मुनाफा बचाने चिकन की जिंदगी दांव पर! Neelesh Singh Thakur – RE
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अहम सवाल : मुर्गियां उत्पाद हैं या जीव?

मुर्गियां उत्पाद हैं या जीव? सवाल अंडा-मुर्गी में से कौन पहले आया जैसा ही है। खास यह भी है कि इन खाद्योपयोगी जीवों पर क्रूरता क्यों?

Author : Neelesh Singh Thakur

हाइलाइट्स –

  • कोरोना ने सोचने किया विवश

  • मुर्गी जितना प्रताड़ित कोई नहीं!

  • नहीं रही घर की मुर्गी दाल बराबर!

  • ऑर्गेनिक चिकन फार्मिंग का प्रचलन

  • मुनाफा बचाने चिकन की जिंदगी दांव पर

राज एक्सप्रेस। आदिम काल की जरूरतों, अवसरों, स्थितियों में उदर पोषण के लिए वैकल्पिक मांस भक्षण करने की लती इंसान की रसिका आज भी तरक्की के तमाम वैज्ञानिक साधनों-खाद्य उत्पादों के बावजूद मांस चखने के लिए ललचाना नहीं भूली है। इस कारण भी चिकन की दावत के शौकीनों की तादाद भी ज्यादा है।

अमानवीय मानवीयता -

मनुष्य द्वारा खाए जाने वाले अन्य जीवों जिनके प्रति मानवीयता प्रदर्शित कर खाने पर प्रतिबंध लगाने की वकालत की जाती है उसी तरह हमें खाने के लिए मान्य किए जीवों (चिकन, पोर्क, इमू) के प्रति भी नजरिये में बदलाव लाने की जरूरत है। मांस भक्षण के लिए किया जा रहा इनका अनियंत्रित उत्पादन धरा पर जैविक संतुलन से भी खिलवाड़ है।

बता दीजिये दुनिया को –

समीक्षा की जरूरत है कि हिरन, मोर या अन्य जंगली या पालतू जीवों की हत्या पर प्रतिबंध की ही तरह क्या, चिकन, पोर्क (पालतू सुअर), इमू जैसे जीवों की इंसान के खाने की जरूरत को पूरा करने के लिए हत्या नहीं रोकी जानी चाहिए? क्या एक ऐसी दुनिया संभव है जहां मुर्गा-मुर्गियों को उत्पाद नहीं जीव का दर्जा मिलता हो?

मुर्गियां उत्पाद हैं या जीव? सवाल अंडा-मुर्गी में से कौन पहले आया जैसा ही है। खास यह भी है कि इन खाद्योपयोगी जीवों पर क्रूरता क्यों?

स्वागतमा का लेख -

पारिस्थितिक विज्ञान और वैज्ञानिक पत्रकारिता के प्रति कृत संकल्पित, माइक्रोबायोलॉजी में स्नातकोत्तर की छात्रा और साहित्यानुरागी एवं ललित कला और ग्राफिक डिजाइन में लगनशील स्वागतमा मुखर्जी ने इस विषय पर वर्ल्ड एनिमल प्रोटेक्शन डॉट ओआरजी डॉट इन (worldanimalprotection.org.in) पर ब्लॉग में प्रेरक लेख लिखा है।

भाग्य का फैसला करने वाले हम कौन?

“मनुष्य एकमात्र ऐसा प्राणी है जो बिना उत्पादन के उपभोग करता है। वह दूध नहीं देता है, वह अंडे नहीं देता है, वह हल खींचने के मामले में भी बहुत कमजोर है, वह खरगोशों को पकड़ने में भी फुर्तीला नहीं... फिर भी वह सभी जानवरों का स्वामी है! वह जानवरों से काम लेता है, वह अधिकतम अपने पास रख उन्हें न्यूनतम देकर भूखे रहने विवश करता है।”

स्वागतमा मुखर्जी साहित्य के कालातीत कार्य के एक अंश जॉर्ज ऑरवेल लिखित द एनिमल फार्म (The Animal Farm) को उद्धृत कर आईना दिखाती हैं कि मानव सभ्यता के सामने वो मनहूस संकट है जिसमें विद्रोही जानवर (निवर्तमान कोरोना महामारी) मनुष्य को प्रताड़ित करने आमादा हैं।

बांग वाले की अंधेरी दुनिया -

हमारा विकास बताता है कि मानव के उपभोग की प्रवृत्ति शुरुआत से ही जीविका, सहजता और भोजन की उपलब्धता के आसपास घूमती रही है। प्रागैतिहासिक मनुष्यों को उत्कृष्ट शिकारी माना जाता है।

