार उजड़ जाएंगे और कई गांव सीधे तौर पर नष्ट हो जाएंगे। इससे पहले भी, आदिवासियों ने साल 2019 में 75 दिनों के धरने पर बैठे थे और राज्य सरकार से इस क्षेत्र में खनन बंद करने की मांग करते हुए रायपुर तक तीन सौ किलोमीटर लंबा मार्च निकाला था। इस विरोध मार्च में पर्यावरणविदों और नागरिक समाज कार्यकर्ताओं समेत कई संगठनों ने भी हिस्सा लिया है।
अडानी एंटरप्राइजेज परसा ईस्ट केते बासेन (PEKB) कोयला खदान परियोजना के विकास और संचालन की भूमिका निभाता है। परसा ईस्ट केते बासेन कोयला ब्लॉक को थर्मल पावर प्लांट के विकास के लिए राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम लिमिटेड को आवंटित किया गया था। अडानी एंटरप्राइजेज ने 2013 में, ऑक्शन प्रक्रिया के माध्यम से पीईकेबी के लिए खनन अधिकार हासिल कर लिया था। अडानी की सहायक कंपनी अडानी माइंस ने बिजली संयंत्रों और औद्योगिक इकाइयों सहित अंतिम उपयोगकर्ताओं तक कोयले को कुशलतापूर्वक पहुंचाने के लिए कन्वेयर सिस्टम और रेलवे बुनियादी ढांचे का निर्माण किया है। अडानी माइंस कम्पनी परसा ईस्ट केते बासेन खदान की मालिक नहीं है लेकिन कोरबा में हो रहे आदिवासियों के आंदोलन गौतम अडानी और उनकी कंपनी के खिलाफ हो रहे है।
हसदेव जंगल पक्षियों की 82 प्रजातियों, 167 प्रकार की वनस्पतियों का घर है, जिनमें से 18 संकटग्रस्त है। यहाँ लुप्तप्राय तितली की कई प्रजातियाँ भी पाई जाती हैं। इसके आलावा यह जंगल हाथियों के लिए एक निवास स्थान और एक प्रमुख प्रवासी गलियारा है। भारतीय परिषद वानिकी अनुसंधान और शिक्षा विभाग ने इसे प्राचीन साल और सागौन के जंगलों से युक्त मध्य भारत का सबसे बड़ा अखंडित जंगल बताया है। जंगल हसदेव नदी के जलग्रहण क्षेत्र के रूप में भी कार्य करता है, जिससे इसका बारहमासी प्रवाह बना रहता है। ऐसा माना जा रहा है कि जब से जंगल में खनन का कार्य शुरू हुआ है तब से हाथियों के प्रवास में दिक्कतें आना शुरू हो गई है।
हाथियों का झुंड और तेंदुए जंगल से गाँव की तरफ आना शुरू हो गए है जिससे जानवरों और इंसानो के बीच विवाद देखने को मिल रहा है। इस विवाद को खत्म के लिए 2019 में छत्तीसगढ़ सरकार ने 1995 वर्ग किलोमीटर का लेमरू हाथी रिजर्व प्रस्तावित किया था। लेमरू में हाथी रिज़र्व बनाने की बात 2007 से ही चल रही थी जब पर्यावरण और वन मंत्रालय और छत्तीसगढ़ वन विभाग की रिपोर्ट में कहा गया था कि कोरबा और रायगढ़ जिलों में हाथियों की महत्वपूर्ण संख्या है, जिसके आधार पर इस क्षेत्र को लेमरू हाथी रिजर्व बनाया जा सकता है।
इसके आलावा हसदेव जंगल से निकलने वाली हसदेव नदी को भी कोयला खदान से प्रभाव पड़ रहा है। खनन गतिविधियों ने हसदेव नदी के प्राकृतिक प्रवाह को बदल दिया है, जिससे क्षेत्र के जल विज्ञान में बदलाव आया है। यह व्यवधान डाउनस्ट्रीम समस्याओं का कारण बन सकता है, जिससे समुदाय और पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित हो सकते हैं जो कृषि और घरेलू उपयोग सहित विभिन्न उद्देश्यों के लिए नदी पर निर्भर हैं।
वर्तमान में, दोनों ही पार्टियां एक दूसरे पर ज़ुबानी हमले कर रही है। कांग्रेस जहाँ एक तरफ अंबिकापुर की सड़कों में आकर नई विष्णु देव साय सरकार खिलाफ प्रदर्शन कर रही है तो वहीं भाजपा ने इसका ठीकरा कांग्रेस पर फोड़ते हुए कहा है कि यह खदानें कांग्रेस सरकार के समय आवंटित हुई थी इसमें उनका कोई हाथ नहीं है। अगर बात आदिवासियों की करें तो वह अभी भी कोरबा में बड़ी संख्या में धरने पर बैठकर खदान, सरकार और अडानी के खिलाफ अपना विरोध प्रदर्शन कर रहे है लेकिन पेड़ों की कटाई अभी तक चल रही है। अब आगे देखने वाली बात होगी कि आदिवासियों की बात सुनी जाती है या नहीं।
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