21वीं सदी में विशेषकर जानवर आधारित खाद्य पदार्थों की उच्च आपूर्ति और मांग के कारण मानवीय प्रथाओं, अमानवीय वर्चस्व के तरीके और इन उपभोग योग्य पशु प्रजातियों के कत्लखाना खाद्य उद्योग में इस्तेमाल से जीव प्रजातियों की संख्या में भारी गिरावट आई है।

खाद्य उद्योग में जीविका और जीवन शैली की आड़ में एक भयावह वास्तविकता पर पर्दा डाला जा रहा है। एक तरह से बांग देकर दुनिया को जगाने वाले जीवों (मुर्गा-मुर्गियों) की दुनिया में अंधेरा पसरा है।

चिकन की बेबसी -

दड़बा यानी छोटा सा पिंजरा जिसमें पल रहे जीवों के लिए जगह की कमी के कारण एक दूसरे से सटकर रहने के सिवाय और कोई चारा न हो। इनमें जन्मे चूजों को प्रारंभिक अवस्था में ही उनकी माता मुर्गी से दूर कर दिया जाता है।

चिकन के प्रति हमारे कथित संभ्रांत समाज का नजरिया उत्पाद या वस्तु का है। वह युक्ति जो हमारी बढ़ती आबादी की खाद्य जरूरतों को पूरा करने के लिए अति आवश्यक है।

आज के समाज में भोजन जीवन की आवश्यकता न होकर शरीर को जिंदा रखने के लिए ईंधन रूपी विकल्प हो गया है।

गौर करना होगा कि भौतिक तौर पर कब्जा जमाने के बाद पूंजीवाद कैसे हमारी खान-पान की आदतों तक पर दखलंदाजी करने आमादा है।

फलता-फूलता धंधा -

दुनिया के 70 फीसदी देशों में मुर्गी पालन कमाई का एक फलता-फूलता धंधा बन गया है। सड़ांध मारते वातावरण में पाले जा रहे बॉयलर-काकरेल मुर्गा-मुर्गियों का इतने बड़े पैमाने पर उत्पादन और खाने के लिए मारे जाने की घटना अब एक तरह से लोगों की जिंदगी में आम हो गई है।

जीव नहीं उत्पाद! -

जनमानस में यह विचार घर कर गया है कि चिकन जीव नहीं जैसे कोई उत्पाद हो! कुछ लोगों ने इस पर ध्यान आकृष्ट कराने की जहमत भी उठाई तो वो चंद वेबपेजों और गिनती मात्र के वन्य जीव प्रेमी संगठनों तक ही सीमित रही।

हमारी प्रजाति ने हमेशा सबसे दयालु, तार्किक और व्यावहारिक प्राणियों में से एक होने का गर्व किया है; हालांकि, अधिक लाभ उठाने के लिए जानवरों से अमानवीय व्यवहार के ऐसे मामले भी अक्सर मानवता की गिरावट पर प्रश्नचिह्न खड़े करते हैं।

प्रसिद्ध पशु अधिकार कार्यकर्ता और लेखक, कारेन डेविस ने इस बारे में अपने एक खास उद्बोधन में खाने के लिए इस्तेमाल होने वाले जानवरों के मुद्दे पर मानवता की तर्क शक्ति और चिंता एवं निष्पक्षता के बारे में खोये हुए विश्वास और उदासीनता की भावना के बारे में सही ढंग से अवगत कराया है।

कोरोना ने सोचने विवश किया -

कोरोना वायरस महामारी-19 (covid-19) ने इस साल धरतीवासी अधिकांश लोगों को परिवार के सदस्यों या फ्लैटमेट्स के साथ अपने घरों तक ही सीमित रहने विवश कर दिया। वसुधा पर लोगों ने दिनचर्या में ताजी हवा और धूप का तक अभाव महसूस किया है।

इंसान ने सुबह की सैर और शाम को टहलने जैसे अधिकार अपने पास रखे हैं जबकि दड़बों के कैदखाने में इंसान की भूख शांत करने पाले जा रहे प्रॉडक्ट बन चुके मुर्गा-मुर्गियों की बेबसी कोरोना में इंसान पर गुजरी आप बीती से समझी जा सकती है।

कोरोना वायरस के खौफ से बस्तियों में सन्नाटा पसरा रहा। तो अदृश्य और अब तक असाध्य साबित इस व्याधि (कोविड-19) ने प्रगति के सूचक इंसान को जैसा है जहां है जैसी स्थिति में रहने के लिए विवश कर दिया। बेचैन, फंसा हुआ और चिंतित...क्योंकि आगे मृत्यु का संभाव्य खतरा ही शत प्रतिशत भी तय है।

ठीक इसी तरह राजनीतिक, सामाजिक, भौगोलिक रेखाओं से परे प्राकृतिक आबो हवा में विचरने वाले प्राणियों-परिंदों पर तक पूंजीवाद का ग्रहण स्पष्ट दृष्टि गोचर है। इनसे मुनाफा कमाने यातनापूर्ण स्थितियों में इनको पाला जा रहा है।

यातना भरा जीवन -

लोगों के निवाले में चाव के साथ शामिल किए जाने वाले जीव जंतुओं की खाद्य-आपूर्ति और मांग की स्थिति भी काफी चिंताजनक है।

खाद्य वस्तुओं के तौर पर मार्केट के चलन में शामिल मुर्गा-मुर्गी, पालतू सुअर, इमू जैसे जीवों के लालन-पालन (फार्मिंग) पर पशु जीवन संरक्षण जैसे नियमों की ढील के कारण ये जीव बेहद कष्टप्रद स्थिति में हैं।

पिंजरों में एक के ऊपर एक लदे चिकन को भीड़-भाड़ वाली, गंदी परिस्थितियों, अमानक वातावरण में रखा जाता है। कई पालतू स्थलों पर तो इन जीवों को प्राणी जीवन के अनिवार्य स्त्रोत सूरज की रोशनी तक नसीब नहीं होती।

इसका नतीजा यह होता है कि इन खाद्य उपयोग के लिए पाले जा रहे पालतू जीवों में से अधिकांश को बीमारी या फिर जीवन के लिए जरूरी जैविक कारकों की अपर्याप्ता के कारण नुकसान पहुंचता है।

ब्रायलर मुर्गियों के रोग -

पंखों को नुकसान, सांस संबंधी बीमारी, पैरों और पेट पर झुलसने के उदाहरण ब्रायलर मुर्गियों में मिलने वाली सामान्य बीमारियां हैं।

मुर्गी के वजन का गणित -

सौ में से 75 से ज्यादा मुर्गी पालन क्षेत्र (चिकन पोल्ट्री फॉर्म) पर अमानक शेड में मशीनी तर्ज पर मुर्गा-मुर्गी तैयार किए जा रहे हैं। इसके पीछे वध के वक्त मांस का ज्यादा से ज्यादा वजन मिल सके इसलिए छह महीने से भी कम समय में चिकन को बतौर प्रॉडक्ट तैयार करने की अंधी दौड़ है।

प्राकृतिक परिवेश की तुलना में पोल्ट्री फार्म में पैदा किए जा रहे भारी-भरकम देहयाष्टि के चिकन को दड़बों में इस सेहत के लिए मिल रहा जीवन काल अपर्याप्त है। साथ ही भारी-भरकम देह के मुर्गा-मुर्गियों में से अधिकांश अपने भारीपन और कमजोर पैरों के कारण चलने या हिलने-डुलने में असमर्थ हो जाते हैं जो कि रुगण्ता की निशानी है।

लागत बचाने की नीति -

जीवन प्रतिकूल परिस्थितियों में उत्पादित किए जा रहे मुर्गा-मुर्गियों को मानक परिस्थितियों में पालने के लिए लगने वाली लागत को बचाने के चक्कर में विवश जीवों को कष्ट में डाला जाता है।

ये चिकन दड़बों में आसानी से चल फिर नहीं पाते जिससे बीमारियों का शिकार भी होते हैं। कालातीत में कई संक्रामक बीमारियां इस बात की गवाह भी हैं, जब देखते ही देखते एक बीमार मुर्गी पूरे दड़बे के लिए संकट कारक सिद्ध हुई।

मानव जाति को खतरा -

प्रकृति निर्भर जीवनाधिकार में असंतुलित मात्रा में किसी जीव विशेष का पालन मानव एवं अन्य जीव-जंतुओँ के लिए खतरा भी हो सकता है। क्योंकि इनसे उपजी बीमारी व्यापक तौर पर खतरनाक होगी।

भारत में कई बार पोल्ट्री फार्म में बीमारी से मृत होने वाली मुर्गियों को बजाए नियमानुसार समाप्त करने सार्वजनिक स्थानों पर फेंक दिया गया। इन बीमार मुर्गियों को खाने से गलियों के आवारा कुत्ता-बिल्लियों जैसे जानवरों को भी संक्रमण का खतरा हो सकता है।

बीमार मुर्गी पर इतना बोझ -

ज्यादा वजन वाली मुर्गी पालने की प्रक्रिया में इन जीवों की तेज शारीरिक वृद्धि इनके फेफड़ों और दिलों पर अत्यधिक तनाव पैदा करती है। अध्ययन बताता है कि कुल मिलाकर मांस के लिए पाली जा रही ये मुर्गियां अक्सर तनाव और थकान के कारण पिंजरों में मर जाती हैं। दुर्भाग्य जनक रूप से इन पक्षियों को भुगतने के लिए इससे बुरा भाग्य नहीं हो सकता।

मुर्गों की बांग अनसुनी! -

मांस के उत्पादन के मकसद से फार्म में पाली जा रही मुर्गियों में जैविक और नैतिक दृष्टिकोण से कई खामियां होती हैं। अमानवीय तरीके से पालन के बाद इनके वध करने के तरीकों तक में नियमों के पालन में कोताही स्पष्ट है।

न केवल नैतिक कानून और पशु कल्याण संबंधी नियमों का उल्लंघन पोल्ट्री फार्म वाले मांस के बिजनेस में हो रहा है बल्कि उत्पाद बनते जीव की कहानी अंतस में झांकने वाले किसी भी इंसान को वैचारिक तौर पर झिंझोड़ने के लिए काफी है।

बिजली से प्राण दंड, क्रूरतम साफ-सफाई (पंख नोचना), गला रेतने जैसी अधूरी हत्या वाला तरीका क्या इन जीवों से बुरा बर्ताव नहीं है?

दरअसल इसके पीछे इंडस्ट्री का काला सच समाहित है जिसमें जानवरों, जीवों को नियमानुसार पालने पर लगने वाले अतिरिक्त खर्च के कारण कम होने वाले मुनाफे के लिए जानवरों को पालने वाले नियमों को अनदेखा कर दिया जाता है।

लंबी चिकन श्रृंखला -

अब घर की मुर्गी दाल बराबर वाली कहावत मुर्गी की मार्केट पर पकड़ के कारण गलत साबित हो सकती है। कई तरीके के चिकन व्यंजनों के साथ विश्व के कई ख्यात खाद्य चेन अनुबंधों ने बाजार में अपनी ठसक भी दिखाई है।

चिकन बर्गर से लेकर चिकन लॉलीपॉप जैसे इंस्टेंट फूड आज लेग करी सरीखे पारंपरिक जायकों की जगह लेते जा रहे हैं। लोकप्रिय और भीड़भाड़ वाले जनसुलभ स्थलों पर नामी ब्रांड्स का चिकन प्रॉडक्ट स्वच्छता के मानकों का ध्यान रखकर विक्रय किया जा रहा है।

बदलाव की बयार -

हालांकि पशुओं के जीवन की बेहतरी के लिए कालांतर में कई कदम भी उठाए गए हैं। नैतिक तौर पर पशुओं से उत्तम व्यवहार के लिए सामाजिक ताना-बाना बुना गया है। कई प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों ने खाद्य उद्योग में वध के समय होने वाले अत्याचार से कानूनी तौर पर इन निर्दोष पक्षियों को बचाने के लिए हाथ मिलाए हैं।

खास तौर पर इन जीवों के जीवन क्रम से जुड़े शारीरिक कल्याण, मानसिक शक्ति और प्राकृतिक जीवन स्थलों को अपनाने जैसे सुझाव प्राणी विशेषज्ञों ने सुझाए हैं।

हालांकि हाल ही के वर्षों में देखने में आया है कि जैविक (ऑर्गेनिक) चिकन की फार्मिंग में मुर्गियों के वजन को नैतिक और उचित जैविक तरीके से बढ़ाया जा रहा है।

कुछ नामी ब्रांड के पोल्ट्री फार्म में चिकन को पालने के तरीकों में सुधार कर चिकन के जीवन क्रम में सहयोगी तरीकों को अमल में लाया जा रहा है।

ज्यादा खुलापन, सूरज की रोशनी के साथ ही उचित जैविक आहार के कारण चिकन के वजन से लेकर तंदरुस्ती तक का ख्याल इन जैविक फार्म में रखा जा रहा है।

जैविक फार्म हाउस -

यद्यपि कई फास्ट फूड दिग्गजों और स्टोर्स ने जैविक फार्म को नापसंद किया है। लेकिन गुणवत्ता की बात करें तो जैविक फार्म पर उत्पादित चिकन हर तरह से बेहद स्वस्थ, व्यवस्थित और नैतिक तरीके से प्राप्त होते हैं।

वर्ल्ड एनिमल प्रोटेक्शन की पहल -

वर्ल्ड एनिमल प्रोटेक्शन की अनुकरणीय पहल ने खाद्य उद्योग के इस अनदेखे पहलू पर ध्यान आकर्षित किया है। जिसमें चिकन खाद्य इंडस्ट्री के हर अच्छे-बुरे तथ्यों पर गहन शोध के साथ न के केवल ध्यान आकर्षित किया जा रहा है बल्कि निदान के सुझाव भी रखे जा रहे हैं।

डिस्क्लेमर – आर्टिकल प्रचलित रिपोर्ट्स पर आधारित है। इसमें शीर्षक-उप शीर्षक और संबंधित अतिरिक्त प्रचलित जानकारी जोड़ी गई हैं। इस आर्टिकल में प्रकाशित तथ्यों की जिम्मेदारी राज एक्सप्रेस की नहीं होगी।

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